Sunday, September 11, 2011

पूर्ण गुरु के बिना जीवन का कल्याण संभव नहीं है |

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ 
गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥ (Gurbani - 1399)

श्री गुरु राम दास जी कहते हैं कि गुरु के बिना घोर अंधेरा है | गुरु के बिना हमें सत्य की समझ नहीं आ सकती है और न ही चित्त को स्थिर कर किसी प्राप्ति को ही सिद्ध कर सकते हैं | न ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है | आज मनुष्य का जीवन अंधकार से ग्रस्त है और गुरु की प्राप्ति के बिना क्या स्थिति होती है |

जिना सतिगुरु पुरखु न भेटिओ से भागहीण वसि काल ॥ 
ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि विचि विसटा करि विकराल ॥(Gurbani - 40)
जिस व्यक्ति ने सतगुरु पुरष की प्राप्ति नहीं की | वह भाग्यहीन समय के बंधन में फंस जाता है | उन्हें जन्म - मरण के भयानक कष्ट को भोगना पड़ता है | आवागमन की विष्टा रुपी गंदगी को झेलना पड़ता है | श्री गुरु अमरदास जी कहते हैं -

जे लख इसतरीआ भोग करहि नव खंड राजु कमाहि ॥ 
बिनु सतगुर सुखु न पावई फिरि फिरि जोनी पाहि ॥३॥(Gurbani - 26)
कितने भी संसार के भोगों को भोग लो या राज्य को कितना भी विस्तृत कर लो | सारी पृथ्वी का राज्य भी भोग लो | लेकिन सतगुरु की शरण के बिना न तो आवागमन से छुटकारा हो सकता है और न ही सुख शांति की प्राप्ति ही कर सकते हैं |

सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ 
बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥२॥(Gurbani - 495)
श्री गुरु अर्जुन देव जी अपनी वाणी के द्वारा स्पष्ट करते हैं कि सभी स्मृति, शास्त्र वेद कहते हैं कि बिना गुरु के मुक्ति असंभव है | कितना भी सोच विचार कर देख लो, मुक्ति की प्राप्ति के लिए गुरु की शरण में जाना ही पड़ेगा |

गुरु बिन माला फेरता, गुरु बिन करता दान |
कहे कबीर निहफल गया गावहि वेद पुरान ||
संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की प्राप्ति किए बिना चाहे माला फेरे या दान पुण्य इत्यादि कितने भी कर्म कर लें | सब व्यर्थ चले जाते हैं | ऐसा सभी शास्त्रों का कथन है, यदि जीवन का वास्तविक कल्याण चाहिए तो जरूरत है पूर्ण गुरु की शरण में जाने की |

गुरु बिन भाव निधि तरइ  न कोई | जो बिरिंच संकर सम होई ||
संत गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि कोई ब्रह्मा के सामान सृष्टि का सृजन करने की समर्थ प्राप्त कर ले, या शिव के सामान सृष्टि संहार करने की शक्ति प्राप्त कर ले | परन्तु गुरु के बिना भवसागर से पार नहीं हो सकता | यहाँ तक कि गुरु की शरण में गए बिना बहुत शक्ति समर्थ प्राप्त कर लेने पछ्चात भी विषय विकारों का त्याग करना मुश्किल है |

भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ 
पूछहु ब्रहमे नारदै बेद बिआसै कोइ ॥१॥ रहाउ ॥(Gurbani - 59)
श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि ब्रह्मा, नारद, वेद व्यास किसी से भी पूछ लो गुरु के बिना कल्याण नहीं, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता | इस लिए हमें भी चाहिए हम भी ऐसे पूर्ण गुरु की खोज करें, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के हमें दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है | तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है |

अपने शारीर को मांसाहारी भोजन द्वारा गंदा मत करो |

घर में जो मानुष मरे, बाहर देत जलाए,
आते हैं फिर घर में, औघट घाट नहाय, 
औघट घाट नहाय, बाहर से मुर्दा लावें,
नून मिर्च घी डाल, उसे घर माहिं पकावें,
कहे कबीरदास उसे फिर भोग लगावें,
घर - घर करें बखान, पेट को कबर बनावें |

संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जो परिजन मर जाता है, उसे तो लोग तुरन्त शमशान ले जाकर फूँक आते हैं | फिर वापिस आकर खूब अच्छी तरह से मल - मल कर नहाते हैं | मगर विडम्बना देखो, नहाने के थोड़ी देर बाद, बाहर से (किसे मरे जानवर का ) मुर्दा उठाकर घर में ले आते हैं | खूब नमक, मिर्च और घी डालकर उसे पकाते हैं | तड़का लगाते हैं और फिर उसका भोग लगाते हैं | बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती | आस - पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच उस मुर्दे के स्वाद का गा - गाकर बखान भी करते हैं | मगर ये मूर्ख नहीं जानते ,जाने - अनजाने ये अपने पेट को ही कब्र बना बैठे हैं!

