Wednesday, December 8, 2010

आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट |



आए जगत में क्या किया तन पाला के पेट |
सहजो दिन धंधे गया रैन गई सुख लेट ||

संत सहजो बाई जी कहती हैं कि जगत में जन्म तो ले लिया परन्तु किया क्या ? तन को पाला या खा-खा कर पेट को बढाया | दिन तो संसार के कार्यों में गँवा दिया और रात सो कर गँवा  दी |

रैणि गवाई सोइ कै दिवसु गवाइआ खाइ ॥ 
हीरे जैसा जनमु है कउडी बदले जाइ ॥१॥(Gurbani-156)

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि रात सो कर गँवा  दी और दिन खा कर गँवा  दिया | हीरे जैसे जन्म को अर्थात्त तन को कौड़ी  के भाव गँवा दिया | इस जगत में मनुष्य  की यह स्थिति है कि उसने शरीर को तो जान लिया परन्तु जीवन को भूल गया | यह अहसास नहीं है कि जीवन क्या है ? आज हम जिसे जीवन कहते हैं,वह तो पल प्रतिपल मृत्यु की  और बढ रहा है | परन्तु यह 30-40  वर्ष का जीवन,जीवन नहीं है | हम अपना जन्म दिन मनाते है,हम इतने बड़े हो गए | हमारी आयु बढ़ी  नहीं , यह तो हमारे जीवन में से 30-40 वर्ष कम हो गए है,हम मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं | हमें विचार करना चाहिए के हम ने इतने वर्षों में क्या किया,क्या हम ने अपने जीवन के लकश  को जाना |
एक बार ईसा नदी के किनारे जा रहे थे,रस्ते में देखा कि  एक मछुआरा मछलियाँ पकड़ रहा था | उसके निकट गये उस से पूछते हैं,तुमारा नाम क्या है ? उसने कहा  पीटर ! ईसा ने पूछा के पीटर ,क्या तुमने जीवन को जाना ? क्या तुम जीवन को पहचानते  हो ? उसने कहा कई हाँ मैं जीवन को जानता  हूँ | मछलियाँ पकड़ता हूँ और बाजार में बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करता हूँ |
ईसा ने कहा -पीटर ! यह जीवन,जीवन नहीं,जिसे तुम जीवन समझ रहे हो वह जीवन तो मृत्यु  की तरफ बढ रहा है | आओ मैं तुम्हे उस जीवन से मिला दूं ,जो  मृत्यु के बाद  भी रहता है | पीटर आश्चर्य से  कहता है कि  क्या मृत्यु  के बाद भी जीवन है | ईसा कहते हैं - हाँ पीटर ! मृत्यु के बाद  भी जीवन है ,इस जीवन का उदेश ही उस शश्वत जीवन को जानना है | अब  ईसा मसीह पीटर को जीवन से आवगत करने के लिए उसे अपने साथ लेकर चलते हैं | तभी कुछ  लोग आते हैं और पीटर से कहते हैं,पीटर! तुम कहाँ जा रहे हो? तुम्हारे  पिता का देहांत हो गया है | 
ईसा ने पूछा,पीटर कहाँ चले? पीटर ने कहा -"पिता को दफ़नाने,उन का देहांत हो गया है ,दफनाना जरूरी है |" तब ईसा ने कहा - Let the dead burry their deads."मुर्दे को मुर्दे दफ़नाने दो" तुम मेरे साथ चलो,मैं तुम्हे जिन्दगी से मिलाता हूँ  | ईसा के कहने के भाव से स्पष्ट होता है कि  जिन के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम नहीं,जिन्हों ने जीवन के वास्तविक लकश  को नहीं जाना वह जिन्दा नहीं,वरन  मरे हुए के सामान ही है | राम चरित मानस में भी कहा है -

जिन्ह हरि भगति ह्रदय नाहि आनी |
जीवत सव समान तई प्रानी ||

संत गोस्वामी तुलसी दास जी कहते है कि  जिसके ह्रदय में प्रभु की भक्ति  नहीं,वह जीवत प्राणी भी एक शव के समान ही है| इस लिए हमें भी चाहिए के हम ऐसे  पूर्ण संत की खोज करे,जो हमारे भीतर उसी वकत प्रभु का दर्शन करवा दे | तभी हम अपने जीवन के लकश को प्राप्त कर सकते हैं | तभी हमारा जीवन सफल हो सकता है |





आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार |




आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार |
संत न होते जगत में तो  जल मरता संसार ||

