Sunday, September 11, 2011

पूर्ण गुरु के बिना जीवन का कल्याण संभव नहीं है |

गुर बिनु घोरु अंधारु गुरू बिनु समझ न आवै ॥ 
गुर बिनु सुरति न सिधि गुरू बिनु मुकति न पावै ॥ (Gurbani - 1399)

श्री गुरु राम दास जी कहते हैं कि गुरु के बिना घोर अंधेरा है | गुरु के बिना हमें सत्य की समझ नहीं आ सकती है और न ही चित्त को स्थिर कर किसी प्राप्ति को ही सिद्ध कर सकते हैं | न ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है | आज मनुष्य का जीवन अंधकार से ग्रस्त है और गुरु की प्राप्ति के बिना क्या स्थिति होती है |

जिना सतिगुरु पुरखु न भेटिओ से भागहीण वसि काल ॥ 
ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि विचि विसटा करि विकराल ॥(Gurbani - 40)
जिस व्यक्ति ने सतगुरु पुरष की प्राप्ति नहीं की | वह भाग्यहीन समय के बंधन में फंस जाता है | उन्हें जन्म - मरण के भयानक कष्ट को भोगना पड़ता है | आवागमन की विष्टा रुपी गंदगी को झेलना पड़ता है | श्री गुरु अमरदास जी कहते हैं -

जे लख इसतरीआ भोग करहि नव खंड राजु कमाहि ॥ 
बिनु सतगुर सुखु न पावई फिरि फिरि जोनी पाहि ॥३॥(Gurbani - 26)
कितने भी संसार के भोगों को भोग लो या राज्य को कितना भी विस्तृत कर लो | सारी पृथ्वी का राज्य भी भोग लो | लेकिन सतगुरु की शरण के बिना न तो आवागमन से छुटकारा हो सकता है और न ही सुख शांति की प्राप्ति ही कर सकते हैं |

सासत बेद सिम्रिति सभि सोधे सभ एका बात पुकारी ॥ 
बिनु गुर मुकति न कोऊ पावै मनि वेखहु करि बीचारी ॥२॥(Gurbani - 495)
श्री गुरु अर्जुन देव जी अपनी वाणी के द्वारा स्पष्ट करते हैं कि सभी स्मृति, शास्त्र वेद कहते हैं कि बिना गुरु के मुक्ति असंभव है | कितना भी सोच विचार कर देख लो, मुक्ति की प्राप्ति के लिए गुरु की शरण में जाना ही पड़ेगा |

गुरु बिन माला फेरता, गुरु बिन करता दान |
कहे कबीर निहफल गया गावहि वेद पुरान ||
संत कबीर जी कहते हैं कि गुरु की प्राप्ति किए बिना चाहे माला फेरे या दान पुण्य इत्यादि कितने भी कर्म कर लें | सब व्यर्थ चले जाते हैं | ऐसा सभी शास्त्रों का कथन है, यदि जीवन का वास्तविक कल्याण चाहिए तो जरूरत है पूर्ण गुरु की शरण में जाने की |

गुरु बिन भाव निधि तरइ  न कोई | जो बिरिंच संकर सम होई ||
संत गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि कोई ब्रह्मा के सामान सृष्टि का सृजन करने की समर्थ प्राप्त कर ले, या शिव के सामान सृष्टि संहार करने की शक्ति प्राप्त कर ले | परन्तु गुरु के बिना भवसागर से पार नहीं हो सकता | यहाँ तक कि गुरु की शरण में गए बिना बहुत शक्ति समर्थ प्राप्त कर लेने पछ्चात भी विषय विकारों का त्याग करना मुश्किल है |

भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ 
पूछहु ब्रहमे नारदै बेद बिआसै कोइ ॥१॥ रहाउ ॥(Gurbani - 59)
श्री गुरु नानक देव जी कहते हैं कि ब्रह्मा, नारद, वेद व्यास किसी से भी पूछ लो गुरु के बिना कल्याण नहीं, ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता | इस लिए हमें भी चाहिए हम भी ऐसे पूर्ण गुरु की खोज करें, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के हमें दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है | तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है |

अपने शारीर को मांसाहारी भोजन द्वारा गंदा मत करो |

घर में जो मानुष मरे, बाहर देत जलाए,
आते हैं फिर घर में, औघट घाट नहाय, 
औघट घाट नहाय, बाहर से मुर्दा लावें,
नून मिर्च घी डाल, उसे घर माहिं पकावें,
कहे कबीरदास उसे फिर भोग लगावें,
घर - घर करें बखान, पेट को कबर बनावें |

संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जो परिजन मर जाता है, उसे तो लोग तुरन्त शमशान ले जाकर फूँक आते हैं | फिर वापिस आकर खूब अच्छी तरह से मल - मल कर नहाते हैं | मगर विडम्बना देखो, नहाने के थोड़ी देर बाद, बाहर से (किसे मरे जानवर का ) मुर्दा उठाकर घर में ले आते हैं | खूब नमक, मिर्च और घी डालकर उसे पकाते हैं | तड़का लगाते हैं और फिर उसका भोग लगाते हैं | बात इतने पर भी ख़त्म नहीं होती | आस - पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच उस मुर्दे के स्वाद का गा - गाकर बखान भी करते हैं | मगर ये मूर्ख नहीं जानते ,जाने - अनजाने ये अपने पेट को ही कब्र बना बैठे हैं!

कुछ लोगों का ये विचार है कि मंगलवार और शनिवार को तो मैं भी नहीं खाता | पर क्या यही दो दिन धार्मिक बातें माननी चाहिए? क्या बाकी दिन ईश्वर के नहीं है? जब पता है कि चीज गलत है, अपवित्र है, भगवान को पसंद नहीं, तो फिर उसे किसी भी दिन क्यों खाया जाए? वैसे भी, क्या हम मंदिर में कभी मांस वगैरह लेकर जाते हैं? नहीं न! फिर क्या यह शारीर परमात्मा का जीता - जागता मंदिर नहीं है? हमारे अंदर भी तो वही शक्ति है, जिसे हम बाहर पूजते हैं | फिर इस जीवंत मंदिर में मांस क्यों? कबीर जी ने सही कहा, हमने तो इस मंदिर रुपी शारीर को कब्र बना दिया है | बर्नार्ड शा ने भी यही कहा - 'हम मांस खाने वाले वो चलती फिरती कब्रें हैं, जिनमें मारे गए पशुओं की लाशें दफ़न की गई हैं|'

जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥ 
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥(Gurbani - 1103)

यदि तुम लोग किसी जीव की हत्या करके, उसे धर्म कहते हो तो फिर अधर्म किसे कहोगे? ये ऐसे कुकर्म करके तुम स्वयं को सज्जन समझते हो, तो यह बताओ कि फिर कसाई किसे कहोगे?
कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ 
तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥(Gurbani - 1377)

मांसाहार से मनुष्य का स्वाभाव हिंसक हो जाता है और वो राक्षस बन जाता है | उसके द्वारा किए गए सभी धर्म कार्य व्यर्थ चले जाते हैं | जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन! अगर शुद्ध सात्विक भोजन खाया जाए, तो मन में भी वैसे ही विचार और भावनाएं उठेंगी | अगर हम तामसिक भोजन जैसे चिकन - शिकन,मिर्च - मसलें खाते हैं, तो मन में तामसिक गुण पैदा हो जाते हैं | हिंसा, क्रोध जैसी भावनाएं उठती हैं | एक सर्वे किया गया, जिसमें 75 प्रतिशत कैदी मांसाहार पाए गए | कभी ध्यान से देखिओ मांसाहारी लोग अक्सर बड़े गुस्सैल होते हैं | जरा सी कोई बात हुई नहीं कि वे तमतमा उठते हैं |

देखो, जैसे हर जीव की एक विशेष खुराक है | अपना एक स्वाभाविक भोजन है और वह उसी का भक्षण करता है | उसी पर कायम रहता है | शेर भूखा होने पर भी कभी शाक - पत्तियां नहीं खाएगा | गाय चाहे कितनी भी शुधाग्रस्त क्यों न हो, पर अपना स्वाभाविक आहार नहीं बदलेगी | क्या कभी उसको मांसाहार करते हुए देखा है? बस एक इन्सान ही है, जो अपने स्वाभाविक आहार से हटकर कुछ भी भक्ष्य  - अभक्ष्य खा लेता है | स्वयं विचार कीजिए, पशुओं की तुलना में आज मनुष्य कौन से स्तर पर खड़ा है |

हरि कथा की महिमा

किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥ 
संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥ 
हरि के नाम के बिआपारी ॥ 
हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ ॥ 

संत कबीर जी कहते हैं कि किसी ने तो कांसी तांबा आदि धातुओं का व्यापार किया किसी ने लोंग सुपारी का व्यापार किया | लेकिन संतों ने प्रभु के नाम का व्यापार किया, ऐसा हमारा व्यापार है | कहते हैं कि हम तो प्रभु के नाम के व्यापारी हैं | जब से प्रभु भक्ति के नाम का हीरा हाथ में आया तो यह संसार के धन के प्रति कामनाएं स्वयं ही छूट गई | इस प्रकार संत महापुरषों ने सत्संग की सबसे ज्यादा महिमा गाई है | श्री गुरु अर्जुन देव जी कहते हैं -
   
हरि कीरति साधसंगति है सिरि करमन कै करमा ॥ 
कहु नानक तिसु भइओ परापति जिसु पुरब लिखे का लहना ॥८॥ 

गुरबाणी में कहा गया है कि जीवन का मुख्य कर्म साध संगति है | इसलिए हमें उस कर्म को अवश्य करना चाहिए | जिस के द्वारा हम सुसंगति में जाए | यह बहुत भाग्य की निशानी हमारे पिछले जन्मों के शुभ संस्कार हैं, जिनके कारण हमें सत्संग का सन्देश मिलता है, सत्संग की प्राप्ति होती है | क्योंकि जगत में सत्संग की प्राप्ति को बहुत दुर्लभ बताया गया है | तुलसीदास जी कहते हैं -
सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी घर भी होय |
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ||

कहा है कि पुत्र, सुंदर पत्नी और धन सम्पति यह तो पापी मनुष्य के पास भी हो सकती है | परन्तु संत का समागम अर्थात संत का संग और प्रभु की कथा, हरि चर्चा यह दोनों ही इस भौतिक जगत में दुर्लभ है | जैसाकि सुन्दरदास जी ने कहा है -

तात मिले पुनि मात मिले, सूत भ्रात मिले युवती सुखदाई |
राज मिले गजबज मिले, सबसाज मिले मन बांछत फल पाई ||
लोक मिले सुर लोक मिले, बिधि लोक मिले बैकुण्ठहु  जाई |
सुंदर कहत ओर मिले सबही सुख, संत समागम दुर्लभ पाई |

कहा है कि सुख देने के लिए भाई-बहन, माता-पिता एवं सुंदर पत्नी भी मिल गए | राज्य, हाथी, घोड़े इत्यादि भी मिल गए | मन इच्छित सभी वस्तुओं की प्राप्ति भी हो गई | यह लोक भी मिल गया | देवलोक के आनन्द को भी प्राप्त कर लिया | ब्रह्मलोक यहाँ तक कि बैकुण्ड भी मिल गया तब भी सुन्दरदास जी कहते है कि कितने भी सुख ऐश्वर्य आनंद क्यों न मिल जाए | परन्तु संत की संगत बहुत ही दुर्लभ है | संत की संगत ही हमें जीवन की वास्तविक दिशा दिखाती है | सत्संग के द्वारा ही हम यह जान पाते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है | बहुत से व्यक्ति अज्ञानता में गलत कार्य करते हैं परन्तु जब सत्संग के द्वारा उन्हें वास्तविकता का ज्ञान होता है | तब वह स्वयं ही सत्य के साथ जुड़ने का प्रयास प्रारम्भ कर देते हैं | उनसे गलत कार्य छूटने लग जाते हैं | संत का संग मनुष्य के जीवन में महान और आश्चर्यजनक परिवर्तन ला देता है | हमारे इतिहास में इसके बहुत से उदाहरण आते हैं | जैसे अंगुलिमाल डाकू, सज्जन ठग, कोड़ा राक्षस, गणिका वेश्या, अजामिल इत्यादि | इस लिए हमें भी चाहिए कि हम ऐसे पूर्ण संत की शरण को प्राप्त करें, उस के बाद आप भी जीवन में परम सुख और शांति अनुभव करेंगे | आज समाज को क्रांति ओर मानव को शांति की जरूरत है, वो केवल ब्रह्मज्ञान से ही आ सकती है | केवल अध्यात्म ही धू - धू  कर जलते विश्व को बचा सकता है |जिस के बारे में संत कबीर जी कहते हैं -

आग लगी आकाश में, झर झर गिरे अंगार !
संत न होते जगत में ,तो जल मरता संसार !!