कुछ लोगों का ये विचार है कि मंगलवार और शनिवार को तो मैं भी नहीं खाता | पर क्या यही दो दिन धार्मिक बातें माननी चाहिए? क्या बाकी दिन ईश्वर के नहीं है? जब पता है कि चीज गलत है, अपवित्र है, भगवान को पसंद नहीं, तो फिर उसे किसी भी दिन क्यों खाया जाए? वैसे भी, क्या हम मंदिर में कभी मांस वगैरह लेकर जाते हैं? नहीं न! फिर क्या यह शारीर परमात्मा का जीता - जागता मंदिर नहीं है? हमारे अंदर भी तो वही शक्ति है, जिसे हम बाहर पूजते हैं | फिर इस जीवंत मंदिर में मांस क्यों? कबीर जी ने सही कहा, हमने तो इस मंदिर रुपी शारीर को कब्र बना दिया है | बर्नार्ड शा ने भी यही कहा - 'हम मांस खाने वाले वो चलती फिरती कब्रें हैं, जिनमें मारे गए पशुओं की लाशें दफ़न की गई हैं|'

जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ 
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥(Gurbani - 1103)

यदि तुम लोग किसी जीव की हत्या करके, उसे धर्म कहते हो तो फिर अधर्म किसे कहोगे? ये ऐसे कुकर्म करके तुम स्वयं को सज्जन समझते हो, तो यह बताओ कि फिर कसाई किसे कहोगे?
कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ 
तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥(Gurbani - 1377)

मांसाहार से मनुष्य का स्वाभाव हिंसक हो जाता है और वो राक्षस बन जाता है | उसके द्वारा किए गए सभी धर्म कार्य व्यर्थ चले जाते हैं | जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन! अगर शुद्ध सात्विक भोजन खाया जाए, तो मन में भी वैसे ही विचार और भावनाएं उठेंगी | अगर हम तामसिक भोजन जैसे चिकन - शिकन,मिर्च - मसलें खाते हैं, तो मन में तामसिक गुण पैदा हो जाते हैं | हिंसा, क्रोध जैसी भावनाएं उठती हैं | एक सर्वे किया गया, जिसमें 75 प्रतिशत कैदी मांसाहार पाए गए | कभी ध्यान से देखिओ मांसाहारी लोग अक्सर बड़े गुस्सैल होते हैं | जरा सी कोई बात हुई नहीं कि वे तमतमा उठते हैं |

देखो, जैसे हर जीव की एक विशेष खुराक है | अपना एक स्वाभाविक भोजन है और वह उसी का भक्षण करता है | उसी पर कायम रहता है | शेर भूखा होने पर भी कभी शाक - पत्तियां नहीं खाएगा | गाय चाहे कितनी भी शुधाग्रस्त क्यों न हो, पर अपना स्वाभाविक आहार नहीं बदलेगी | क्या कभी उसको मांसाहार करते हुए देखा है? बस एक इन्सान ही है, जो अपने स्वाभाविक आहार से हटकर कुछ भी भक्ष्य  - अभक्ष्य खा लेता है | स्वयं विचार कीजिए, पशुओं की तुलना में आज मनुष्य कौन से स्तर पर खड़ा है |

हरि कथा की महिमा

किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥ 
संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥ 
हरि के नाम के बिआपारी ॥ 
हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ ॥ 

संत कबीर जी कहते हैं कि किसी ने तो कांसी तांबा आदि धातुओं का व्यापार किया किसी ने लोंग सुपारी का व्यापार किया | लेकिन संतों ने प्रभु के नाम का व्यापार किया, ऐसा हमारा व्यापार है | कहते हैं कि हम तो प्रभु के नाम के व्यापारी हैं | जब से प्रभु भक्ति के नाम का हीरा हाथ में आया तो यह संसार के धन के प्रति कामनाएं स्वयं ही छूट गई | इस प्रकार संत महापुरषों ने सत्संग की सबसे ज्यादा महिमा गाई है | श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं -
   