एस जगत की स्थिरता  का मुख्य कारण  संत महापुरश ही  हैं  यह तो ठीक ही है कि स्वांस  चलने का हमें एहसास नहीं होता | परन्तु जब सर्दी जुकाम हो जाता है | छाती में कफ जम जाता है | तभी हमें स्वांस की कीमत का पता चलता है और हम डाक्टर के पास इलाज के लिए भागते हैं | ऐसा  नहीं है कि संसार में आज सतगुरु नहीं है | नकली नोट बाजार में तभी चल सकते हैं यदि असली नोट है | अगर सरकार  असली नोट बंद कर  दे तो नकली नोट कैसे चल सकते हैं | आज मार्किट  में नकली वस्तुए बहुत आसानी से सस्ते दामों में प्राप्त हो सकती है | परन्तु असली वास्तु की पहचान हो जाने पर नकली की कोई  कीमत नहीं रह जाती | इस प्रकार हमें जरूरत है सच्चे  सतगुरु की शरण में जाने की | जब तक सतगुरु की प्राप्ति नहीं होती,तब तक जीवन का कल्याण  असंभव है | उससे पहले हम आध्यात्मिक शेत्र  में प्रगति नहीं कर सकते |
जानना तो यह जरूरी है कि हमें किस प्रकार गुरु की प्राप्ति हो सकती है | आज का मानव यह तो सरलता से कह देता है कि गुरु कि बिना कल्याण  नहीं है,इस लिए हम ने तो गुरु धारण कर लिया | हम ने गुरु मन्त्र  लिया और खूब भजन सुमरिन करते हैं | परन्तु जब यह पूछा जाता है कि मन को शांति मिली ? क्या जीवन का रहस्य को जाना ? तब जबाब मिलता है कि यह तो बहुत मुश्किल है,मन अभी कहाँ टिका | ज्ञान तो ले लिया,परन्तु न तो मन को स्थिरता मिल पाई और न ही मन को स्थिर करने का स्थान ही पता चल पाया और न ही जीवन के कल्याण  के मार्ग को जाना | विचार करना है कि गुरु क्यों धारण किया ? गुरु का कार्य हमें जीवन के रहस्य को समझाना है | जब कि आज मनुष्य  ने गुरु मन्त्र  को एक खिलौना बना लिया | बहुत गर्व से कहते हैं कि हम ने तो गुरु किया है | परन्तु यह पता नहीं है कि गुरु किसे कहते हैं ? केवल रटने के लिए कुछ शब्दों का अभ्यास  करवा देने वाले को गुरु नहीं कहा जा सकता | यदि शस्त्रों में लिखित मन्त्रों  को ही गुरु पर्दान करता है तो गुरु की क्या जरूरत है | वह तो स्वयं भी पड़ सकते हैं | एस लिए कहा  है -

कोटि नाम संसार में तातें मुकित न होए |
आदि नाम जो गुप्त जपें  बुझे बिरला  कोई ||

कबीर जी कहते हैं कि संसार में परमात्मा के करोड़ों नाम है परन्तु उनको जपने से मुकित नहीं हो सकती | जानना है तो उस नाम को जो आदि कल  से चला आ रहा है | अत्यंत  गोपनीय है,मनुष्य  के अंतर में  ही चल रहा है | कण-कण में विधमान  है | जब जीवन में  पूर्ण  गुरु आता है वह कोई  शब्द नहीं देता ,वह उस आदि नाम को हमारे अंतर  ही प्रकट कर देता है.इस लिए हमें भी चाहिए ऐसे पूर्ण संत की खोज करें ,जब आप खोज करोगे तो आप को ऐसा संत मिल भी जायेगा | उस के बाद ही हमारी भक्ति  की यात्रा की शुरुआत होगी |




पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥





पहिलै पिआरि लगा थण दुधि ॥दूजै माइ बाप की सुधि॥ 
तीजै भया भाभी बेब ॥चउथै पिआरि उपंनी खेड ॥ 
पंजवै खाण पीअण की धातु ॥छिवै कामु न पुछै जाति ॥ 
सतवै संजि कीआ घर वासु ॥अठवै क्रोधु होआ तन नासु ॥ 
नावै धउले उभे साह ॥दसवै दधा होआ सुआह ॥ 
गए सिगीत पुकारी धाह ॥उडिआ हंसु दसाए राह ॥ 
आइआ गइआ मुइआ नाउ॥पिछै पतलि सदिहु काव ॥ 
नानक मनमुखि अंधु पिआरु ॥बाझु गुरू डुबा संसारु ॥२॥ (Gurbani-137)

