Tuesday, February 8, 2011

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन


'मानव में क्रांति' और 'विश्व में शांति' केवल 'ब्रह्मज्ञान' द्वारा संभव है |

 अन्तरात्मा हर व्यक्ति की पवित्र होती है, दिव्य होती है | यहाँ तक कि दुष्ट से दुष्ट मनुष्य की भी | आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसके विकार ग्रस्त मन का परिचय उसके सच्चे, विशुद्ध आत्मस्वरूप  से कराया जाये |
यह परिचय बाहरी साधनों से सम्भव नहीं है | केवल 'ब्रह्मज्ञान' की प्रदीप्त  अग्नि ही व्यक्ति के हर पहलू को प्रकाशित कर सकती है | यही नहीं, आदमी के नीचे गिरने की प्रवृति को 'ब्रह्मज्ञान' की सहायता से उर्ध्वोमुखी या ऊँचे उठने की दिशा में मोड़ा जा सकता है | इससे वह एक योग्य व्यक्ति और सच्चा नागरिक बन सकता है |
             'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करने के बाद साधना करने से आपकी सांसारिक जिम्मेदारियां दिव्य कर्मों में बदल जाती हैं | आपके व्यक्तत्व का अंधकारमय पक्ष दूर होने लगता  है | विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है और नकारात्मक प्रविर्तियाँ दूर होती जाती हैं | अच्छे और सकारात्मक गुणों का प्रभाव आपके अन्दर बढने लगता है | वासनाओं,भ्रतियों और नकारात्मकताओं में उलझा मन आत्मा में स्थित होने लगता है | वह अपने उन्नत स्वभाव यानि समत्व, संतुलन और शांति की दिशा में उत्तरोत्तर बढता जाता है | यही 'ब्रह्मज्ञान' की सुधारवादी प्रक्रिया है |
           अगर हम जीवन का यह वास्तविक तत्व यही 'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सच्चे सदगुरू की शरण में जाना होगा | वे आपके 'दिव्यनेत्र' को खोल कर, आप को ब्रह्मधाम तक ले जा सकते हैं, जहाँ मुक्ति और आनन्द का साम्राज्य है | सच्चा सुख हमारे अन्दर ही विराजमान है, लेकिन उसका अनुभव हमें केवल एक युकित द्वारा ही हो सकता है, जो पूर्ण गुरू की कृपा से ही प्राप्त होती है | इस लिए ऐसा कहना अतिशयोकित न होगा कि सदगुरू संसार और शाश्वत के बीच सेतु का काम करते हैं | वे क्षनभंगुरता से स्थायित्व की ओर ले जाते हैं | हमें चाहिए कि हम उनकी कृपा का लाभ उठाकर जीवन सफल बना लें |
मानव समाज की दम तोड़ती मानवता को यदि कोई बचा सकता है तो वह है 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान'

बुद्धिजीवी थे...फिर भी गुरू का द्वार खटखटाया !



क्या आप ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं ?' - नरेंद्र ने मन  में उठ रहे असंख विचारों को एक सारयुक्त प्रशन के रूप में रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा |
परमहंस - हाँ ! विश्वास करता हूँ |
नरेंद्र - क्या प्रमाण है ईश्वर के असितत्व  का ?
परमहंस - प्रमाण ! सबसे बड़ा प्रमाण केवल यही है नरेंद्र कि मैंने उसे देखा है | अपने इतने करीब कि इस समय तू भी मेरे इतना नजदीक नहीं खड़ा है | मैं उसे देखता हूँ, उससे बात करता हूँ...
            नरेंद्र अवाक् रह गया | देखता हूँ ! बात करता हूँ ! कितनी सरलता से रामकृष्ण परमहंस जी कह रहे हैं | क्या यह सत्य है?
परमहंस - नरेंद्र! ईश्वर को देखना ही उसके असितत्व का प्रमाण है | मैना देखा है, मैं तुम्हें भी दिखा सकता हूँ | बोलो, क्या तुम देखना चाहते हो?... बोलो, क्या तुम देखोगे?
      'बोलो,क्या तुम देखोगे?' - कितना स्पष्ट आह्वान था, ईश्वर से मिलने का! इतना आसान, इतना सरल... नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण परमहंस जी के चरणों में सिर झुका दिया | सारी दौङ ख़त्म हो गई, सभी संशयों  का निवारण हुआ, जब रामकृष्ण परमहंस जी ने नरेंद्र को ब्रह्मज्ञान प्रदान किया | नरेंद्र ने दिव्य दृष्टि से अपने भीतर ही ईश्वर के दर्शन किये | परमहंस जी ने देखा था, उसे भी दिखा दिया |
तब कहीं जाकर नरेंद्र ने ईश्वर के असितत्व को स्वीकारा! और ऐसा स्वीकारा कि अपना सम्पूर्ण जीवन उसी के नाम कर दिया | गुरू प्रसाद से स्वामी विवेकानंद बनकर विशव के विराट प्रांगन  में प्रभु के नाम का डंका बजा दिया |
आज भी प्रभु का दर्शन संभव है, बस जरूरत है एक पूर्ण संत की जो हमें दीक्षा के समय दर्शन करवा दे | आप ऐसे संत की खोज करें |
 अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते
 हैं |

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब


काल करै सो आज कर, आज  करै सो अब |
पल में परलय होयगी, बुहिर करेगा कब ||

संत कबीर जी कहते है कि हे मानव ! जो कल करना है उस कार्य को आज करो और जो आज करना है उसे अभी (तुरंत ) कर लो | पल में मृत्यु रुपी प्रलय आ सकती है, कब मृत्यु के मुख में चले जाओगे कोई निशचित नहीं है, फिर कब करोगे अर्थात विचार करते करते समय बीत जायेगा और तुम सोचते ही रह जाओगे | अत: प्रभु नाम सुमिरन के लिए आज और कल का समय निर्धारित न करके अभी से आरम्भ कर दो |
पर आज के मनुष्य की क्या सोच है ?
आज करै सो कल कर, कल करै सो परसों |
इतनी भी क्या जल्दी है, जब उम्र पड़ी है बरसों |
अभी बहुत जीवन पड़ा है प्रभु के सुमिरन को, कर लेंगे इतनी भी क्या जल्दी है |
खाओ पीओ करो आनंद किसने देखा परमानन्द |
अभी तो मोज मस्ती करने के दिन है | जो मन करता है खाओ, ऐश करो, जीवन का आनंद लो | पर जिस को इन्सान ऐश कहता है, वो ऐश नहीं है | ऐश इंग्लिश का शब्द है जिस का अर्थ होता है राख | मनुष्य सोचता है कि बचपन खेलने के लिए मिला है,जवानी में और बहुत से काम है, वृद्ध अवस्था में जाकर प्रभु की बंदगी की जाएगी | पर इस बात की क्या गारंटी है कि आज बचपन है, कल को जवानी आएगी और आज अगर जवानी है तो कल को बुढ़ापा आएगा | बुढ़ापे जाकर इन्सान चाहते हुआ भी कुछ नहीं कर सकता | उस का शारीर भी काम नहीं नहीं करता | फिर रोता है पछताता है | फिर रोने का क्या फायदा | जो प्रभु भक्ति का जवानी का समय था, वो तो उस ने विषय विकारों में गवा   दिया | इस लिए समय रहते एक पूर्ण संत की खोज कर लो,जो प्रभु का उसी समय दर्शन करवा दे,उस के बाद ही भक्ति की शुरूआत होगी |
अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते 
हैं |