हरि कीरति साधसंगति है सिरि करमन कै करमा ॥ 
कहु नानक तिसु भइओ परापति जिसु पुरब लिखे का लहना ॥८॥ 

गुरबाणी में कहा गया है कि जीवन का मुख्य कर्म साध संगति है | इसलिए हमें उस कर्म को अवश्य करना चाहिए | जिस के द्वारा हम सुसंगति में जाए | यह बहुत भाग्य की निशानी हमारे पिछले जन्मों के शुभ संस्कार हैं, जिनके कारण हमें सत्संग का सन्देश मिलता है, सत्संग की प्राप्ति होती है | क्योंकि जगत में सत्संग की प्राप्ति को बहुत दुर्लभ बताया गया है | तुलसीदास जी कहते हैं -
सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी घर भी होय |
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ||

कहा है कि पुत्र, सुंदर पत्नी और धन सम्पति यह तो पापी मनुष्य के पास भी हो सकती है | परन्तु संत का समागम अर्थात संत का संग और प्रभु की कथा, हरि चर्चा यह दोनों ही इस भौतिक जगत में दुर्लभ है | जैसाकि सुन्दरदास जी ने कहा है -

तात मिले पुनि मात मिले, सूत भ्रात मिले युवती सुखदाई |
राज मिले गजबज मिले, सबसाज मिले मन बांछत फल पाई ||
लोक मिले सुर लोक मिले, बिधि लोक मिले बैकुण्ठहु  जाई |
सुंदर कहत ओर मिले सबही सुख, संत समागम दुर्लभ पाई |

कहा है कि सुख देने के लिए भाई-बहन, माता-पिता एवं सुंदर पत्नी भी मिल गए | राज्य, हाथी, घोड़े इत्यादि भी मिल गए | मन इच्छित सभी वस्तुओं की प्राप्ति भी हो गई | यह लोक भी मिल गया | देवलोक के आनन्द को भी प्राप्त कर लिया | ब्रह्मलोक यहाँ तक कि बैकुण्ड भी मिल गया तब भी सुन्दरदास जी कहते है कि कितने भी सुख ऐश्वर्य आनंद क्यों न मिल जाए | परन्तु संत की संगत बहुत ही दुर्लभ है | संत की संगत ही हमें जीवन की वास्तविक दिशा दिखाती है | सत्संग के द्वारा ही हम यह जान पाते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है | बहुत से व्यक्ति अज्ञानता में गलत कार्य करते हैं परन्तु जब सत्संग के द्वारा उन्हें वास्तविकता का ज्ञान होता है | तब वह स्वयं ही सत्य के साथ जुड़ने का प्रयास प्रारम्भ कर देते हैं | उनसे गलत कार्य छूटने लग जाते हैं | संत का संग मनुष्य के जीवन में महान और आश्चर्यजनक परिवर्तन ला देता है | हमारे इतिहास में इसके बहुत से उदाहरण आते हैं | जैसे अंगुलिमाल डाकू, सज्जन ठग, कोड़ा राक्षस, गणिका वेश्या, अजामिल इत्यादि | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे पूर्ण संत की शरण को प्राप्त करें, उस के बाद आप भी जीवन में परम सुख और शांति अनुभव करेंगे | आज समाज को क्रांति ओर मानव को शांति की जरूरत है, वो केवल ब्रह्मज्ञान से ही आ सकती है | केवल अध्यात्म ही धू - धू  कर जलते विश्व को बचा सकता है |जिस के बारे में संत कबीर जी कहते हैं -

आग लगी आकाश में, झर झर गिरे अंगार !
संत न होते जगत में ,तो जल मरता संसार !!

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |

यह परमात्मा द्वारा निर्मित एक अटल नियम है | जिसे हम और आप चाह कर भी नहीं उलट सकते | ठीक वैसे ही जैसे किसी को अपनी नेत्रहीनता का उपचार कराना है, तो नेत्र चिकित्सक की ही पनाह लेनी होगी | यह नितांत अटूट नियम है | इतना अटूट कि अगर कल किसी नेत्र चिकित्सक को अपनी नेत्रहीनता के उपचार की जरूरत पड़े, तो वह भी यह उपचार स्वयं करने में असमर्थ है | उसे भी किसी अन्य नेत्र चिकित्सक की टेक लेनी ही पड़ेगी | यही कारण था सज्जनों, कि परम सदगुरु प्रभु श्री राम ने भी इस नियम को रजामंदी दी | गुरु वशिष्ठ के आश्रित हुए | द्वापर युगीन जगदगुरु श्री कृषण ने भी इन्ही पदचिन्हों का अनुसरण किया | वो स्वयं ऋषि दुर्वासा की शरणागत हुए -