श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि सब से पहले इस जीव  आत्मा का माता के दूध से प्रेम हो गया और जब कुछ  होश आया तो माँ-बाप की पहचान हो गई | बहन भाई  की जानकारी मिल गई | उस के बाद खेलने कूदने में मस्त हो गया | कुछ बड़ा हुआ तो खाने पीने की इच्छाएँ  पैदा होने लगी | उस के बाद तरह-तरह की कामनाओं का शिकार हुआ | फिर घर गृहस्ती में उलझ गया | आठवें स्थान पर कहतें हैं कि क्रोश द्वारा तन  का नाश करने पर तुल गया | बाल सफेद हो गये,बूढा  हो गया,शवांस भी आने मुश्किल हो गये | उस के बाद  शरीर जल कर राख बन जाता है | हंस रुपी जीव आत्मा शरीर छोड़ देती है | सगे सम्बन्धी सभी रोते हैं | मानव शरीर में जन्म लिया और शरीर के ही कार्य व्वहार  में लगे रहे | एक दिन ऐसा  आया जब शरीर छोड़कर चले गये | जाने के बाद  घर वाले श्राद्ध इत्यादि में लग जाते हैं| श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि मनमुख व्यक्ति,मन के विचारों के अनुसार चलने वाले,अंधों के समान व्वहार करते हुए नजर आते हैं | क्यों कि जीवन को पहचानने की आँख  गुरु द्वारा मिलती है | परन्तु गुरू को जाने बिना यह संसार अज्ञानता के अंधकार में डूब रहा है | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे पूर्ण संत की खोज करें तभी हमारा अज्ञानता का अंधकार समाप्त हो सकता है और मानव जीवन सफल हो सकता है |




देहधारी को दंड है बच सके न कोय |



देहधारी को दंड है बच सके न कोय |
ज्ञानी भोगे ज्ञान से अज्ञानी भोगे रोय ||

भौतिक जगत में दुःख तो सभी को भोगने पड़ते हैं | चाहे कोई सांसारिक व्यक्ति है या संत महापुर्श  | जिस प्रकार बच्चा  डाक्टर से डरता है | डाक्टर के नाम से रोने लगता है | टीका लगवाने की बात सुनकर ही रोने लगता है क्यों की अज्ञानी है | वह जानता  नहीं है की टीका लगवाने से स्वयं  का ही लाभ होगा | लेकिन बुद्धिमान मनुष्य  जो की डाक्टर के पास जाता है | उस से अपनी बीमारी स्पष्ट कहता है | डाक्टर टीका लगाता है | वह व्यक्ति फीस प्रदान  करता हुआ उसका धन्वाद  करता हुआ और प्रसन्न  चित्त  घर आ जाता है क्यों की ज्ञानी है | जानता है कि डाक्टर  ने किस प्रकार  मेरी भलाई चाहते हुए  रोग का इलाज किया |
ठीक इसी प्रकार संसार में सुख-दुःख सभी पर आते हैं चाहे कोई  संत है या सांसारिक व्यक्ति | परन्तु सांसारिक व्यक्ति दुःख मिलने पर रोता है,जब कि संत दुःख की चिन्ता नहीं करते | वह हँसते - हँसतें  दुखों को भोग जाते हैं क्यों की वह बालक के सामान अज्ञानी नहीं है,वरन ज्ञान से जुड़े  होने के कारण जानते हैं कि  कर्मो का फल तो भोगना ही पड़ेगा | केवल ज्ञान की अग्नि ही ऐसी  अग्नि है जो कर्म के बीज का नाश कर देती है |इस लिए यदि जीवन में सुख एवं शांति की प्राप्ति करना कहते हैं तो हमें जरूरत  है कि  पूर्ण  सतगुरु की शरण में पहुँच कर आतमज्ञान को प्राप्त करें | तभी हम जीवन को सुखमय बना सकते हैं | यदि हम बुद्धि  के द्वारा ही कर्मों का इलाज करते रहे  ,तो केवल कर्मों के बन्धनों को बढाने के अतिरिक्त  अन्य किसी सफलता की प्राप्ति नहीं कर सकते | अंतत जन्म - मरण के भयानक आवागवन के बंधन में जकड़ने के लिए मजबूर हो जाएगे | इस लए गुरबाणी में कहा है कि -

जोउ सुख को चाहै सदा सरिन राम की लेह |
कहु नानक सुनि रे मन दुरलभ मानुख  देह ||

एस लिए हमें भी चाहिए हम ऐसे संत की खोज करे,जो हमें उसी समय परमात्मा का दर्शन करवा दे| तभी हमारे जीवन में सदीवी सुख़ एवं शन्ति आ सकती है |