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |

यह परमात्मा द्वारा निर्मित एक अटल नियम है | जिसे हम और आप चाह कर भी नहीं उलट सकते | ठीक वैसे ही जैसे किसी को अपनी नेत्रहीनता का उपचार कराना है, तो नेत्र चिकित्सक की ही पनाह लेनी होगी | यह नितांत अटूट नियम है | इतना अटूट कि अगर कल किसी नेत्र चिकित्सक को अपनी नेत्रहीनता के उपचार की जरूरत पड़े, तो वह भी यह उपचार स्वयं करने में असमर्थ है | उसे भी किसी अन्य नेत्र चिकित्सक की टेक लेनी ही पड़ेगी | यही कारण था सज्जनों, कि परम सदगुरु प्रभु श्री राम ने भी इस नियम को रजामंदी दी | गुरु वशिष्ठ के आश्रित हुए | द्वापर युगीन जगदगुरु श्री कृषण ने भी इन्ही पदचिन्हों का अनुसरण किया | वो स्वयं ऋषि दुर्वासा की शरणागत हुए -

रामकृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन |
तीन लोक के नायका गुरु आगे आधीन ||
इस संदर्भ में कुछ लोग अक्सर एक प्रशन उठा देते हैं | वह यह कि फिर मीरा, नामदेव, धन्ना आदि भक्तों ने बिना गुरु के प्रभु को कैसे पा लिया था? मीरा श्री कृषण से बातें किया करती थी | नामदेव को 72 वार विट्ठल का  दर्शन किया था | धन्ना ने तो पत्थर तक में से भगवान को प्रकट कर लिया था | इनके पास तो कोई गुरु नहीं था | पर जो लोग ऐसा कहते हैं उनका ज्ञान अधूरा है | नि: सन्देह इन भक्तों के प्रेम व भावना के वशीभूत होकर भगवान इनके समक्ष प्रकट हो जाया करते थे | वे प्रभु के तत्त्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पे थे | पर इससे इनका पूर्ण कल्याण नहीं हो पाया था | इसलिए बाद में इन सब ने भी पूर्ण गुरू की शरण ग्रहण की थी | इतिहास बताता है कि मीरा ने गुरु रविदास जी से, नामदेव ने विशोबा खेचर से व धन्ना ने स्वामी रामानंद जी से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था |
बस समझ लो! सृष्टि के आदिकाल से वर्तमान तक जिसने भी ईश्वर को पाया, गुरु के सान्निध्य  में ही पाया | नरेंद्र - रामकृष्ण, दयानंद - विरजानंद, जनक - अष्टावक्र, एकनाथ - जनादर्न, प्लोटो - सुकरात आदि जोड़े, इस बात को सिद्ध करते हैं | अब जब इन सभी ने इस हिदायत को कान दिए थे, बंधुओं, हम कैसे अनसुना कर सकते हैं? कैसे इस अटल नियम से हटकर अपना अलग राग आलाप सकते हैं?
हो सकता है, इन दलीलों को सुनकर अब आपका दिल कुछ मोम हुआ हो | गुरु शरणागति का नेक इरादा आपके मन - अम्बर पर कौंधा हो | मगर 99 प्रतिशत सम्भावना है कि इस इरादे को झट ग्रहण लग जायेगा | आपका यह नवजात हौंसला पस्त हो जाएगा | आप कहेंगे, दलीलें नि:सन्देह पुख्ता हैं | मगर इनकी तामील में बड़ी भरी समस्या है | हम जैसे ही इनसे गदगद होकर कदम आगे बढ़ाते हैं, हमारे मन के परदे पर अख़बारों की कुछ सुर्खियाँ उमड़ आती हैं | चलचित्रों के कुछ दृश्य घूम जातें हैं | इनमें उन सब स्कैंडलों या काण्डों की झलकियाँ हैं, जिनके नायक चोर, डाकू, ठग या लुटेरे नहीं, बल्कि समाज के नामी-गिरामी धर्मगुरु हैं | ये अनैतिकता और चरित्रहीनता के ज्वलंत उदाहरण बने दीखते हैं |

बिना दर्द भी आह भरने वाले बहुत मिलेंगे,
धर्म ने नाम पर गुनाह करने वाले बहुत मिलेंगे,
किसे फुर्सत है भटके हुए को राह दिखाने की,
विश्वास देकर गुमराह करने वाले बहुत मिलेंगे |
अब बताए, यहाँ कदम - कदम पर ऐसे रहबर हैं,वहां मुसाफिरों को किस पर एतबार आये? मैं आप की बात से सहमत हूँ , मगर बाजार में 500 का नकली नोट आता है, क्यों कि 500 का असली नोट है, 600 का नकली नोट क्यों नहीं आता, क्यों कि 600 का असली नोट ही नहीं बना | इस लिए अगर समाज में नकली धर्म गुरुओं की भरमार हैं, हमें उन की पहचान धार्मिक ग्रंथों के आधार पे करनी चाहिए | भगवा वस्त्र कोई संत की पहचान नहीं है, इस वस्त्र में तो रावण भी आया था और माता सीता को उठाकर ले गया था | आप किसी का भगवा वस्त्र देखकर उस को गुरु मत धारण कर लेना, वो खुद तो नर्क में जायेगा आप को भी ले डूबेगा | पूर्ण संत की पहचान उस का ज्ञान है, सभी धार्मिक ग्रन्थ इस बात का प्रमाण देते हैं कि जब भी संसार पे अधर्म बढ जाता है, जब उलटी बाढ़ ही खेत को खाने लग जाती है | जब धर्म गुरू ही समाज को लूटने लग जाते हैं | तब वो शक्ति शारीर रूप में इस धरा पे आती है और समाज का मार्ग दर्शन करती है | जो संत हमें उसी समय हमारे शारीर में परमात्मा का दर्शन करवा दे, वही पूर्ण सतगुरु है | इस लिए हमें ऐसे पूर्ण संत की खोज करनी चाहिए, फिर ही हमारे जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो सकता है | अगर आप को कहीं भी ऐसे पूर्ण संत नहीं मिलते, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप का हार्दिक स्वागत करता है | संस्थान का लक्ष्य पूरे विश्व में ब्रह्मज्ञान के द्वारा शांति को लाना है | संस्थान के पूरे विश्व में आश्रम हैं, आप वहां पे संपर्क कर सकते हो | For more detail www.djjs.org

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्कयता नहीं होती!

बहुत सारे व्यक्तों  के मन में यह सवाल अक्सर होता है कि संत - महापुरष अपने प्रवचनों में अक्सर हर बात सिद्ध करने के लिए शास्त्र - ग्रंथों का सहारा लेते हैं | पर इस बात का ही क्या प्रमाण है कि ग्रंथों में जो लिखा है, वह पूरी पूर्णत: सत्य है?

उत्तर :  महापुरषों ने कब कहा कि आप ग्रंथों की वाणियों को आँख मूँदकर मान लीजिए | इन ग्रंथों को ऐसे पढ़ें, जैसे chemistry (रसायन शास्त्र ) पढ़ते हैं | रसायन शास्त्र का विधार्थी सर्वप्रथम एक समीकरण को अपनी पुस्तक में पढता है | फिर प्रयोगशाला में जाकर प्रयोगात्मक  (practical) ढंग से उसका परीक्षण (experiment) करता है | जैसे उसने पढ़ा - 2H2 + O2 = 2H2O.

अब वह इस समीकरण के आधार पर प्रयोगशाला (laboratory) में हाड्रोजन और आक्सीजन, दोनों गैसों को सही मात्र  में मिलाएगा | फिर उसमें से विधुत गुजारेगा | यदि पानी बनकर सामने आ गया, तो समीकरण की सत्यता स्वत: ही प्रमाणित हो जाएगी |
धार्मिक ग्रंथों के सन्दर्भ में भी हमें यही पद्धित अपनानी है | सबसे पहले उनमें लिखित अध्यात्मिक तथ्यों को ध्यान से पढ़ें | फिर उन पर प्रयोगात्मक परीक्षण करें | यदि ग्रंथों में लिखा है कि गुरु कृपा से अंतहिर्दय  में परमात्मा का दर्शन होता है, तो बढ़ें आगे और पूर्ण गुरु की खोज करें | उनसे ज्ञान दीक्षा ग्रहण कर स्वयं अपने भीतर प्रभु का दर्शन करें |
नि: सन्देह, ये ग्रन्थ  कपोल कल्पनाओं का आधार पर नहीं लिखे गए | ये ब्रह्मज्ञानी ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं | ऋषि का अर्थ ही होता है - 'द्रष्टा' अर्थात देखने वाला | ग्रंथों को लेखनीबद्ध करने से पहले उन्होंने सभी तथ्यों को अपने जीवन में प्रयोगात्मक रूप से अनुभव किया था | इसलिए इनमें दर्ज एक - एक तथ्य प्रयोगात्मक कसौटी पर कसा जा सकता है | आप इन सभी को अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं और प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की आवश्कयता ही नहीं होती !
आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक केवल पूर्ण सतगुरु की, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का दर्शन उसी समय करवा दे. आप खोज करो, अगर कहीं भी आप को ऐसे पूर्ण संत नहीं मिले, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप का हार्दिक स्वागत करता है | संस्थान के पूरे विश्व में आश्रम हैं, आप वहाँ पे संपर्क कर सकते हो | For more detail visit at www.djjs.org