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |
तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ||
इस संदर्भ में कुछ लोग अक्सर एक प्रशन उठा देते हैं | वह यह कि फिर मीरा, नामदेव, धन्ना आदि भक्तों ने बिना गुरु के प्रभु को कैसे पा लिया था? मीरा श्री कृषण से बातें किया करती थी | नामदेव को 72 वार विट्ठल का  दर्शन किया था | धन्ना ने तो पत्थर तक में से भगवान को प्रकट कर लिया था | इनके पास तो कोई गुरु नहीं था | पर जो लोग ऐसा कहते हैं उनका ज्ञान अधूरा है | नि: सन्देह इन भक्तों के प्रेम व भावना के वशीभूत होकर भगवान इनके समक्ष प्रकट हो जाया करते थे | वे प्रभु के तत्त्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पे थे | पर इससे इनका पूर्ण कल्याण नहीं हो पाया था | इसलिए बाद में इन सब ने भी पूर्ण गुरू की शरण ग्रहण की थी | इतिहास बताता है कि मीरा ने गुरु रविदास जी से, नामदेव ने विशोबा खेचर से व धन्ना ने स्वामी रामानंद जी से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था |
बस समझ लो! सृष्टि के आदिकाल से वर्तमान तक जिसने भी ईश्वर को पाया, गुरु के सान्निध्य  में ही पाया | नरेंद्र - रामकृष्ण, दयानंद - विरजानंद, जनक - अष्टावक्र, एकनाथ - जनादर्न, प्लोटो - सुकरात आदि जोड़े, इस बात को सिद्ध करते हैं | अब जब इन सभी ने इस हिदायत को कान दिए थे, बंधुओं, हम कैसे अनसुना कर सकते हैं? कैसे इस अटल नियम से हटकर अपना अलग राग आलाप सकते हैं?
हो सकता है, इन दलीलों को सुनकर अब आपका दिल कुछ मोम हुआ हो | गुरु शरणागति का नेक इरादा आपके मन - अम्बर पर कौंधा हो | मगर 99 प्रतिशत सम्भावना है कि इस इरादे को झट ग्रहण लग जायेगा | आपका यह नवजात हौंसला पस्त हो जाएगा | आप कहेंगे, दलीलें नि:सन्देह पुख्ता हैं | मगर इनकी तामील में बड़ी भरी समस्या है | हम जैसे ही इनसे गदगद होकर कदम आगे बढ़ाते हैं, हमारे मन के परदे पर अख़बारों की कुछ सुर्खियाँ उमड़ आती हैं | चलचित्रों के कुछ दृश्य घूम जातें हैं | इनमें उन सब स्कैंडलों या काण्डों की झलकियाँ हैं, जिनके नायक चोर, डाकू, ठग या लुटेरे नहीं, बल्कि समाज के नामी-गिरामी धर्मगुरु हैं | ये अनैतिकता और चरित्रहीनता के ज्वलंत उदाहरण बने दीखते हैं |