काहे रे बन खोजन जाई ॥




काहे रे बन खोजन जाई ॥ 
सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई ॥१ ॥रहाउ ॥ 
पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई ॥ 
तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई ॥१
बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई ॥
जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ॥२॥१॥(Gurbani - 684)

श्री गुरु तेग बहादुर जी महाराज कहते हैं,हे मानव ! तुझे प्रभु की खोज के लिए जंगलों में भटकने की क्या आवश्कता है | वह तो सभी में निवास करता हुआ भी सदा निर्लिप्त है | जिस तरह फूलों में सुगन्धि  एवं दर्पण में हमारी परछाई  छिपी है | उसी प्रकार  वह परमात्मा भी तुमारे संग,तुमारे ही अंतर में छिपा हुआ है | उस परमात्मा की खोज भी अपने अंतर  में ही करो | जो कुछ  भी वाहरी जगत में देखते हैं , जो आनंद हमें भोतिक जगत में प्राप्त होता है उसका वास्तविक रूप तो हमारे ही आंतरिक जगत में छिपा हुआ है | परन्तु यह हमें गुरु से ज्ञान प्राप्ति के पछ्चात ही पता चलता है | जब  तक हम स्वयं को नहीं पहचानते के हम कौन हैं ? हमारा वास्तविक स्वरूप  क्या है ? तब  तक हमारे संशयों  का नाश नहीं हो सकता | परन्तु यह सब  गुरु के बिना संभव नहीं |

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ 
गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥(Gurbani - 1399)

श्री गुरु राम दास जी कहते हैं कि गुरु के  बिना अंधेरा है | गुरु के बिना न हमें सत्य की समझ ही आ सकती है और न ही चित को स्थिर कर किसी प्राप्ति को ही सिद्ध कर सकते हैं | न ही मुक्ति  की प्राप्ति हो सकती है| आज मनुष का जीवन घने अंधकार से ग्रसित है और गुरु की प्राप्ति के बिना क्या स्थिति होती है|

जिना सतिगुरु पुरखु न भेटिओ से भागहीण वसि काल ॥ 
ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि विचि विसटा करि विकराल ॥(Gurbani - 40)

जिस व्यक्ति ने सतगुरु पुर्ष की प्राप्ति नहीं की | वह भाग्यहीन  समय के बंधन में फंस जाते हैं | उन्हें  जन्म-मरण के भयानक कष्ट को भोगना पढ़ता है | आवागमन की विष्ट रुपी गंदगी के कष्टों को झेलना पढ़ता है| एस लिए  हमें भी चाहिए कि हम ऐसे  पूर्ण  संत की खोज करे,जो उसी समय हमारे घट में ईश्वर का दर्शन करवा दे तभी हमारा जीवन सार्थक होगा.|







