Tuesday, February 8, 2011

बुद्धिजीवी थे...फिर भी गुरू का द्वार खटखटाया !



क्या आप ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं ?' - नरेंद्र ने मन  में उठ रहे असंख विचारों को एक सारयुक्त प्रशन के रूप में रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा |
परमहंस - हाँ ! विश्वास करता हूँ |
नरेंद्र - क्या प्रमाण है ईश्वर के असितत्व  का ?
परमहंस - प्रमाण ! सबसे बड़ा प्रमाण केवल यही है नरेंद्र कि मैंने उसे देखा है | अपने इतने करीब कि इस समय तू भी मेरे इतना नजदीक नहीं खड़ा है | मैं उसे देखता हूँ, उससे बात करता हूँ...
            नरेंद्र अवाक् रह गया | देखता हूँ ! बात करता हूँ ! कितनी सरलता से रामकृष्ण परमहंस जी कह रहे हैं | क्या यह सत्य है?
परमहंस - नरेंद्र! ईश्वर को देखना ही उसके असितत्व का प्रमाण है | मैना देखा है, मैं तुम्हें भी दिखा सकता हूँ | बोलो, क्या तुम देखना चाहते हो?... बोलो, क्या तुम देखोगे?
      'बोलो,क्या तुम देखोगे?' - कितना स्पष्ट आह्वान था, ईश्वर से मिलने का! इतना आसान, इतना सरल... नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण परमहंस जी के चरणों में सिर झुका दिया | सारी दौङ ख़त्म हो गई, सभी संशयों  का निवारण हुआ, जब रामकृष्ण परमहंस जी ने नरेंद्र को ब्रह्मज्ञान प्रदान किया | नरेंद्र ने दिव्य दृष्टि से अपने भीतर ही ईश्वर के दर्शन किये | परमहंस जी ने देखा था, उसे भी दिखा दिया |
तब कहीं जाकर नरेंद्र ने ईश्वर के असितत्व को स्वीकारा! और ऐसा स्वीकारा कि अपना सम्पूर्ण जीवन उसी के नाम कर दिया | गुरू प्रसाद से स्वामी विवेकानंद बनकर विशव के विराट प्रांगन  में प्रभु के नाम का डंका बजा दिया |
आज भी प्रभु का दर्शन संभव है, बस जरूरत है एक पूर्ण संत की जो हमें दीक्षा के समय दर्शन करवा दे | आप ऐसे संत की खोज करें |
 अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते
 हैं |

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