बिना दर्द भी आह भरने वाले बहुत मिलेंगे,
धर्म ने नाम पर गुनाह करने वाले बहुत मिलेंगे,
किसे फुर्सत है भटके हुए को राह दिखाने की,
विश्वास देकर गुमराह करने वाले बहुत मिलेंगे |
अब बताए, यहाँ कदम - कदम पर ऐसे रहबर हैं,वहां मुसाफिरों को किस पर एतबार आये? मैं आप की बात से सहमत हूँ , मगर बाजार में 500 का नकली नोट आता है, क्यों कि 500 का असली नोट है, 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्यों कि 600 का असली नोट ही नहीं बना | इस लिए अगर समाज में नकली धर्म गुरुओं की भरमार हैं, हमें उन की पहचान धार्मिक ग्रंथों के आधार पे करनी चाहिए | भगवा वस्त्र कोई संत की पहचान नहीं है, इस वस्त्र में तो रावण भी आया था और माता सीता को उठाकर ले गया था | आप किसी का भगवा वस्त्र देखकर उस को गुरु मत धारण कर लेना, वो खुद तो नर्क में जायेगा आप को भी ले डूबेगा | पूर्ण संत की पहचान उस का ज्ञान है, सभी धार्मिक ग्रन्थ इस बात का प्रमाण देते हैं कि जब भी संसार पे अधर्म बढ जाता है, जब उलटी बाढ़ ही खेत को खाने लग जाती है | जब धर्म गुरू ही समाज को लूटने लग जाते हैं | तब वो शक्ति शारीर रूप में इस धरा पे आती है और समाज का मार्ग दर्शन करती है | जो संत हमें उसी समय हमारे शारीर में परमात्मा का दर्शन करवा दे, वही पूर्ण सतगुरु है | इस लिए हमें ऐसे पूर्ण संत की खोज करनी चाहिए, फिर ही हमारे जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो सकता है | अगर आप को कहीं भी ऐसे पूर्ण संत नहीं मिलते, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप का हार्दिक स्वागत करता है | संस्थान का लक्ष्य पूरे विश्व में ब्रह्मज्ञान के द्वारा शांति को लाना है | संस्थान के पूरे विश्व में आश्रम हैं, आप वहां पे संपर्क कर सकते हो | For more detail www.djjs.org

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्कयता नहीं होती!

बहुत सारे व्यक्तों  के मन में यह सवाल अक्सर होता है कि संत - महापुरष अपने प्रवचनों में अक्सर हर बात सिद्ध करने के लिए शास्त्र - ग्रंथों का सहारा लेते हैं | पर इस बात का ही क्या प्रमाण है कि ग्रंथों में जो लिखा है, वह पूरी पूर्णत: सत्य है?

उत्तर :  महापुरषों ने कब कहा कि आप ग्रंथों की वाणियों को आँख मूँदकर मान लीजिए | इन ग्रंथों को ऐसे पढ़ें, जैसे chemistry (रसायन शास्त्र ) पढ़ते हैं | रसायन शास्त्र का विधार्थी सर्वप्रथम एक समीकरण को अपनी पुस्तक में पढता है | फिर प्रयोगशाला में जाकर प्रयोगात्मक  (practical) ढंग से उसका परीक्षण (experiment) करता है | जैसे उसने पढ़ा - 2H2 + O2 = 2H2O.

अब वह इस समीकरण के आधार पर प्रयोगशाला (laboratory) में हाड्रोजन और आक्सीजन, दोनों गैसों को सही मात्र  में मिलाएगा | फिर उसमें से विधुत गुजारेगा | यदि पानी बनकर सामने आ गया, तो समीकरण की सत्यता स्वत: ही प्रमाणित हो जाएगी |
धार्मिक ग्रंथों के सन्दर्भ में भी हमें यही पद्धित अपनानी है | सबसे पहले उनमें लिखित अध्यात्मिक तथ्यों को ध्यान से पढ़ें | फिर उन पर प्रयोगात्मक परीक्षण करें | यदि ग्रंथों में लिखा है कि गुरु कृपा से अंतहिर्दय  में परमात्मा का दर्शन होता है, तो बढ़ें आगे और पूर्ण गुरु की खोज करें | उनसे ज्ञान दीक्षा ग्रहण कर स्वयं अपने भीतर प्रभु का दर्शन करें |
नि: सन्देह, ये ग्रन्थ  कपोल कल्पनाओं का आधार पर नहीं लिखे गए | ये ब्रह्मज्ञानी ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं | ऋषि का अर्थ ही होता है - 'द्रष्टा' अर्थात देखने वाला | ग्रंथों को लेखनीबद्ध करने से पहले उन्होंने सभी तथ्यों को अपने जीवन में प्रयोगात्मक रूप से अनुभव किया था | इसलिए इनमें दर्ज एक - एक तथ्य प्रयोगात्मक कसौटी पर कसा जा सकता है | आप इन सभी को अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं और प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की आवश्कयता ही नहीं होती !
आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक केवल पूर्ण सतगुरु की, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का दर्शन उसी समय करवा दे. आप खोज करो, अगर कहीं भी आप को ऐसे पूर्ण संत नहीं मिले, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप का हार्दिक स्वागत करता है | संस्थान के पूरे विश्व में आश्रम हैं, आप वहाँ पे संपर्क कर सकते हो | For more detail visit at www.djjs.org