खरी कसौटी राम की काँचा टिकै न कोय



खरी कसौटी  राम की काँचा टिकै न कोय 
गुरु खरी कसौटी  के आधार पर शिष्य को परखते हैं ,कहीं मेरे शिष्य का  शिष्यत्व कच्चा तो नहीं है | ठीक एक कुम्हार की तरह ! जब कुम्हार कोई घडा बनाता  है ,तो उसे बार-बार बजाकर भी देखता है - ' टन!टन!' वह परखता है कि कहीं मेरा घड़ा कच्चा तो नहीं रह गया | इस में कोई खोट तो नहीं है |
ठीक इसी प्रकार गुरु भी अपने शिष्य को परीक्षाओं  के द्वारा ठोक-बजाकर देखते हैं | शिष्य के विश्वास ,प्रेम,धेर्य ,समर्पण,त्याग को परखते हैं|वे देखते हैं कि शिष्य कि इन भूषनो में कहीं कोई दूषण तो नहीं ! कहीं आंह की हलकी सी भी कालिमा तो इसके चित पर नहीं छाई हुई ? यह अपनी मन-मति को बिसारकर,पूर्णता समर्पित हो चूका है क्या ?
क्यों कि जब तक स्वर्ण में  मिटटी का अंश मात्र भी है,उससे आभूषण नहीं गढ़े  जा सकते | मैले दागदार वस्त्रों पर कभी रंग नहीं चढ़ता | उसी तरह,जब तक शिष्य में जरा सा भी अहम्,स्वार्थ,अविश्वास या और कोई  दुर्गुण है,तब तक वह अध्यात्म के  शिखरों को नहीं छू सकता | उसकी जीवन - सरिता परमात्म रुपी सागर में नहीं समां सकती |
यही कारण है कि गुरु समय समय पर शिष्यों की  परीक्षाएं लेते  हैं | कठोर न होते हुए भी कठोर दिखने की लीला करते हैं | कभी हमें कठिन आज्ञें  देते हैं ,तो कभी हमारे आसपास प्रतिकूल परिस्थियाँ पैदा करते हैं | क्यों कि अनुकूल परिस्थियाँ   में हर कोई शिष्य होने का दावा करता  है | जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा होता है,तो हर कोई  गुरु-चरणों  में श्रद्धा-विश्वास के फूल आर्पित करता है |
कौन सच्चा प्रेमी है ? इस की पहचान तो विकट परिस्थियाँ में  ही होती है | क्यों कि जरा-सी विरोधी व् प्रतिकूल परिस्थिया आई नहीं कि हमारा सारा स्नेह ,श्रद्धा और विश्वास बिखरने लगता है |शिष्त्यव डगमगाने लगता है |
जब श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने शिष्यों को कसौटी  पर कसा,तो हजारों के झुण्ड में से सिर्फ पांच  पियारे ही निकले | इस  लिए सच्चा शिष्य तो वही है ,जो गुरु की कठिन आज्ञा  को भी शिरोधार्य करने का दम रखता है | चाहे कोई भी परिस्थिति  हो ,उसका विश्वास,उसकी प्रीत गुरु -चरणों में अडिग रहती है | सच! शिष्य का विश्वास चट्टान की तरह मजबूत होना चाहिए | वह विश्वास नही  जो जरा-सी विरोध  की आँधियों में डगमगा जाए !!
गुरु की परीक्षाओं के साथ  एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जुड़ा है | वह यह कि परीक्षाएं शिष्य  को केवल परखने के लिए ही नहीं,निखारने के लिए भी होती है |गुरु की परीक्षा एक ऐसी कसौटी है,जो शिष्य के सभी दोष-दुर्गुणों को दूर कर देती है |  परीक्षाओं की अग्नि में तपकर जी एक शिष्य कुंदन बन पाता है | कहने का आशय कि गुरु की परीक्षाएं  शिष्यों के हित के लिए ही होती है | परीक्षायों  के कठिन दौर बहुत कुछ सिखा जाते हैं | याद रखें ,सबसे तेज आंच में तपने वाला लोहा ही,सबसे से बड़ा इस्पात बनता है |
इस लिए एक शिष्य के हिरदे में सदैव यही प्राथना के  स्वर गूजने चाहिए - 'हे गुरुवार,मुझ में वह सामर्थ्य  नहीं कि आपकी कसौटियां पर खरा उतर सकू | आपकी परीक्षाओं  में उतीर्ण  हो सकू | पर आप अपनी कृपा का हाथ सदा मेरे मस्तक पर रखना | मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं हर परिस्थिति  में इस मार्ग पर अडिग  होकर चल पाऊँ | मुझे ऐसी भक्ति देना कि आपकी कठिन से कठिन आज्ञा को  भी पूर्ण समर्पण के साथ शिरोधार्य  सकूँ|




जब देखा तब गावा ॥तउ जन धीरजु पावा ॥



जब देखा तब गावा ॥तउ जन धीरजु पावा ॥१॥
 नादि समाइलो रे सतिगुरु भेटिले देवा ॥१॥ रहाउ ॥(Gurbani-656)