सेवा - कर्त्तव्य है, मजदूरी नहीं

" जिस मिशन का ध्येय - विश्व शांति हो, वो अकेले गुरु महाराज जी का निजी दायित्व कैसे हो सकता है?....जिस अभियान ने सम्पूर्ण मानवता के दर्द को मिटाने का बीड़ा उठाया हो - क्या उसे एकमेव महाराज जी का मिशन कहना सही होगा?" - ग्रंथों में गुरु के  मिशन में हाथ बटाने अर्थात सेवा की आपर महिमा गाई है | किसी ने कहा, गुरु - सेवा एक कल्पवृक्ष है | किसी ने उसे बैकुंठ धाम का द्वार बताया | रामचरितमानस ने तो इसे भक्ति स्वरूप ही कह डाला, जो महाकल्याणकारी है | किसी ने तो इसे मुक्ति की युक्ति कहा |
जब एक पिता कोई कार्य या व्यापर करता है, तो क्या उसे अपने बेटों को मदद के लिए आह्वान करने की जरूरत पड़ती है? यदि सुपूत है, तो स्वयं ही बाप के कंधे से कंधा मिलाकर साथ आ खड़ा होता है | जितनी भी अपनी समझ है, सामर्थ्य है - बिन कहे ही उनके व्यापार में झोंक देता है | उसकी नजर अपने निजी स्वार्थ पर नहीं होती | पिता के लक्ष्य की सफलता ही उसका स्वार्थ होता है | उसकी समृद्धि ही उसका एकमेव वेतन या पारिशमिक ! गौर करो साधक! गुरु को तो हम अपनी माता, पिता,बल्कि सर्वस्व मानते हैं - गुरु ही मात - पिता अरु बीर | फिर उनके द्वारा संचालित मिशन में, जिसमें उनका भी तिल भर स्वार्थ नहीं, साथ खड़े होने के लिए हमें क्यों आह्वान या प्रेरणाओं की जरूरत पड़ती है? क्या हम सांसारिक सुपूतों से भी गए गुजरे हैं? या फिर हमने उन्हें अभी अपने सांसारिक पिता से ऊँचा दर्जा ही नहीं दिया? अरे भाई, इस विश्व कल्याणकारी मिशन में उनके साथ खड़े होना महज एक सद्कर्म नहीं है | हमारा कर्त्ताब्य है | हमारी ड्यूटी है | ऐसा करके हम कोई अहसास नहीं करेंगे - न उन पर, न खुद पर! यह तो हमारा धर्म है | एक बेटे का धर्म | उनका मिशन, हमारा मिशन है! हम सबके जीवन का मिशन है!
इसलिए क्यों चाहिए हमें पुण्यों की सौगातें| क्यों चाहिए कोई आश्वासन या मुक्ति का सिहासन! गुरु महाराज जी का मिशन - बाण अपने अंतिम लक्ष्य को भेदे और हम उसमें अपने को यथासामर्थ्य आर्पित कर सकें - क्या यही हमारे लिए काफी नहीं? क्या यही हमारा परम सौभाग्य नहीं? महाराज जी के मुख पर संतुष्टि या प्रसन्नता  की प्यारी मुस्कान विखर जाए - क्या यही हमारा वेतन नहीं? क्या इसी में मेरी, तुम्हारी, सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति नहीं? नहीं तो, क्यों हम ऊँची आवाज में जयकारा लगते हैं - श्री सदगुरु महाराज की जय हो? 'जय' माने 'विजय' हो ! क्योंकि हम जानते हैं की उनकी जय में, उनके मिशन की विजय में ही, हमारी विजय है! मानव समाज की विजय है! मानवता की विजय है! 
इसलिए साधक बंधू, मिशन की उपलब्धि में ही अपनी उपलब्धि है | सेवा ऐसे करो, जैसे यह तुम्हारा निजी कार्य हो | तुम इस मिशन के मेहमान नहीं, मेजबान हो! विश्व शांति के इस महायज्ञ के दर्शक नहीं, यजमान हो! यजमान ही क्यों, यथेष्ट आहुति भी हो | ज्वाला को जाज्वल्यमान रखने की समिधा भी तुम हो! इस लिए हमें अपने व्यस्त जीवन में से गुरु के मिशन की सेवा के लिए भी समय निकलना चाहिए, तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है | अगर हम नहीं भी सेवा करेंगे, गुरु का मिशन तब भी पूर्ण होगा, पर हम इस सेवा से वंचित रह जाएंगे | इस लिए अब मौका है, हमें इस का पूर्ण लाभ उठाना चाहिए |

सफलता बाहर नहीं , भीतर है!

सफल जीवन की परिभाषा क्या है? संसारियों के दृष्टिकोण से उन्हीं व्यक्तियों का जीवन सफल है, जिनके पास आपर धन - संपदा है, जो उच्च पद पर आसीन हैं, हजारों - लाखों लोग जिनके मान - सम्मान में सिर झुकाते
हैं |

परन्तु महापुरषों ने धन-पद- प्रतिष्ठा को सफलता का मापदंड कभी नहीं माना | उनके अनुसार सफलता क्षणभंगुरता में नहीं, शाश्वत में है | माया में नहीं, ब्रह्म में है | छाया में नहीं, यथार्थ में है | और चूँकि संसार के ये सभी पदार्थ शंभुन्गर है, संसार स्वयं माया है, यथार्थ की छाया है, इसलिए इन्हें प्राप्त कर लेने में जीवन की सफलता हो नहीं सकती |

महात्मा बुद्ध के विषय में आता है - एक बार वे बनारस में एक बृक्ष के नीचे ध्यान - साधना में बैठे थे | तभी वहां से वाराणसी का राजा अपने घोड़े पर गुजरा | एकाएक उसकी दृष्टि महात्मा बुद्ध के चेहरे पर पड़ी | उनके मुखमंडल पर दिव्य ओज था, एक अलौकिक आकर्षण! वे अत्यंत आनंद की अवस्था में दिख रहे थे | राजा घोड़े से उतरा और महात्मा बुद्ध के पास गया | उन्हें प्रणाम करके बोला - भगवन, आपको देखकर मेरे मन में एक द्वंद्ध खड़ा हुआ है | कृपा उस का समाधान करें | ...मैं वाराणसी का राजा हूँ | मेरे पास आपर धन - संम्पदा है, वैभव है | यह जो मैंने मुकुट पहना हुआ है, इसमें हजारों अमूल्य रत्न लगे हैं | मेरे ये वस्त्र और जूते भी वेशकीमती रत्नों से जड़े हैं | इतना ही कीमती मेरा यह घोडा है | कई राज्यों - देशों पर मैं विजय प्राप्त कर चुका हूँ | विशाल साम्राज्य का स्वामी हूँ | पर इतना मात्र होते हुए भी मैं दुखी हूँ | लगता है कि संसार में सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया | असफल ही रहा | आपके पास कुछ नहीं है | फिर भी आप प्रफुल्लित हैं, प्रसन्न हैं | आप के रोम - रोम से आनन्द का झरना फूट रहा है! ऐसा क्यों?

बुद्ध मुस्कराए! फिर बोले - 'राजन! सफलता बाहर नहीं, भीतर है | सांसारिक वस्तुओं का परिग्रह कर लेने में नहीं, परमात्मा की प्राप्ति में है | एक समय मैं भी तुम्हारी तरह दरिद्र - समृद्ध था | हो सकता है, उस समय मेरे पास बाहरी तो सब कुछ था, पर आंतरिक कुछ नहीं | महल तो सुख साधनों से अटे पड़े थे | पर आंतरिक घर सूना था | इसलिए मैं समृद्ध होते हुए भी दरिद्र था | जब मैंने अंतर्जगत में परवेश किया, तो पाया यह प्रदेश प्रभु का साम्राज्य है | साक्षात् ब्रह्म इस राज्य का स्वामी है | जब तक आपने अंतर्दृष्टि के द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं किया, उससे एकाकार नहीं हुए, तब तक बाकी सब होते हुए भी आप दरिद्र हो | और उस एक को मिलने पर बाकी कुछ न होते हुए भी समृद्द हो | यह समृद्धि ही जीवन में शांति व आनंद देती है | जीवन को पूर्णता व सफलता प्रदान करती है | आगे ये कथा बताती है की उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया |

सारत: सफलता माया को प्राप्त करने में नहीं, ब्रह्म की प्राप्ति में है | इसलिए एक पूर्ण गुरु की शरणागत होकर अपने घट में इश्वर का साक्षात्कार दर्शन करो | तदोपरांत साधना की गहराईयों में उतारकर उससे एकमिक हो | साथ ही, इस महान ब्रह्मज्ञान का जन - जन तक प्रचार परसार करो! तभी आपका जीवन सफलता की परिभाषा बन सकता है |

संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार || संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ||

श्री गुरु अर्जुन देव जी सुखमनी साहिब में कहते हैं कि जो जन संत कि शरणागत होते हैं, उनका कल्याण होता है | पर यहाँ ध्यातव्य है कि संत किसे कहा गया | संत अर्थात वे महापुरष,जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया है और अपनी शरण में आने वाले जिज्ञासुओं को भी करवाने कि सामर्थ्य रखते हैं | जो भी ज्ञान दीक्षा कि पिपासा लिए उनके सानिंध्य में आते हैं, वे तत्षण ही उन्हें उनके अंतर्जगत में परमात्मा के तत्वरूप का दर्शन करा देते हैं | परमात्म - दर्शन के उपरान्त साधक साधना सुमिरन द्वारा अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होता है व एक दिन अपने लक्ष्य ईश्वर को पूर्णत पा लेता है | अंश अंशी में मिल जाता है | फिर वह आवागमन के चक्र में नहीं फंसता | यही जीव का सर्वोत्तम कल्याण
है |
आगे कि दो पंकितयां  कुछ रहस्यात्मक हैं | उनमें कहा गया -संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार अर्थात जो पूर्ण संतों कि शरण में नहीं आते, अपितु उसकी निंदा करते हैं, उन्हें बार - बार जन्म लेना पड़ता है| वे पुन: मृत्युलोक  में आने को विवश होते हैं | अपने दुष्कर्मों का फल भोगते हैं | पर मुख्य प्रशन है कि उनके लिए अवतार शब्द क्यों प्रयोग किया गया | जबकि प्रचलित भाषानुसार तो अवतार शब्द श्री राम, श्री कृषण, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी आदि के लिए प्रयोग में लाया जाता है | दरअसल इस शलोक में अवतार शब्द व्यगात्मक रूप में प्रयुक्त किया गया है | जैसे कि यदि आप बनारस कि तरफ जाएँ, तो वहां गुरु शब्द किस के लिए प्रयोग किया जाता है? यदि देखें तो गुरु शब्द हमारी संस्कृति के अनुसार अत्यंत  महान शब्द है | उन ज्ञानी पुरषों को इससे संबोधित किया जाता है | जो  हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में ले जाने कि सामर्थ्य  रखते हैं | परन्तु बनारस में यह शब्द व्यगात्मक रूप में, असामाजिक तत्वों के लिए प्रयोग किया जाता है | ठीक इसी प्रकार इस शलोक में भी ऐसे दुष्टजनों के लिए जो संतों कि निंदा करते हैं, उनका विरोध करते हैं, उनके लिए व्यंगात्मक रूप में अवतार शब्द प्रयोग किया गया है | क्यों कि यह अटल सत्य है कि जब - जब भगवान इस धरा पर अवतरित होते हैं, तब - तब ये दुष्टजन भी जन्म लेते हैं | प्रभु के कार्य का विरोध करने के लिए, सत्य के खिलाफ आंधी चलाने के लिए | इसी बात को भगवान श्री कृषण जी ने भी अर्जुन को कहा कि ऐसा कोई समय नहीं था जब तू नहीं था, मैं नहीं था अथवा ये दुष्ट लोग नहीं थे और न ही भविष्य में ऐसा कभी होगा |
तात्पर्य यह है कि संतों के निंदक भी हमेशा ही संसार में रहते हैं | जब - जब संत आते हैं, तब - तब ये निंदक भी साथ - साथ आते हैं | हर युग में, हर वार, खूब डटकर संतों व उनके सत्य प्रचार का विरोध करते हैं | परन्तु संत महापुरषों ने कभी भी इन विरोधियों को अपना अवरोधक नहीं माना | अपितु उन्होंने तो इन्हें सत्य के बीजों को दूर - दूर तक बिखेरने वाली आंधी समझा | इसलिए अवतार जैसा सम्मानीय सम्बोधन का प्रयोग किया |
निंदक नेअरे रखिये, आँगन कुटि छवाय |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय || 

संत कबीर जी कहते हैं कि निंदक हमारे हितकारी हैं, हमारा कल्याण करते हैं | इसलिए उन्हें सदा समीप ही रखना चाहिए | जैसे संत ज्ञानवर्षा कर हमारे कर्म संस्कार धोते हैं, वैसे ही ये अज्ञानी निंदक हमारी निंदा चुगली कर हमारे पाप कर्मों का सफाया करते हैं | इस तरह एक प्रकार से ये भी संत अवतारों कि भांति हमारा उद्धार ही करते हैं |

मैं और मेरा लक्ष्य - दूसरा कोई नहीं!