सेवा - कर्त्तव्य है, मजदूरी नहीं

" जिस मिशन का ध्येय - विश्व शांति हो, वो अकेले गुरु महाराज जी का निजी दायित्व कैसे हो सकता है?....जिस अभियान ने सम्पूर्ण मानवता के दर्द को मिटाने का बीड़ा उठाया हो - क्या उसे एकमेव महाराज जी का मिशन कहना सही होगा?" - ग्रंथों में गुरु के  मिशन में हाथ बटाने अर्थात सेवा की आपर महिमा गाई है | किसी ने कहा, गुरु - सेवा एक कल्पवृक्ष है | किसी ने उसे बैकुंठ धाम का द्वार बताया | रामचरितमानस ने तो इसे भक्ति स्वरूप ही कह डाला, जो महाकल्याणकारी है | किसी ने तो इसे मुक्ति की युक्ति कहा |
जब एक पिता कोई कार्य या व्यापर करता है, तो क्या उसे अपने बेटों को मदद के लिए आह्वान करने की जरूरत पड़ती है? यदि सुपूत है, तो स्वयं ही बाप के कंधे से कंधा मिलाकर साथ आ खड़ा होता है | जितनी भी अपनी समझ है, सामर्थ्य है - बिन कहे ही उनके व्यापार में झोंक देता है | उसकी नजर अपने निजी स्वार्थ पर नहीं होती | पिता के लक्ष्य की सफलता ही उसका स्वार्थ होता है | उसकी समृद्धि ही उसका एकमेव वेतन या पारिशमिक ! गौर करो साधक! गुरु को तो हम अपनी माता, पिता,बल्कि सर्वस्व मानते हैं - गुरु ही मात - पिता अरु बीर | फिर उनके द्वारा संचालित मिशन में, जिसमें उनका भी तिल भर स्वार्थ नहीं, साथ खड़े होने के लिए हमें क्यों आह्वान या प्रेरणाओं की जरूरत पड़ती है? क्या हम सांसारिक सुपूतों से भी गए गुजरे हैं? या फिर हमने उन्हें अभी अपने सांसारिक पिता से ऊँचा दर्जा ही नहीं दिया? अरे भाई, इस विश्व कल्याणकारी मिशन में उनके साथ खड़े होना महज एक सद्कर्म नहीं है | हमारा कर्त्ताब्य है | हमारी ड्यूटी है | ऐसा करके हम कोई अहसास नहीं करेंगे - न उन पर, न खुद पर! यह तो हमारा धर्म है | एक बेटे का धर्म | उनका मिशन, हमारा मिशन है! हम सबके जीवन का मिशन है!
इसलिए क्यों चाहिए हमें पुण्यों की सौगातें| क्यों चाहिए कोई आश्वासन या मुक्ति का सिहासन! गुरु महाराज जी का मिशन - बाण अपने अंतिम लक्ष्य को भेदे और हम उसमें अपने को यथासामर्थ्य आर्पित कर सकें - क्या यही हमारे लिए काफी नहीं? क्या यही हमारा परम सौभाग्य नहीं? महाराज जी के मुख पर संतुष्टि या प्रसन्नता  की प्यारी मुस्कान विखर जाए - क्या यही हमारा वेतन नहीं? क्या इसी में मेरी, तुम्हारी, सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति नहीं? नहीं तो, क्यों हम ऊँची आवाज में जयकारा लगते हैं - श्री सदगुरु महाराज की जय हो? 'जय' माने 'विजय' हो ! क्योंकि हम जानते हैं की उनकी जय में, उनके मिशन की विजय में ही, हमारी विजय है! मानव समाज की विजय है! मानवता की विजय है! 
इसलिए साधक बंधू, मिशन की उपलब्धि में ही अपनी उपलब्धि है | सेवा ऐसे करो, जैसे यह तुम्हारा निजी कार्य हो | तुम इस मिशन के मेहमान नहीं, मेजबान हो! विश्व शांति के इस महायज्ञ के दर्शक नहीं, यजमान हो! यजमान ही क्यों, यथेष्ट आहुति भी हो | ज्वाला को जाज्वल्यमान रखने की समिधा भी तुम हो! इस लिए हमें अपने व्यस्त जीवन में से गुरु के मिशन की सेवा के लिए भी समय निकलना चाहिए, तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है | अगर हम नहीं भी सेवा करेंगे, गुरु का मिशन तब भी पूर्ण होगा, पर हम इस सेवा से वंचित रह जाएंगे | इस लिए अब मौका है, हमें इस का पूर्ण लाभ उठाना चाहिए |

सफलता बाहर नहीं , भीतर है!