एक बार संत नामदेव जी प्रभु की चर्चा कर रहे थे | उनसे प्रभु की महिमा सुन कर संगत आनंद  ले रही थी | एक व्यक्ति ने खड़े होकर नामदेव जी से प्रशन  पूछा ? आप जिस सत्य की चर्चा  कर रहे हो ,क्या आप उसे जानते हो या केवल चर्चा तक  सीमत  हो ?
यह प्रशन उस व्यक्ति का नामदेव के प्रति नहीं वरन हम सब  का उन व्यक्तियों के प्रति होना चाहिए  | जो परमात्मा के विषय में केवल शोर मचाने तक ही सीमत  है | क्यों  कि जो स्वयं परमात्मा को नहीं जानते वह हमें परमात्मा के बारे में क्या जानकारी करा सकते हैं | हमें पूछना चाहिए ऐसे  व्यक्तियों से,जो पाठ के नाम पर आमुल्य धार्मिक ग्रंथों की वास्विकता को छुपाकर,केवल धन संचय करने में लगे हैं | क्या धार्मिक ग्रंथों को लिखने का यह  उदेश्य था कि आज हम धार्मिक ग्रंथों को उदर पूर्ती के लिए प्रयोग केवल रोजी-रोटी का साधन बना ले | क्या इस लिए संत महापुरषों और गुरुओं ने बलिदान दिए |जिस व्यक्ति ने नामदेव जी से प्रशन किया था वह वास्तव में खोजी था | इस लिए ऊस ने प्रशन  किया कि क्या आप ने उस प्रभु को देखा है | संत नामदेव जी मुस्कराते हुए जबाब देते हैं कि जब देखा है तभी  गा रहा हूँ | देखकर आर्थात जानकर गाने वाले के द्वारा ही लोग धैर्य पूर्वक ज्ञान की चर्चा का आनद लेकर शांति को प्राप्त कर सकते हैं, उस आवाज को पहचानोगे जो हमारे भीतर ही समाई है | उस के बाद ही संतों की वाणी समझ में आ सकती है | इस लिए सतगुरु की प्राप्ति करो ,जो हमारे जीवन में सत्यता को प्रकट कर सकता है | जिस प्रकार यदि गरीब व्यक्ति हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे और धन की उची उची बातें करे | परन्तु केवल धन की चर्चा के द्वारा धन की प्राप्ति कैसे संभव है| इस लिए गुरबाणी में कहा गया -

हरि निरमलु अति ऊजला बिनु गुर पाइआ न जाइ ॥
पाठु पड़ै ना बूझई भेखी भरमि भुलाइ ॥ 
गुरमती हरि सदा पाइआ रसना हरि रसु समाइ ॥३॥(Gurbani - 66)

कहा कि प्रभु बहुत ही निर्मल और उज्ज्वल  है आर्थात प्रकाशवान है | परन्तु गुरु कि बिना प्राप्ति असंभव  है | कोंई पाठ पढ़  के परमात्मा के बारे में जानना चाहे तो  नहीं जान सकता  | गुरु के ज्ञान के द्वारा ही उस रस को जाना जा सकता है | जिस में सदा चिर स्थायी  सत्य छिपा है | तभी वह हमें सदैव प्राप्त रहेगा जब हम उसे जान लेंगें | इस लिए हमें भी चाहिए हम इसे पूर्ण संत की खोज करें जो हमें उस परमात्मा का दर्शन करवा दे | तभी हमारा जीवन सार्थक होगा |




नाम जपत कुष्टी भला चुइ चुइ पड़े जिस चाम |



नाम जपत कुष्टी भला चुइ चुइ पड़े जिस चाम|
कंचन देह किस काम की जा मुखि नाहि नाम ||

संत कबीर जी कहते हैं नाम जपते हुए तो कोढ़ी मनुष्य  भी अच्छा है | वह सोने जैसे काया भी किस काम  की है,जहाँ प्रभु के नाम का सुमरिन ही नहीं है | लेकिन आज मनुष्य उसी नाम को भूल चूका है और संसार के विकारों से ग्रसित है |

बिनु कंठै कैसे गावनहारी ॥ बिनु बाजे कैसो निरतिकारी ॥
जील बिना कैसे बजै रबाब ॥नाम बिना बिरथे सभि काज ॥१॥
नाम बिना कहहु को तरिआ ॥बिनु सतिगुर कैसे पारि परिआ ॥१॥ रहाउ ॥ (Gurbani -1140)

जिस प्रकार बिना संगीत के नृत्य नहीं हो सकता,कंठ के बिना गाया नहीं जा सकता | जील के बिना रबाब नहीं बज सकता | ठीक इसी प्रकार  नाम के बिना जितने कार्य हैं वह सब व्यर्थ हैं | गुरू अर्जुन  देव जी कहते हैं कि नाम के बिना कौन तर सकता है | नाम के बिना कोई भवसागर पार नहीं कर सकता और बिना सतगुरु के नाम की प्राप्ति  नहीं होती |

बिनु सतिगुर को नाउ न पाए प्रभि ऐसी बणत बणाई हे ॥९॥ (Gurbani - 1046)
दुलभ देह पाई वडभागी ॥नामु न जपहि ते आतम घाती ॥१॥ (Gurbani -188)

कहते हैं कि बिना सत्गुरु के नाम की प्राप्ति  नहीं हो सकती,प्रभु ने ऐसा  नियम बनाया है | आज जो मनुष्य  तन हमें मिला है | यह बहुत दुर्लभ है | लेकिन एस दुर्लभ तन की प्राप्ति  के बाद यदि प्रभु के नाम का सुमरिन न किया तो कहते हैं | वह आत्म  हत्यारा है |