आध्यात्मिक गुरु एक ही होते हैं | पर उपगुरु (शिक्षा गुरु) बहुत से हो सकते हैं | जैसे दत्तात्रेय जी ने 24 उपगुरु बनाए थे | .....एक दिन एक राह पर चलते - चलते दत्तात्रेय जी ने देखा कि सामने से पूरी सजबज और बैंड - बाजे के साथ एक बारात आ रही है | खूब धूम - धडाका हो रहा है | पर वहीं, उस सड़क के किनारे झाड़ियाँ की ओर तीर साधे एक शिकारी खड़ा है | उसकी दृष्टि अपलक, एकटक अपने शिकार पर गडी हुई है | न तो बारात की चकाचोंध ने उसका ध्यान बांटा और न उसके हंसी - ठट्ठे और शोर शराबे ने! शिकारी ने एक पल के लिए भी बारात की ओर मुड़कर नहीं देखा | एकचित होकर डटा रहा, अपने लक्ष्य पर! दत्तात्रेय जी ने उसे देखते ही प्रणाम किया, कहा -'आज से आप मेरे (उप) गुरु हैं | जब भी मैं ब्रह्मज्ञान  की साधना में बैठूँगा, तो आपकी प्रेरणा से अपने प्रभु, अपने लक्ष्य पर, इसी प्रकार एक - केन्द्रित होने की कोशिश करूंगा | इतना तन्मन्य की आसपास की माया या दुनिया के विचारों का मुझे भान ही न रहे!'

फैशन के ब्रैंड्स में खो गया इंसानियत का ब्रैंड!

सिनेमा के पर्दे घूरने के लिए तो फिर भी लोग तीन घंटे निकल लेते हैं | इस दौरान हीरो - हीरोइन के चरित्र, संस्कार etc,etc... को भी जन - समझ लेते हैं |But who's got 3 hours in real life? Real life moves so fast, My lord!  आज किसके पास एक-दुसरे को जानने-समझने का समय है? दूसरा पुराने दौर में, हमारी सोसाइटी महज गावों तक सिकुड़ी हुई थी | छोटी - छोटी होने की वजह से लोग एक दुसरे को काफी अच्छी तरह से जानते थे | बट आज! सोसाइटीयां  बढ गई हैं | बिज़नस सर्कल, फ्रेंड्स सर्कल फैलते जा रहे हैं | ऐसे में किसी के पास किसी के अंदर झाँकने का वकत नहीं है | They don't look within you.They look at you - आज लोग हमारे अंदर नहीं देखते, हमें देखते हैं | इस लिए उन पर हमारा सबसे पहला इम्प्रेशन कपड़ों का  ही पड़ता है | किसी ने खूब कहा है - Clothes are the powerful means of non - verbal communication - कपडे बिन बोले ही, मूक भाषा में, सामने वाले को हमारे बारे में बहुत कुछ बता देते हैं | उसके जेहन में हमारी जबरदस्त छाप छोड़ देते हैं |
यही तो सोचनीय बात है | यही तो चिंता और चिंतन का विषय है की आज के दौर में सिर्फ कपड़ों की बोली सुनी जा रही है | किसी के पास चरित्र की अप्रकट बोली सुनने का समय ही नहीं है | मैं इसी पर एक वाकया सुनाना चाहूँगा | एक वर स्वामी विवेकनद जी किसी पछिच्मी  देश की साफ - सुथरी सड़क पर खड़े थे | उन्होंने भगवा चोला  और पगड़ी पहनी हुई थी | तभी सामने से पछ्चात्य रंग ढंग से सने कुछ उस जमाने के आधुनिक युवक उनके समीप से गुजरे | स्वामी जी का सादा भारतीय लिबास उन्हें हजम नहीं हुआ | इसलिए वे लगे व्यंग्य - बाण छोड़ने! ठहाका मारकर हँसतें हुए स्वामी जी की खिल्ली उड़ाने लगे | स्वामी जी ने उन्हें  देखकर मुस्कराए | फिर उन्ही की भाषा में बड़ी निर्भीकता से बोले - Oh brothers! I didn't know that in your country, tailors make a gentleman, for, in mine, Indian, character makes the one. अर्थात बंधुओं! मुझे पता नहीं था की आप के देश में दर्जी सज्जन पुरष का निर्माण करते हैं | कारण की मेरे देश  में चरित्र ही एक सज्जन पुरष का गठन करता है | चरित्र ही उसकी पहचान है | इस तरह स्वामी जी ने भी समाज की इस विडम्बना के परिचय का सही आधार दिया - आंतरिक गुण! चरित्र !
हमारे शास्त्रों में भी एक बड़ा सुंदर दोहा है -
भेष - वेश मत देखिए, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का पड़ी रहने दो म्यान |

मतलब की बाहरी वेश -भेष देखकर मत भरमाए | इंसान के आन्तरिक ज्ञान या सदगुणों को जांचिए | भला म्यान की क्या कीमत, चाहे वह रत्नजडित ही क्यों न हो! वही धार काम आएगी | उसी तरह, सुन्दर वस्त्र या वेश भूषा को देखकर आप किसी व्यक्ति से एक बार तो प्रभावित हो सकते हैं | पर यदि गुण नहीं, तो वह व्यक्ति भला किस काम का! यह सच्चाई आप आगे चलकर खुद अनुभव करते हैं! मन लीजिए, किसी के ट्रेंडी वस्त्र आदि देखकर आपने उससे मित्रता व् विवाह कर लिया या उसे अपने आफिस में रख लिया | पर यदि उस व्यक्ति का व्यवहार  अच्छा नहीं, काबिलियत और गुण दिखावटी है, तो फिर ? फिर क्या! आप भविष्य में उससे रास्ता काटना ही पसंद करते हैं क्यों कि आप को पता है की उसका दिखाऊ रूप न आपका, न आपके घर का, न आपके आफिस का, न ही समाज का कोई फायदा कर सकता है |
इस लिए जरूरी तो है कि व्यक्ति का चरित्र इतना संयमित या शीतल हो जाए वह समाज में भी शीतलता दे पाए | इसी बात को अंग्रेज दार्शनिकों ने भी स्वीकारा - 'Simple living, high thinking' यानि सादा जीवन, उच्च विचार! महत्वपूर्ण यह नहीं की आप कैसे दिखते हो, जरूरी है, आप क्या हो! कपडे ही व्यक्ति को पहचान देते हैं, बिलकुल बेबुनियाद है! व्यक्ति को असली परिचय मेरा मुवकिकल आंतरिक गुण और चरित्र देते हैं|
मगर ऐसी सोच और चरित्र आज समय में कैसे पौदा होगा, जब की हर तरफ अशांति का माहौल है | वो केवल एक पूर्ण सतगुरु के शरण में जाकर ही आ सकता है | इस लिए हम सब ऐसे पूर्ण  सतगुरु की खोज करें, जो ब्रह्मज्ञान के द्वारा हमारी आत्मा को जागृत कर दे | ब्रह्मज्ञान का मतलब अपने भीतर उसी समय इश्वर का दर्शन  कर लेना | इस लिए जब हम जागेगें फिर पूरा विश्व जागेगा |

होश में आ जाओ बुलबुलों, चमन खतरे में है!

एक पुलिस वाला सत्याग्रहियों पर बेरहमी से डंडे बरसा रहा था | पंद्रह साल के किशोर चंद्रशेखर ने जब यह देखा, तो पुलिस वाले के एक पत्थर दे मारा | निशाना अचूक था | पुलिस वाले के माथे से रक्त की धारा वह निकली | चंद्रशेखर को पुलिस ने ग्रिफ्तार कर लिया | जब अदालत में पेश किया, तो जज ने पूछा - ' ऐ लड़के, तुम्हारा नाम क्या है ?'

'आजाद' - निर्भीक स्वर में तुरंत उत्तर आया !
जज - तुम्हारे पिता का नाम ?
चंद्रशेखर - स्वतंत्र !
जज - घर का पता?
चंद्रशेखर - जेलखाना!

जज गुस्से से लाल हो गया| उसने बालक के शारीर पर पन्द्रह बेंत लगाए जाने की सजा सुना दी | हर बेंत के साथ चमड़ी लिपट - लिपट कर उधड़ती चली गई | लेकिन हर बार तडफन की चीखें नहीं, ' भारत माता की जय' का स्वर गूंजा | लहुलहान आजाद जब घर पहुंचा -
माँ - इस तरह के काम करके तू क्यों मुझे दुखी करता है ?
चंद्रशेखर - माँ, मुझे करोड़ों पुत्रों की माँ का दुःख अधिक सताता है | मुझसे अपनी भारत माँ को जंजीरों में जकड़ा नहीं देखा जाता | यदि उसके प्रति अपना फ़र्ज़ न निभाउगा, तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी |
माँ - पर, तू अकेला क्या कर लेगा ?

चंद्रशेखर - माँ, आग की एक छोटी सी चिंगारी ही बड़े - बड़े महलों को जलाकर राख कर देने में सक्षम है | फिट क्यों भूलती हो की बूँद - बूँद मिलकर ही विशाल सागर बनता है | आज हमारी संख्या बेशक कम है | पर, एक दिन बच्चा - बच्चा हमारे साथ होगा | इन अंग्रेजों को धुल चटा देगा | अंत में 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हो गया | आज हम राजनीतिक तौर पर तो आजाद हो गए, पर मानसिक तौर पर आज भी गुलाम हैं |

बंधुओं, आज हमारे सामने एक और लक्ष्य है | वह लक्ष्य, जो पहले से भी की गुना बृहद है | जो केवल देश की सीमा तक सीमित नहीं, अपितु पूरे विश्व पर केन्द्रित है | वह है 'विश्व - शांति' का महालक्ष्य ! तो क्या इस महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें - आपको-हम सबको, यानी समूचे विश्व की एक -एक इकाई को अपना योगदान नहीं देना होगा?

हमने पढ़ा की छोटी - छोटी घटनायों से प्रेरित होकर देश का बच्चा बच्चा स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा था | मात्रभूमि के प्रति अपना फ़र्ज़ चुकाने से नहीं चूका था | फिर आज हम तो हर रोज दिल दहलाने वाली न जाने कितनी ही बड़ी वारदातों को घटता देखते हैं | भ्रष्टाचार,क़त्ल,शोषण,आंतकवाद, मानव बम...इनकी प्रचंड अग्नि से सम्पूर्ण विश्व को झुलसता देख रहे हैं | विशव की नस - नस में बारूद भरा जा चुका है | तो क्या ऐसी भीषण परिस्थितियों में हमारा कोई कर्तव्य नहीं? सोचिए, झंझोडें , अपनी आत्मा को! कब तब स्वार्थ की गफलत में उंघते रहेंगे? जगाए अपने अन्तकरण को! आत्म जागृत के लिए प्रयासरत होएं | एक पूर्ण गुरु द्वारा ब्रह्मज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करें, क्यों की केवल ब्रह्मज्ञान ही आत्मा को जागृत कर सकता है | उसके बाद ही हम स्व से ऊपर इस धरा को अपना कुटुम्ब मान पाएंगे | वसुधैव की शांति के लिए प्रयासरत हो सकेंगे | तब फिर वह दिन भी दूर नहीं, जब विश्व - शांति का सपना भी साकार होगा |

रक्षा - बन्धन पर्व जो आया, भक्तों के मन ऐसा भाया

रक्षा - बन्धन पर्व जो आया, भक्तों के मन ऐसा भाया
सच्चा भ्राता कौन जगत में, बतलाने का अवसर पाया 

अनोखा सा, अलबेला सा यह रिश्ता बड़ा अनमोल है
सतगुरु जी के उपकारों का जग में नहीं कोई तोल है

क्यों न बांधें परम रक्षक को, रक्षा की एक डोर से
क्यों न पार लगा लें नईया, भवसागर से छोर से 

रेशम के चाँद धागे लेकर प्रेम बांधने आये 
श्वांस - माल में शुभ मंगल भाव पिरोकर लाए

आज तुम्हारे कर - कमलों पर बांधा है यह धागा
उपहार - स्वरूप  बस चाहे यही - रक्षा करना दाता

हर पाप से हमें बचाना, कृपा कर चरणों में लगाना!
इस स्नेह - सूत्र को भूल न जाना!
भवसागर से हमें बचाना!
भ्राता होने का वचन निभाना! 