सफल जीवन की परिभाषा क्या है? संसारियों के दृष्टिकोण से उन्हीं व्यक्तियों का जीवन सफल है, जिनके पास आपर धन - संपदा है, जो उच्च पद पर आसीन हैं, हजारों - लाखों लोग जिनके मान - सम्मान में सिर झुकाते
हैं |

परन्तु महापुरषों ने धन-पद- प्रतिष्ठा को सफलता का मापदंड कभी नहीं माना | उनके अनुसार सफलता क्षणभंगुरता में नहीं, शाश्वत में है | माया में नहीं, ब्रह्म में है | छाया में नहीं, यथार्थ में है | और चूँकि संसार के ये सभी पदार्थ शंभुन्गर है, संसार स्वयं माया है, यथार्थ की छाया है, इसलिए इन्हें प्राप्त कर लेने में जीवन की सफलता हो नहीं सकती |

महात्मा बुद्ध के विषय में आता है - एक बार वे बनारस में एक बृक्ष के नीचे ध्यान - साधना में बैठे थे | तभी वहां से वाराणसी का राजा अपने घोड़े पर गुजरा | एकाएक उसकी दृष्टि महात्मा बुद्ध के चेहरे पर पड़ी | उनके मुखमंडल पर दिव्य ओज था, एक अलौकिक आकर्षण! वे अत्यंत आनंद की अवस्था में दिख रहे थे | राजा घोड़े से उतरा और महात्मा बुद्ध के पास गया | उन्हें प्रणाम करके बोला - भगवन, आपको देखकर मेरे मन में एक द्वंद्ध खड़ा हुआ है | कृपा उस का समाधान करें | ...मैं वाराणसी का राजा हूँ | मेरे पास आपर धन - संम्पदा है, वैभव है | यह जो मैंने मुकुट पहना हुआ है, इसमें हजारों अमूल्य रत्न लगे हैं | मेरे ये वस्त्र और जूते भी वेशकीमती रत्नों से जड़े हैं | इतना ही कीमती मेरा यह घोडा है | कई राज्यों - देशों पर मैं विजय प्राप्त कर चुका हूँ | विशाल साम्राज्य का स्वामी हूँ | पर इतना मात्र होते हुए भी मैं दुखी हूँ | लगता है कि संसार में सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया | असफल ही रहा | आपके पास कुछ नहीं है | फिर भी आप प्रफुल्लित हैं, प्रसन्न हैं | आप के रोम - रोम से आनन्द का झरना फूट रहा है! ऐसा क्यों?

बुद्ध मुस्कराए! फिर बोले - 'राजन! सफलता बाहर नहीं, भीतर है | सांसारिक वस्तुओं का परिग्रह कर लेने में नहीं, परमात्मा की प्राप्ति में है | एक समय मैं भी तुम्हारी तरह दरिद्र - समृद्ध था | हो सकता है, उस समय मेरे पास बाहरी तो सब कुछ था, पर आंतरिक कुछ नहीं | महल तो सुख साधनों से अटे पड़े थे | पर आंतरिक घर सूना था | इसलिए मैं समृद्ध होते हुए भी दरिद्र था | जब मैंने अंतर्जगत में परवेश किया, तो पाया यह प्रदेश प्रभु का साम्राज्य है | साक्षात् ब्रह्म इस राज्य का स्वामी है | जब तक आपने अंतर्दृष्टि के द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं किया, उससे एकाकार नहीं हुए, तब तक बाकी सब होते हुए भी आप दरिद्र हो | और उस एक को मिलने पर बाकी कुछ न होते हुए भी समृद्द हो | यह समृद्धि ही जीवन में शांति व आनंद देती है | जीवन को पूर्णता व सफलता प्रदान करती है | आगे ये कथा बताती है की उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया |

सारत: सफलता माया को प्राप्त करने में नहीं, ब्रह्म की प्राप्ति में है | इसलिए एक पूर्ण गुरु की शरणागत होकर अपने घट में इश्वर का साक्षात्कार दर्शन करो | तदोपरांत साधना की गहराईयों में उतारकर उससे एकमिक हो | साथ ही, इस महान ब्रह्मज्ञान का जन - जन तक प्रचार परसार करो! तभी आपका जीवन सफलता की परिभाषा बन सकता है |