 मोती त मंदर ऊसरहि रतनी त होहि जड़ाउ ॥ 
कसतूरि कुंगू अगरि चंदनि लीपि आवै चाउ ॥
मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ॥१॥(Gubani - 14)

मोतियों का महल बना कर यदि उसमें हीरे जड़वा दिए जाएँ  | तरह - तरह की सुगन्धियों का लेप भी  लगवा लें | लेकिन कहते हैं कि मनुष्य जानता है कि सब कुछ एक दिन छुट जायेगा | लेकिन फिर भी नाम को हिरदे में नहीं बसाता है  | इस लिए कहा कि -

 सुखु नाही बहुतै धनि खाटे ॥सुखु नाही पेखे निरति नाटे ॥ 
सुखु नाही बहु देस कमाए ॥सरब सुखा हरि हरि गुण गाए ॥१॥(Gubani - 1147)

संसार की किसी भी वास्तु में सदीवी सुख नहीं मिल सकता | चाहे कितने भी नृत्य देख लें या कितने भी देशों में व्यापार चला लें | जीवन के सभी सुख केवल प्रभु के गुणों का गायन करने पर ही मिलते हैं |  अहंकार के कारण मनुष्य संसार के मोह मैं डूबा हुआ है | लेकिन जिस संसार के मोह में मनुष्य डूबा हुआ है,जिस संसार को मनुष्य आपना समझे बैठा है, वह संसार तो नश्वर है,नाशवान है | प्रभु के नाम को जाने बिना मनुष्य  के लिए संसार की वस्तिकता को जानना असंभव है और उस नाम की प्राप्ति पूर्ण सत्गुरु के बिना संभव नहीं है | जिसने सत्य नाम को जाना है,उसी ने संसार में से किसी लाभ की प्राप्ति की है | जब मनुष्य  के जीवन में पूर्ण सत्गुरु आता है वह उसे किसी बाहरी  कर्म कांड में नहीं लगाता,वह उसी समय उस आदि नाम को अंतर में प्रकट कर देता है,मनुष्य  उसी समय  जोति स्वरूप  परमात्मा का दर्शन अपने भीतर में करता है | इस लिए हमें भी चाहिए ऐसे संत की खोज करे | तभी हमारे जीवन में सदीवी सुख और शांति आ सकती है |





पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै ॥



पसू परेत मुगध कउ तारे पाहन पारि उतारै ॥(Gurbani - 802) 

श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं कि पशु,प्रेत,मूर्ख और पत्थर का भी सत्संग के माध्यम से कल्याण हो जाता है | श्री मदभागवत  पुराण में एक कथा आती है गोकर्ण  के भाई धुन्धकारी को बुरे कर्मों के कारण प्रेत योनि की प्राप्ति हुई | जब गोकर्ण ने उसको प्रभु की कथा सुनाई तो वह प्रेत योनि से मुकत हो गया | इस लिए गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा कि संत महापुरषों की संगत आनंद देने वाली है और कल्याण करती है | सत्संग की प्राप्ति होना फल है,बाकी सभी कर्म फूल की भांति है | जैसे एक पेड़ पर लगा हुआ फूल देखने में तो सुन्दर लगता है किन्तु वास्तव में रस तो फूल के फल में परिवर्तित हो जाने के बाद ही मिलता है | सत्संग को आनंद और कल्याण का मूल कहा गया | जिस के जीवन में सत्संग नहीं,उस के जीवन में सुख सदैव नहीं रह सकता | आत्मिक रस तो महापुरषों की संगति से ही प्राप्त हो सकता है | इस लिए कबीर जी कहते हैं -

कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥ 
बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु ॥१३१॥(Gurbani - 1371)

दुष्टों का संग कभी भूल कर भी न करो | यह मानव के पतन का कारण बनता है | जैसे कोयले की खान में जाने पर कालिख लग ही जाती है | दुष्ट और सज्जन देखने में एक ही जैसे लगते हैं परन्तु फल से पता चल जाता है कि दुष्टों का संग अशांति देता है और सज्जनों का संग शांति |
जो दुष्ट हैं,वो भी जब संत महापुरषों जैसे वस्त्र धारण कर लेते हैं सब  लोग उन को को संत समझकर उन का सम्मान करते है| संत की पहचान उसके भगवे वस्त्र नहीं है,भगवे वस्त्र में तो रावण भी आया था जो सीता माता को चुरा कर ले गया | संत की पहचान उस का ज्ञान है,जो संत हमें उसी समय हमारे अंतर में परमात्मा का दर्शन करवा दे,वह पूर्ण है,अगर वो हमें किसी बाहरी कर्म कांड में लगाता है,इस का मतलब है वह अधूरा है,ऐसे संतों से हमें सावधान रहना चाहिए.ये बात हमारे सभी धार्मिक शास्त्र कहते हैं| इस लिए हमें भी ऐसे पूर्ण संत की खोज करनी चाहिए,जो उसी समय परमात्मा का दर्शन करवा दे ,तभी हमारे जीवन का कल्याण संभव है |