राखी महज कच्चा धागा नहीं !

राखी मात्र धागा नहीं, बल्कि भावनाओं का पुलिंदा है | इसका रेशा - रेशा उच्च व् पवित्र भावनाओं में गुंथा है | यह इन भावनाओं में समाई महान शक्ति ही है, जो राखी इतना क्रन्तिकारी इतिहास रच सकी है |

राखी को 'रक्षा - बंधन' भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसा बंधन जिसमें दोनों और की रक्षा की कामना निहित है! बंधने वाले की रक्षा की कामना तो है ही, बंधवाने वाले के लिए भी यह सूत्र एक अमोघ रक्षा कवच है | यही कारण है कि वैदिक काल में जब लोग ऋषियों के पास आशीष लेने जाया करते थे, तो ऋषिगण उनकी कलाईयों पर रक्षा - बंध बांधते थे | वैदिक मन्त्रों से अभिमंत्रित मोली या सूत का धागा बंधकर उनकी रक्षा की मंगलकामना करते थे |

और सच कहूं तो, सिर्फ बंधने और बंधवाने वाले की रक्षा ही क्यों! बल्कि मेरी, समूचे भारत की संस्कृति की रक्षा इसमें छिपी हुए है | आज भारत की संताने एक ऐसे चौराहे पर जा खड़ी है, जहाँ से भटकने की संभावनाएं भरपूर है | यह पर्व उन चौराहों पर खड़ा होकर, पहरेदार की तरह, उन्हें भटकने से रोकता है | उनकी इच्छाओं और वृत्यों अंकुश लगाता है | आज यहाँ नारी को केवल रूप सौन्दर्ये के आधार पर ही तोला जाता है, उसे कुदृष्टि से ही देखा जाता है, जहाँ बलात्कार और छेड़ - छाड़ के किस्से आए दिन अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाए रहते हैं - वहां रक्षा बंधन का यह पर्व एक बुलंद और क्रन्तिकारी सन्देश समाज को देता है | वह यह की एक नारी केवल नवयौवना या युवती ही नहीं, कहीं न कहीं एक बहन भी है! एक समय था जब एक घर की बहन, बेटी को पूरे गाँव की बहन और बेटी समझा जाता था | पर आज के समाज में तो एक बहन, बेटी अपने खुद के घर में सुरक्षित नहीं है | इस तरह यह त्यौहार पवित्रता की परत हमारी दृष्टि पर चढ़ाता है | नारी को बहन रूप में देखना सिखाता है! इस लिए अगर यह पर्व अपनी वास्तविक गरिमा में हो जाए, तो समाज की बहुत सी भीषण समस्याओं का उन्मूलन सहज ही हो जाएगा !रक्षा बंधन का यह पर्व मनाना तब ही सही अर्थों में सार्थक हो सकता है, जब हम अपनी सोच के साथ - साथ, अपने कर्म में भी बदलाव लायें, वो केवल ब्रह्मज्ञान की ध्यान साधना से ही संभव हो पाएगा | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | अंत में मेरी और से सभी को रक्षा - बंधन के इस पर्व की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनायें |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

जो विवेक से शून्य, दें कोरे तर्क,
बिन गुरु पाना चाहते ईश्वर |
जो जन्म अनेकों बदल चुके,
विश्वास नहीं परिवर्तन पर |

सतगुरु  क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें दिव्य प्रकाश का भान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||

जो नहीं जानते गुरु उन्हें,
भवसागर पार करा सकता |
जो नहीं मानते कोई उन्हें,
घट में ईश्वर दिखला सकता |

सतगुरु  क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें निज संस्कृति का मान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

अहंकार वश होकर जो,
कठिनाई अपनी बड़ा लेते |
वेदों व् धर्म - ग्रंथों तक को,
जो  मनघड़त ठहरा देते |

सतगुरु  क्षमा कर दो उनको,
स्वीकार जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||

पूर्ण के आगे पूर्ण समर्पण

जहाँ न + मन है, वही नमन है |
जहाँ नमन है, वही चमन है |

समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | दरबार के कार्य के लिए तन की भागम - भाग या मजदूरी भर नहीं | मांसपेशियों या हड्डियों  की कसरत भी नहीं है | माने - मात्र तन की पोटली बंधे दरबार के लिए आ जाना समर्पण नहीं है | हमारी  इस बंधी पोटली में  ढेर सारा सूक्षम साज - सामान मॉल असबाब भी तो भरा पड़ा है | उसे क्यों सहेजे हैं ? उस को कब अर्पित करेंगे ?

समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | इस हद  तक कि जहाँ एक भाव - तरंग भी अपनी चेष्टा या कामना से न उठे | तभी तो समर्पण की विशालता को स्वयं गुरु महाराज जी ने केवल एक पंकित में बंधते हुए यही कहा था -' समर्पण वह है, यहाँ इष्ट का एक पल का भी आभाव आपको बैचैन कर दे |' माने उसके इशारों का आभाव हमारी जीवन - प्रणाली ही ठप्प कर के रख दे | मन को कंगाल कर दे | जीवन की गति के गुरु ही आधार, गुरु ही सार हो जाएँ | तन  - मन अपनी चाल चलना छोड़कर उनके इशारों पर थिरकने लगे | यह है समर्पण | मात्र घर छोड़ कर आना भर समर्पण नहीं | सर्वात्म को उलीच कर देना - यह है समर्पण |

जब  हमारा गुरु पूर्ण  है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण  है | अपनाना पूर्ण है | तो बदले में हमारा देना पूर्ण क्यों नहीं है? समर्पण पूर्ण क्यों नहीं है ? मैं अपना भी रहूँ और समर्पित भी कहलाऊँ - यह तो आडम्बर होगा | समर्पण का मजाक उड़ाना होगा | समझ लें, खंडित समर्पण, समर्पण नहीं होता | अपने में से थोडा सा निकल कर गुरु को अर्पित कर देना - यह समर्पण है ही नहीं | अधूरी आंशिक आहुतियों से कभी समर्पण की ज्वाला जाज्वल्यमान नहीं होती | अपूर्णता में तो वह अपनी सारी गरिमा, सारी  महिमा  खो बैठती है | इस लिए समर्पण सदा सर्वात्म देकर महिमामंडित होता है | पूर्णता की पीठिका पर ही सीधा स्थिर खड़ा रह पाता है |

कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा ...

कहाँ है जन्नत? कहाँ है उसकी भोर?
है कोई जो ले जाए, उस एक की और?
ग़फलत की निद्रा से जगायेगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन देगा सूर्य से अधिक प्रकाश?
जिसे मापने को कम पड़ेंगे तारे गगन आकाश
तमस की काली रात में, उजाले की किरण दिखाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन है जो मन के वीराने में ज्ञान पुष्प करेगा प्रफुलित
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहम; पञ्च चोर जायेंगे मिट
आत्मा से भोगो की मलिनता उतार, पवित्र बनाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन है जो बहती नदी को पहुँचाएगा उसके स्रोत?
हिलोरे खाती, भाटा लाती, होती ओतप्रोत
नदी की थकान दूर कर सागर मिलन कराएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन है जो भक्ति का पथ पढ़, आत्मा की पुस्तक
अध्यात्म का रहस्य, दीक्षा का सत्य लाएगा मुझ तक
इंसानी पशु से मानव, मानव से ज्ञानी बनाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन है जो तोड़ेगा कर्मों की बेड़ी?
संभालेगा डगरों पे तिरछी टेढ़ी – मेढ़ी
उँगली पकड़, विकारों से बचा, सत्यपथ पर चलेगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

कौन है जो कराएगा साक्षात्त दर्शन चरण चक्षु मुंड?
तड़पते प्यासे चातक को देगा स्वाति बूँद
विवेक दृष्टि दे, अंतर्घर की क्षुधा बुझाएगा
कौन है जो दिव्य ज्योति जलाएगा?

शास्त्र-ग्रन्थ, बाईबल, गीता, कुरान भी करती है ऐलान
घट में दिखती दिव्य ज्योति मिल जाए अगर कोई संत महान
अमृत कुंड नाम भक्ति भण्डार का है कोष
दिव्य ज्योति जलाते है कलयुग में भी आशुतोष

उठो! जागो! कुछ कर दिखाओ! फिर यह अवसर मिले न मिले!

रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?...अच्छा, फिर दो पल बैठ | मैं तेरा ही जमीर हूँ | आज तुझसे कुछ बातें सांझी करना चाहता हूँ | तुझे झकझोर कर जगाना चाहता हूँ | तू मेरी आवाज को अनसुना मत करना | अपनी दलीलों के शोर से मुझे मत दबाना | मैं जो पूछूं या कहूँ उस पर सोचना, गोर करना |
गुरु सेवा - कितनी सहजता से ये शब्द बोल उठता है तू! पर कभी इनकी गहराई, इनकी महिमा जानी है? सेवादारी क्या होती है? सेवक किसे कहते हैं ? उसका शिंगार क्या है ? कुछ खबर है इन सबकी ? शायद नहीं! तभी तुम बड़े आराम से! 7:00 वजे की सेवा के लिए 7:30 वजे घर से जा रहा है | वह भी बड़े आराम से! कहीं दिल में खींच नहीं | क़दमों में रफ़्तार नहीं! कोई बेसबरी या जल्दी नहीं!
एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे | आतुर! बड़ा मार्मिक है यह लफ्ज! एक होता है, सेवा के लिए तैयार रहना | दूसरा होता है, आतुर रहना | जो सेवक तैयार रहता है, वह इंतजार करता है| सेवा हाथ में आती है, तो उसे अंजाम देता
है | पर जो सेवक आतुर है, वह इंतजार करना नहीं जनता | सेवा के बगैर छटपटा उठता है | इसलिए यहाँ सेवा होती है, वहां स्वयं पहुंच जाता है | लपक के उसे लूट ता है| ठीक जैसे एक भूखा व्यक्ति | सेवा के लिए ऐसी भूख होती है एक सेवादार में! सच बता, क्या तुझमें है? नहीं न! तुझे तो गुरुघर से बुलावे भेजने पड़ते हैं | तब  कहीं जाकर तेरे कदम उठते हैं...और कई बार तो तेरी सुग्रीव जैसी हालत होती है | बढ - चढ़ कर सेवा करने के दावे तो कर आता है | पर फिर दुनिया में मस्त होकर उन्हें बिसर बैठता है | गफलत की नींद सो जाता है | टेलीफ़ोन की जोरदार घंटियाँ  से तुझे जगाना पड़ता है | क्यों? क्यों है तेरी आँखों में ऐसी गाढ़ी नींद, जो टूटटी ही नहीं? कहते हैं, लाकश्मन  बनवास के 14 वर्षों तक ऐसी कच्ची नींद सोया था, की यदि उसके स्वामी राम के पास एक पत्ता भी हिलता, तो वह जाग उठता था | यह होती है एक सेवक की जागरूकता! सेवा के प्रति उस की सजगता !
तुझे याद है गुरु महाराज जी के वचन - गुरु सभी को श्रेष्ठ सेवा सोंपता है, पर प्रसन्न  उन्ही से होता है, जो उसे पूर्ण करते हैं | अरे, गुरू सिर्फ हमारे सिर  झुकाने से खुश  नहीं होता | ठीक है, भावनाओं की अपनी कीमत है | उन्हें भी गुरु-चरणों में समर्पित करना है | पर खाली मत्था रगड़ने से काम नहीं चलेगा | गुरु का सच्चा सपूत है, तो तन मन को सेवा में झोंक कर दिखा | वह भी पूरी लगन से, निष्ठां से, डूब के! जिस मिशन रुपी गोवर्धन को गुरु महाराज जी ने उठाया हुआ है, तू उसमें अपने सहयोग की छड़ी लगाकर दिखा | ऐसे नहीं की ढीले- ढाले होकर...लापरवाही से...जितना हो गया, सेवा पूजा है! एक पवित्र आरती है | गुरु चरणों में समर्पित परम वंदना है | तेरी भावनाओं को परखने की सच्ची कसोटी है....इस लिए सेवा को पूरी ईमानदारी और जिम्मेवारी  से निभाया कर |
मैं तेरा जमीर हूँ | इसलिए मुझसे कुछ नहीं छिपा| मैं तेरी अंतर्तम भावनाओं को जानता हूँ | ये भावनाएं भीतर क्यों उठती हैं ? उनकी जड़ क्या है? यही की तू अपने आप को कर्ता मानकर सेवा करता है | सोचता है, सेवा करने वाला तू है | इस लिए गिरता उड़ता है | अर्जुन का भी यही हाल था | सीना तान कर, गांडीव - शंडीव  धारण कर  कुरुक्षेत्र  में उतर आया | पर ज्यों ही चोनौतिपूर्ण नजारा देखा, कंधे लटक गई | होसलें पस्त हो गए | उत्साह धराशाही होकर गिर पड़ा | वह कह उठा - 'प्रभु मैं यह सेवा नहीं कर सकता | मैं इस कार्य के योग्य नहीं | ऐसे में प्रभु ने क्या किया ? उसे अपना विराट स्वरूप  दिखाया | उसमें सभी विपक्षी योद्धगन चुर्नित होते दिखाए | स्पष्ट किया - तू सेवा करने वाला है ही नहीं | देख इन्हें तो मैं पहले ही यमपुरी पहुंचा चूका हूँ | तुझे तो इस सेवा का निमित्त मात्र बनाया है | इसलिए बस जैसा कह रहा हूँ, करता जा | एक सेवादार का यही धरम है कि जो मालिक ने कहा, पूरी भावना से  वह करता जाए | सेवा होगी या नहीं और अगर हो गयी , तो क्यों हुए - ये सब सोचकर मन भारी करने का क्या मतलब | कर्ता पुरष  तो गुरु हैं | हो सकता है, उन्हें  यही मंजूर हो |