कबीरा सभ जग दुख भरा सुखवंता नहि कोय |



कबीरा सभ जग दुख  भरा सुखवंता नहि कोय |
सुखीए केवल भगत जन जिस राम नाम धन होय ||

इस संसार में देखते हैं कई कोई इन्सान संसार के पदार्थों को जितना चाहे एकत्रित कर ले परन्तु उस की तृष्णा कभी भी शांत नहीं होती है | लेनिक जिस इन्सान  के हिरदे में परमात्मा की भक्ति बस जाती है उस की तृष्णा स्वयं ही शांत हो जाती है | सिकंदर या रावण के पास किसी सांसारिक वस्तु की  कमी नहीं थी | किन्तु वे लोग जीवन भर अशांत ही रहे | भक्त कबीर जी,नामदेव जी,गुरू रविदास जी जैसे महापुरष जिन के पास सांसारिक धन सम्पदा नहीं थी परन्तु वे अपने जीवन में कभी भी अशांत नहीं रहे | इस  लिए महापुरष इन्सान को समझाते हैं के तुझे और किसी भी तरह शांति प्राप्त नहीं हो सकती |
वेद पुराण व् सभी ग्रन्थ इक ही  बात कहते हैं कि इस जीव  को प्रभु की भक्ति के बिना सुख नहीं मिल सकता | गोस्वामी तुलसी दास जी श्री रामचरित मानस में कहते है कई बहुत सी ऐसे बातें है जो कि असंभव हैं किन्तु यह मान भी लिया जाए कि वे हो सकती हैं | लेकिन यह नहीं माना जा सकता कि  प्रभु की भक्ति के बिना किसी को सुख मिल सकता है | कछुए की पीठ बहुत सख्त होती है | किसी भी काल  में यह नहीं सुना गया कि कछुए की पीठ पर बाल पैदा हो गए हों और आने वाले समय में भी इस तरह को कोई  संभावना नहीं है | बाँझ स्त्री को कभी पुत्र पैदा नहीं हो सकता,पर हो सकता है कि  आने वाले समय में लोग इस बात को मान  लें कि किसी बाँझ स्त्री के बेटे ने किसी को मार दिया हो | परन्तु परमात्मा से विमुख होकर सुख की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती | इस लिए श्री गुरु तेग बहादुर जी कहते हैं -

जाग लहु रे मना जग लेहु कहा गाफल सोइआ |
जो तनु  उपजिआ संग ही सो भी संगि न होइआ ||

हे जीव ! यह तेरे जागने का समय है ,सोने का नहीं | याद रख जब तू इस संसार में आया था,तब यह शरीर तेरे साथ आया था | पर जब तू इस संसार से जाएगा,तब यह शरीर भी तेरे साथ नहीं जाएगा | परन्तु विचारणीय  तथ्य यह है कि यहाँ पर किस निद्रा की बात कही गयी है |
उठो,जागो और अपनी मंजिल की प्राप्ति करो | पहले उठने और फिर जागना यह किस निद्रा की बात है ? साधारणत हम यह देखते हैं कि जगा हुआ इन्सान ही उठ सकता है | तब यहाँ पहले उठना फिर जागना यह किस निद्रा की ओर संकेत है ? यह अज्ञान जनित निद्रा है | इस निद्रा से न्विर्ति पाने के लिए आवश्यक है पहले उठना अर्थात हम प्रयास  करे,खोज करें पूर्ण संत की, उनसे आत्म ज्ञान प्राप्त करें और जागृत हों | शारीर की निद्रा से तो प्रतेक  इंसान देर सवेर जाग  ही जाता है किन्तु आत्मिक तोर पर सभी जीव जाग जाएँ,यह कहा नहीं जा सकता | इस लिए  हमें भी चाहिए ऐसे पूर्ण संत की खोज करें,तभी हम आत्मिक तोर पे जाग सकते हैं और हमारे जीवन में सदीवी सुख और शांति आ सकती है |