वे ब्रह्माण्ड के सूर्ये हैं | सकल विश्व को अकेले ही रोशन कर सकते हैं | पर दया कर, परम क्रपालु  होकर, तुझ जैसे जुगनुओं को चमकने का मोका दे रहे हैं | सितारों को टिमटमाने  का अवसर दे रहे हैं | तुझे यह मोका हरगिज नहीं चूकना है | अपनी सारी ताकत, सारी भावनाएं बटोरकर सेवा व्रत निभाना है | जिगर में सेवा भाव की ज्वाला जलानी है, जिस में जलकर तेरे  सारे नीच और बाधक विचार राख हो जाएँ | ताकि तू दमक उठे | तेरे सिर  पर गुरु के लिए कुछ कर गुजरने का जनून हो | तेरे विचारों के ताने बाने में, दिल के हर अफसाने में एक ही भाव गूंथा हो - सेवा!सेवा!सेवा ! तेरे कर्म का, धर्म का, ईमान का, सारे जीवन का एक ही सार हो - सेवा! सेवा!सेवा! तू सेवा करते - करते सेवारूप  हो जाए | तभी सच्चा सेवक कहलाएगा, मेरे मीत! तू सच्चा सेवक कहलाएगा! इस लिए हम सब ने ऐसे सेवक बनना है और गुरू महाराज जी के उमीदों को पूर्ण करना है | फिर वह दिन दूर नहीं जब हम सब विश्व शांति का लक्ष्य साकार होते हुए देखेगे |

शिष्य वही, जिस पे गुरु शासन कर सके

एक व्यक्ति के पास तीन प्रकार के धनुष्य थे | पहला धनुष्य बोला कि, 'हे मालिक, कहीं मुझे यू  ही  पड़े - पड़े जंग न लग जाये, इसलिए तू मेरा इस्तेमाल कर |' दूसरे ने कहा, तू मेरी प्रत्यंचा चढ़ा | लेकिन देखो, ध्यान से ! कहीं मैं टूट न जाओं  ? तीसरे धनुष्य ने कहा,' तू जैसे चाहे मेरा इस्तेमाल कर, बेशक मैं टूट क्यों न जाओं | ठीक ऐसे ही तीन प्रकार के लोग गुरु के पास पहुँचते हैं | पहली प्रकार के लोग पहले धनुष्य कि भांति गुरु की सेवा तो करते हैं, लेकिन इस डर से कहीं सांसारिक कष्ट हमें खत्म न कर दें | कहीं हमारे जीवन में दुःख न आ जाएँ | ये व्यापारी किस्म के होते हैं |
दूसरी प्रकार के भक्त, दूसरे धनुष्य जैसे होते हैं जो कहते हैं हमारी प्रत्यंचा चढाओ, लेकिन ध्यान रखना कहीं हम टूट न जाएँ | ऐसे भक्त सेवा तो करते हैं, लेकिन अपने आप को सुरक्षित रखकर | स्वयं का नुकसान नहीं देख सकते | पहली प्रकार के भक्त तो फिर भी समझाने से समझ जाते हैं | लेकिन ये दूसरे प्रकार के भक्त इतने डरपोक और कायर होते हैं कि समझाने पर भी इनका विवेक जागृत नहीं होता | ये भक्त मुश्किलों से घबराकर, इस पथ को छोड़ देते हैं, इस मार्ग से टूट जाते हैं |और जब टूटते हैं तो दोष भी गुरु को देते हैं , लेकिन ऐसे भक्त भली - भांति समझ लें, कि अगर वे पूर्ण ज्ञान का आनंद नहीं उठा पा रहे इस का एक मात्र कारण यही है क वे उचित मूल नहीं दे रहे | आपको समर्पण और त्याग रुपी मूल्य देना होगा | उसी समय  आप को परमानन्द का अनुभव होगा |
तीसरी प्रकार के शिष्य वे हैं जो कहते हैं , 'हे गुरुवर, हमें अपनी सेवा में लगा लो | बदले में चाहे हम खत्म ही क्यों न हो जाएँ | ऐसे शिष्यों कि तुलना वारिश में सीधे पड़े घड़े के साथ कि जा सकती है | इनमें पात्रता होती है | ये गुरु कृपा को समेट पाते हैं | ये योग्य बनते हैं पर कुछ नहीं मांगते | लोग कहते हैं  First deserve, then desire   पहले योग्य बनो फिर इच्छा करो | पर हमारे वेदों ने कहा Always deserve, but never Desire -  सदा योग्य बने रहो, लेकिन कभी इच्छा मत करो | क्यों कि तुम्हारा अंतरयामी  गुरु सब जनता है कि तुम्हे कब क्या चाहिए | जो भक्त गुरु के सिवा कुछ देखते नहीं, बोलते नहीं, सुनते नहीं, सोचते नहीं, उनका तो सदैव गुरु भी चिंतन किया करते हैं |
आप भी महाराज  जी के निर्देशों को समझें और उनके मुतबिक चलते चलें | खुशकिस्मत होते हैं वो लोग, जिनका चुनाव समय का रहवर करता है | मिटटी के खिलोने को तो एक दिन टूटना ही है | अच्छा होगा अगर हम सत्य कि राहों पर चलते हुए अपने आप को कुर्बान कर दें | मन  से, तन से, अंदर से, बाहर से - सब ओर से गुरु के लक्ष्य  के लिए कुर्बान हो जाएँ | किसी ने खूब कहा है -
जो सच को ईमान बना लेते हैं,
अपने आप को इन्सान बना लेते हैं |
आ जाता है सच पर मरना जिन्हें,
वो मरने को वरदान बना लेते हैं |

अंत  में मैं यही कहना चाहूँगा कि हम सभी ने तीसरे प्रकार का गुरु भक्त बनने का प्रयास करना है | हम ने गुरु को स्वतंत्रता  देनी है, कि वे हमें तराश सके | दूसरों को या ज्ञान को या गुरु को दोष देने की बजाय स्वयं पर दृष्टिपात करना है | कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा दामन अब तक इस लिए खाली है क्यों कि हमने उसके छेद बंद नहीं किए | सच मानिए, गुरु चोबीस घंटे आपका इंतजार कर रहा है कि कब मेरा शिष्य मेरे पास आए | उसके इंतजार को निराशा नहीं देनी, बल्कि ऐसा शिष्य बनना है जिस की उसे तलाश है | वह  शिष्य जिस पर वह शासन कर सके, अपनी मर्ज़ी लागू कर सके |

15 Laws of Life By Swami Vivekanand Ji

1. Love Is The Law Of Life: All love is expansion, all selfishness is contraction. Love is therefore the only law of life. He who loves lives, he who is selfish is dying. Therefore, love for love's sake, because it is law of life, just as you breathe to live.
2. It's Your Outlook That Matters: It is our own mental attitude, which makes the world what it is for us. Our thoughts make things beautiful, our thoughts make things ugly. The whole world is in our own minds. Learn to see things in the proper light.
3. Life is Beautiful: First, believe in this world - that there is meaning behind everything. Everything in the world is good, is holy and beautiful. If you see something evil, think that you do not understand it in the right light. Throw the burden on yourselves!
4. It's The Way You Feel: Feel like Christ and you will be a Christ; feel like Buddha and you will be a Buddha. It is feeling that is the life, the strength, the vitality, without which no amount of intellectual activity can reach God.
5. Set Yourself Free: The moment I have realised God sitting in the temple of every human body, the moment I stand in reverence before every human being and see God in him - that moment I am free from bondage, everything that binds vanishes, and I am free.
6. Don't Play The Blame Game: Condemn none: if you can stretch out a helping hand, do so. If you cannot, fold your hands, bless your brothers, and let them go their own way.
7. Help Others: If money helps a man to do good to others, it is of some value; but if not, it is simply a mass of evil, and the sooner it is got rid of, the better.
8. Uphold Your Ideals: Our duty is to encourage every one in his struggle to live up to his own highest idea, and strive at the same time to make the ideal as near as possible to the Truth.
9. Listen To Your Soul: You have to grow from the inside out. None can teach you, none can make you spiritual. There is no other teacher but your own soul.

10. Be Yourself: The greatest religion is to be true to your own nature. Have faith in yourselves!
11. Nothing Is Impossible: Never think there is anything impossible for the soul. It is the greatest heresy to think so. If there is sin, this is the only sin - to say that you are weak, or others are weak.
12. You Have The Power: All the powers in the universe are already ours. It is we who have put our hands before our eyes and cry that it is dark.
13. Learn Everyday: The goal of mankind is knowledge... now this knowledge is inherent in man. No knowledge comes from outside: it is all inside. What we say a man 'knows', should, in strict psychological language, be what he 'discovers' or 'unveils'; what man 'learns' is really what he discovers by taking the cover off his own soul, which is a mine of infinite knowledge.
14. Be Truthful: Everything can be sacrificed for truth, but truth cannot be sacrificed for anything.
15. Think Different: All differences in this world are of degree, and not of kind, because oneness is the secret of everything.

सेवादार

सेवादार तो एक ईट है,
जिसे सेवा की भट्टी में डालकर निखारता है सतगुरु |
खुद का और अपनों का आईना दिखाता है सतगुरु |
सेवादार बनता है समर्पण से,
समर्पण होता है प्रेम से,
प्रेम उत्पन्न होता है, सच्चे भावों से,
सच्चे भाव मिलते हैं श्रद्धा से,
श्रद्धा  मिलती है भगवान से,
और भगवान मिलते हैं सच्चे गुरुओं से |
इसलिए मर भूल, सेवा देता और कराता है सतगुरु |

न कर सेवा तू किसी मतलब से,
कर सेवा तू निस्वार्थ भावना से |
सेवा तो एक अग्नि - कुंड जिसमें,
डालनी है आहुति हमें अपने स्वार्थी विचारों की |
लाज रखनी है हमें इस सफ़ेद चोले की,
जो दिया है गुरु ने हमें किसी आस से |
न देख अवगुण दूसरों के,
जरा सर झुकाकर  देख अपने अंतर में |
न खुद से अधिक अवगुणी किसी को पाएगा |
कुछ लाभ नहीं ऐसी सेवा से,
गर हुई कोई रूह खफा हमसे,
करना है गर अपने सतगुरु को खुश,
तो रख ध्यान हमेशा लगे न ठेस किसी के दिल को,
क्योंकि हर दिल में तो वही वसता है |
गर देखोगे हर दिल में तो उसको ही पाओगे |

एक सुझाव

जब मानव की नस नस में दानवता का प्रसार होता है
जब रक्षक ही भक्षक बन, बाप ही कुबाप बन
रिश्तों की पवित्रता को मिट्टी में मिला डाले
नौजवानों का आहार जब चरस और शराब हो
माया का नशा इंसा को बेहिसाब हो
मृत्यु जब अट्टहास करे, जीवन जब कराहने लगे
बेबसी की बेड़ियों में मानवता चिल्लाने लगे
घर-घर में जब कंस हो, कौरवों का वंश हो
बुद्धि पर कपाट हो
लहू की लालिमा से लथपथ ललाट हो
अर्थ जब अनर्थ लगे, अमृत जब व्यर्थ लगे
अमन बन जाए कफन, शान्ति हो जाए दफन

तब?
ब्रह्मज्ञान ही सर्वस्व बचा सकता है
दुनिया को स्वर्ग बना सकता है

भगवान की प्रतिज्ञा

मेरे मार्ग पर पैर रख के तो देख,
तेरे सब मार्ग न खोल दूं तो कहना |

मेरे लिए कड़वे वचन सुनकर तो देख,
कृपा न बरसा दूं तो कहना |
मेरी तरफ आ के तो देख ,
तेरा ध्यान न रखूं तो कहना

मेरे लिए खर्च करके तो देख,
कुबेर के भंडार न खोल दूं तो कहना |
मेरे चरित्रों का मनन करके तो देख,
ज्ञान के मोती न भर दूं तो कहना |

मेरा कीर्तन करके तो देख,
जगत का विस्मरण न करा दूं तो कहना |
तू मेरा बन के तो देख,
हर एक को तेरा न बना दूं तो कहना |

मुझे अपना मददगार बना के तो देख,
तुझे सब की गुलामी से न छुड़ा दूं तो कहना |
मेरे लिए आंसू बहा के तो देख,
तेरे जीवन में आनन्द के सागर न बहा दूं तो कहना |

वही युवा कहलाएगा!

धर्म का परचम जो लहराएगा,
वही युवा कहलाएगा |

जिसके मन में होगी संतन की पूजा,
जिसको न होगा कोई पाप सूझा,
सत्यता की ज्योत जो जलाएगा,
वही युवा कहलाएगा |

छाएगी जहाँ-रशिम की छटा,
होगा जहाँ पाप का कोहरा हटा,
ब्रह्मज्ञान को जो फैलाएगा,
वही युवा कहलाएगा |

चरित्र हो उज्जवल जिसका,
खात्मा हो जिसमें भोगों का,
जो अनादि अनन्त देख पाएगा,
वही युवा कहलाएगा |

अध्यात्म-शिखर को जो हो उन्मुख,
हर व्यक्ति को जो बनाए गुरुमुख,
पूर्ण गुरू का नूर जो फैलाएगा,
वही युवा कहलाएगा |

ज्ञान का दीप जो करेगा प्रज्वलित ,
मन को अपने जो करेगा उज्जवलित,
सदगुरू का सपना जो पूरा कर पाएगा,
वही युवा कहलाएगा |

विश्व - शांति का तय करेगा जो सफर,
नवयुग का जो देखेगा पहला पहर,
कलयुग से नवयुग तक जो जाएगा,
वही युवा कहलाएगा | 

आप कौन - सी श्रेणी के भक्त हैं ?

आज संसार में देखें, तो हर कोई किसी - न - किसी तरीके से भक्ति करता नजर आता है | कोई सकाम, कोई निष्काम | अधिकतर लोग सकाम भक्ति में संलग्न है | सकाम अर्थात वह भक्ति जो अपने मन के अनुसार किसी इच्छा पूर्ति के लिए की जाती है | वहीं निष्काम भक्ति वह है, जहाँ एक भक्त सभी सांसारिक कामनाओं से रहित होकर केवल ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रखता है | श्रीमदभगवद गीता (7/16) में भगवान श्री कृषण कहते हैं -
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥७-१६॥
अर्थात हे भारत श्रेष्ट अर्जुन! आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी, ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं |
आर्त भक्त कैसे होते हैं ? आइए पहले इनके विषय में जाने | आर्त का सामन्य अर्थ होता है - दुःख से पीड़ित व्यक्ति | अत: आर्त भक्त वे हैं, जो अपनी किसी दुख के  निवारण के लिए भक्ति करते हैं | ये प्रभु को पुकारते तो हैं | इनके भीतर भगवान की याद भी उमड़ती है | लेकिन कब ? तभी जब इन्हें कोई शारीरक या मानसिक कष्ट आ घेरता है |
अब दूसरे प्रकार के भक्त होते हैं - अर्थार्थी  | ये वे भक्त हैं जो सांसारिक पदार्थों की कामना के लिए भक्ति करते हैं | धन - वैभव, संतान आदि नियामतें पाने के लिए इबादत करते हैं | आज मंदिर, तीर्थ आदि धार्मिक स्थल क्षद्धालुओं से खचाखच  भरे दिखाई देते हैं | भक्तजन  बढ - चढ़कर पूजा अर्चना करते हैं | लेकिन किस भाव से ? यही कि बदले में अमुक सांसारिक वास्तु मिल जाए  | फलं विगडा काम बन जाए  | कोई मन्नत  या मांग पूर्ण हो जाए | पर महापुरष कहते हैं कि यह मांगना  ही भक्ति मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है | जब किसी हेतु से भक्ति की जाती है, तो वह भक्ति नहीं व्यापार बन जाती है |
इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में,
वह इबादत नहीं, एक तरह की तिजारत है ||
तिजारत कहते हैं सोदेबाजी को | आज मनुष्य भक्ति के क्षेत्र में भी ऐसा ही व्यापारी बन गया है | अपनी कुछ क्षण की पूजा आराधना  के बदले में उस करतार से सांसारिक पदार्थ चाहता है | ये सभी पदार्थ क्षणभुंगर और नश्वर हैं | दूसरा ये आनंद तो क्या, सच्चा सुख नहीं दे सकते | यूं तो अमरीका सर्वाधिक धनी देश है | फिर भी वहां के नागरिक घोर अशांति से पीड़ित हैं |सूचना के मुताबिक वहां हर दसवां इन्सान तनावग्रस्त है |
तीसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु प्रविर्ती के होते हैं | इनमें ईश्वर को जानने की तीव्र ललक होती है | इस कारण ये शास्त्र ग्रंथों का गहन अध्ययन  व् रटन करते हैं | पोथी पंडित बन जाते हैं | फलस्वरूप इनका बोधिक विकास तो हो जाता है | ये शास्त्रर्थ करने में निपुण हो जाते हैं | परन्तु आत्मिक लाभ नहीं उठा पाते |
चोथी श्रेणी ज्ञानी भक्तों की है | ये वे भक्त हैं, जो ब्रह्मज्ञान से दीक्षित हैं | ये शाब्दिक जानकारियों, शास्त्रों की कथा - कहानियों में नहीं उलझते | अपितु एक पूर्ण सतगुरू की शरणागत होकर ईश्वर का प्रत्यक्ष  दर्शन कर लेते हैं | लेकिन ऐसा नहीं इनके जीवन में कोई सांसारिक अभाव नहीं होता | लेकिन ये उस अभाव की पूर्ति के लिए ईश्वर से कभी गुहार नहीं करते | प्रभु से केवल प्रभु को मांगते हैं | उसके अतिरिक्त किसी की कामना नहीं करते | इन भक्तों के विषय में ही भगवान श्री कृषण ने निम्न श्लोक में कहा -
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥७-१७॥
अर्थात इन चार प्रकार के भक्तों में, परमात्मा के साथ नित्ययुक्त अनन्य प्रेम करने वाला ज्ञानी विशेष है, क्यों कि ज्ञानी के लिए मैं अत्यंत प्रिय हूँ, तथा मेरे लिए वह अत्यंत प्रिय है |
अत: सत्संग प्रेमियों, हम सब भी ज्ञानी भक्तों की श्रेणी में आने का प्रयास करें | आज चाहे हम आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु किसी भी श्रेणी में खड़े हों, पूर्ण संत की खोज कर ईश्वर का दर्शन करें | ज्ञानी बनें | तभी हम अपने मानव जीवन के लक्ष्य को पूर्ण कर पाएँगे |

जो परमात्मा का दर्शन करवा दे वही पूर्ण सतगुरू है

आज के समाज में धार्मिक गुरुओं की कोई कमी नहीं है, इन्सान जब ऐसे गुरूओं को शरण में जाता है, तो सब के अपने - अपने परमात्मा की भक्ति के मार्ग हैं, वो उलझ जाता है, कौन सा मार्ग सही है | ऐसा ही प्रशन एक वार एक व्यक्ति ने गुरूदेव सर्व श्री आशुतोष महाराज जी के समक्ष्य रखा |
प्रशन: महाराज जी,यहाँ आने से पहले मैं अनेक गुरूओं के पास गया | सब के समक्ष्य अपनी यह जिज्ञासा रखी कि आप मुझे परमात्मा का दर्शन करा दीजिए | पर सभी ने एक ही उत्तर दिया कि परमात्मा का दर्शन करना इतना सहज नहीं है | पहले स्वयं को पात्र बनाओ | अपने भीतर सदगुणों का विकास करो | दान - पुण्य के द्वारा स्वयं को निर्मल - पवित्र  करो | तपस्या करो | तब कहीं जाकर तुम परमात्म - दर्शन के अधिकारी बनोगे | पर आपने अभी अपने प्रवचनों में कहा कि परमात्म - दर्शन भक्ति मार्ग का पहला चरण है | दर्शन होने के बाद ही भक्ति शुरू होती है | मैं तो उलझ गया हूँ | कृपया मेरा मार्ग दर्शन करें |
उत्तर: आप पात्र हैं | परमात्म-दर्शन के अधिकारी हैं, क्यों कि आपके पास मानव तन है | शास्त्रों में कहा गया - 'भई परापति मानुख देहुरीआ  गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ |'  हे जीव, यह तेरी गोबिंद से, परमात्मा से मिलने की बारी है, क्यों कि तुझे मनुष्य की देह प्राप्त हुई है | इसके आलावा और कोई शर्त नहीं रखी गयी | दूसरा आपमें तो जिज्ञासा भी है | यदि अब भी कोई कहता है कि आप परमात्म - दर्शन के पात्र नहीं, तो वह गलत कहता है | आप को भ्रमित कर रहा है |
आपने वह कहावत तो सुनी होगी - 'न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी |' एक बार किसी ने राधा से कहा - आप नाच कर दिखाइए | राधा ने एक शर्त रख दी-पहले नौ मन तेल लाओ | फिर नाचूंगी | और हम सब जानते हैं कि न कभी नौ मन तेल एकत्र  हुआ, न कभी राधा नाची | बस तभी से यह कहावत प्रचलित हो गई | इसी प्रकार परमात्म-दर्शन के बिना वास्तविक ज्ञान, तप, दान आदि को समझा ही नहीं जा सकता | और न ही स्व - प्रयासों द्वारा व्यक्ति में कभी सदगुण आ सकते हैं | इस हिसाब से वह कभी पात्र बनेगा ही नहीं | यह बात तथाकथित गुरू भी जानते हैं | इस लिए वे ऐसी असाध्य शर्त रख देते हैं | यही सोचकर कि न यह अनुगामी एक निर्मल - सदगुणी पात्र या अधिकारी बनेगा और न ही उनसे परमात्म - दर्शन करवाने की आशा करेगा |
वस्तुत: हकीकत तो यह है कि वे स्वयं अज्ञानी हैं, अपूर्ण हैं | उनके पास ज्ञान कुंजी है ही नहीं, जिसके  द्वारा वह आपका दसवां द्वार खोलकर आपके भीतरी जगत में प्रवेश करा सकें | उनके पास वह ब्रह्मज्ञान ही नहीं, जिस  के द्वारा वे आपके अंतस में प्रकाश प्रकट कर सकें | आपको परमात्मा का साक्षात्कार करा सकें |
दूसरा यदि वे यह कहतें हैं कि परमात्मा का दर्शन दान, तपस्या या अन्य ब्रह्म कर्म - काण्ड करने के पछ्चात ही संभव है, तो उनसे प्रशन कीजिए कि - यदि ऐसा है, तो फिर स्वयं भगवन श्री कृषण ने गीता के 11 वें अध्याय के 53 वें श्लोक में यह क्यों कहा -
हे अर्जुन न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से  ही मैं इस प्रकार देखा जा सकता हूँ, जैसा तुमने मुझे देखा है |
सारत: आपके पास मानव तन है | आपमें जिज्ञासा है | बस यदि आपको अब आवश्कयता है, तो एक पूर्ण गुरू की | आपका पात्र भरने की शमता रखने वाला एक ब्रह्मज्ञानी की | अत: आप एक पूर्ण ब्रह्मनिष्ट सतगुरू की खोज करें | उनके सान्निध्य में पहुंचकर ब्रह्मज्ञान की याचना करें | वे आप को ज्ञान दीक्षा के समय ही आपके अंतस में परमात्मा का प्रतक्ष्य साक्षात्कार करा देंगे | उस के बाद ध्यान साधना का निरंतर अभ्यास करके आप स्वयं को सही अर्थों में निर्मल, पावन और सदगुणी भी बना सकते हैं |

चिंता और चिंतन

एटम बमों, मिसाइलों और ध्वंसक हथियारों ने हवा में तैरती चिंता को जन्म दिया है | 'हवा में तैरती चिंता' - हमारे युग के डर को वर्णित करने का सटीक तरीका है | हम दरअसल यह जानते ही नहीं कि हम किस चीज से डरते हैं | आज ज्यादातर लोग एक अजीब से तनाव से ग्रस्त हैं | हम इतनी सारी चीजों से डरते हैं कि किसी एक चीज का वर्णन करना निर्थक लगता है | डर बादल की तरह मंडराता है और हमारे हर काम पर अपनी काली छाया डालता है | यह डर धुंधला और सर्वव्यापी है |

हमें विचारों के डर और दुविधा की धुंध से उपर उठना चाहिए | हमें चिंता और तनाव से उपर उठकर ऐसे स्तर पर पहुँचाना चाहिए, जहाँ हम स्पष्ट और तर्क संगत तरीके से सोच सकें | डर हमारी ख़ुशी का दुश्मन है | यह हमारी सोचने की क्षमता पर बुरा असर डालता है | इससे दिल का दोरा भी पड़ सकता है | जीवाणु और विषाणु तनाव ग्रस्त लोगों को आसानी से रोगी बना सकते हैं | लेकिन इससे दहशत में न आए | कारण कि डर पर विजय पाने की शक्ति आपमें है |

चिंता और डर से सीधा मुकाबला करने से कोई फायदा नहीं होता | अपने दिमाग में इतनी आस्था भर लें कि उसके तेज बहाव में डर भी बह जाए | ईश्वर की शक्ति आप के लिए वह काम करेगी, जो आप अपने लिए नहीं कर सकते | आपका काम उसकी शक्ति में विश्वास करना और उसके प्रति समर्पण करना है | उसकी जबरदस्त शक्ति के द्वारा आप डर से निजात पा सकते हैं | लेकिन सवाल यह है कि अपने मस्तिष्क में इतनी आस्था भरी कैसे जाए ?

'मैं अकेला नहीं हूँ, ईश्वर मेरे साथ है!' इस दृढ विश्वास को भीतर जन्म दें | दुनिया का कोई डर इस विचार से बड़ा नहीं है | ईश्वर सच में आपके साथ है | इसलिए उसकी उपस्थिति महसूस करने की कोशिश करें | ईश्वर की उपस्थिति आत्म-साक्षात्कार से अनुभव की जा सकती है | पूर्ण सतगुरू से ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके ईश्वर का दर्शन करें | ब्रह्मज्ञान ईश्वर की उपस्थिति का प्रत्यक्ष अहसास कराने में पूर्ण सक्षम है | इस लिए ऐसे पूर्ण संत की खोज करे जो दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे |

अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते हैं |

सभी को श्री गुरू रविदास महाराज जी के प्रकाश उत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं

जल की भीति पवन का थ्मभा रकत बुंद का गारा ॥ 
 हाड मास नाड़ीं को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ॥१॥ 
प्रानी किआ मेरा किआ तेरा ॥ 
जैसे तरवर पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ ॥ 
राखहु कंध उसारहु नीवां ॥  
साढे तीनि हाथ तेरी सीवां ॥२॥ 
बंके बाल पाग सिरि डेरी ॥ 
इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ॥३॥ 
ऊचे मंदर सुंदर नारी ॥ 
राम नाम बिनु बाजी हारी ॥४॥ 
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा ॥ 
तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा ॥५॥६॥ (Gurbani - 659) 


श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं कि जल की दीवार, हवा का खम्बा तथा रकत और वीर्य का गिलावा - इस प्रकार यह हाड़, मांस और नाड़ियों का पिंजरा बना हुआ है जिसमें बेचारी आत्मा रुपी चिड़िया निवास करती है | ऐ जीव! इस संसार में भला क्या हमारा है और क्या तुम्हारा है? जैसे पक्षी रात में किसी वृक्ष  पर बसेरा लेते हैं, उसी तरह हम कुछ समय के लिए इस संसार में इकट्ठा हुए हैं | हम महल बनाने के लिए नीव खोदते हैं और ऊँची-ऊँची दीवार खड़ी करते हैं, पर आखिर साढ़े तीन हाथ ही हमारे शरीर की सीमा है | हम बहुत बन - ठन कर अपने केश सवारते हैं और सिर पर टेडी पाग बाँधते हैं, पर यह शरीर अंत में जल कर राख की ढेर बन जाता है | हम कितने ही ऊँचे महल में क्यों न रहते हों और हमारी स्त्री कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, पर परमात्मा के नाम के बिना हम जिन्दगी की बाजी हार जाते हैं | श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं कि भले ही मेरी जाति-पाति नीची है और मैंने एक छोटे कुल में जन्म लिया है, पर मैंने परम प्रभु परमात्मा की शरणागति प्राप्त कर ली है और इस प्रकार मैंने अपना जीवन सफल कर लिया है | अगर आप भी जीवन का कल्याण करना चाहते हो आप को भी पूर्ण सतगुरू की शरण में जाना होगा जो दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | हमारा प्रकाश उत्सव मनाना तभी सार्थक हो सकता है, अगर हम श्री गुरू रविदास महाराज जी के उपदेश को जीवन में धारण करें |

पूर्ण संत की पहचान

जगमग जोति गगन में झलकै, झीनी राग सुनावै |
मधुर मधुर अनहद धुन बाजै, अमृत की झर लावै |
जगत में बहुत गुरू कनफूका, फाँसी लाय बुझावै |
कहै कबीर सोइ गुरू पूरा, जो कथनी आन मिलावै |

संत कबीर जी कहते हैं कि आंतरिक गगन में ईश्वर की अखंड ज्योति निरन्तर जगमगा रही है | सच्चे नाम की झीनी - झीनी रागिनी श्वांसों में चल रही है | हर पल, हर क्षण भीतर मधुर अनहद नाद ध्वनित हो रहा है | यह लगातार बिना किसी के बजाए, स्वत: बज रहा है | भीतर के गगन मंडल से अमृत-रस निझर झरता रहता है | पर जरा गौर करें अंतिम पंक्तियों पर | इनमें कबीर दास जी बड़े ही पते की बात कहते हैं कि आज समाज में बहुतेरे ऐसे गुरू हैं, जो दीक्षा के समय कान में कोई मन्त्र फूँक देते हैं और इसे ही पूर्ण ज्ञान कहकर जगत को भरमाते हैं | पर पूरा गुरू वही है, जो एक जिज्ञासू को न केवल इन अनुभूतियों के विषय में बताये, बल्कि  इन्हें प्रकट भी कर दिखाए |
कितना स्पष्ट बोला! इस प्रकार, सभी महापुरषों ने अपनी - अपनी शैली में इसी तथ्य को उजागर किया | साफ और खरे शब्दों में बताया कि पूर्ण गुरू वही है, जो भीतर ये दिव्य अनुभूतियों करा दे | वह भी तत्काल! ज्ञान दीक्षा के ही समय !
अब जी, यहाँ पर कुछ गुरूओं के शिष्य तो अंगद के पांव की तरह अड़ जाते हैं | कहते हैं, चलो यह तो हजम होता है कि सदगुरू ईश्वर दर्शन कराते हैं | मगर जाते ही किसी गुरू को कैसे इस कसोटी पर कस लें ? क्यों कि गुरू शरण में जाते ही प्रभु दर्शन थोड़े न हो जाता हैं | सबसे पहले तो हमें उनसे ज्ञान - दीक्षा लेकर नाम की कमाई करनी पड़ेगी | मन की मैल धोनी पड़ेगी | रोगी मन की दवा-दारू करनी होगी | कर्त-कर्त अभ्यास ते, जड़मति  होत सुजान - वाला सूत्र लगाकर खूब साधना अभ्यास करना होगा | अरे भई जम के तपस्या करनी होगी, तपस्या ! तब कहीं जाके तो प्रभु का दीदार होगा | ऐसे ही सीधे दीक्षा के समय थोड़े न... हमारे बाबा जी कहते हैं कि वे एक-न- एक दिन जरूर रब्ब को सामने ला खड़ा करेंगे....|'
बहुत खूब ! क्या तर्क है या यूँ कहे कि अफवाह है | इससे आज की अस्सी प्रतिशत जनता भरमाई हुई है | 'दीक्षा के समय थोड़े न' और 'एक दिन जरूर दर्शन...' - ये दो पंक्तियाँ इतनी भयंकर रूप से ईश्वर इच्छालुओं और बाबाओं के भक्तों में रिकॉर्ड की गयी हैं कि जब उन्हें ऑन करो, यही स्वर निकलते हैं | पर हमें समझ नहीं आता कि यह  'एक दिन' आएगा कब ? 'दीक्षा के समय थोड़े न...'कहकर, क्या हम उन सभी पूर्ण सत्ताओं, महापुरषों,अवतारों, पीरों के खिलाफ बगावत नहीं कर रहे, जिन्होंने ढोल बजा - बजा कर  मुनीदी की थी -
मैं सुखी हूं सुखु पाइआ | गुरि अंतरि सबदु वसाइआ |
सतिगुरि पुरखि विखालिआ (दिखाया ) मसतकि धरि कै हथु जीउ ||
भाव सतगुरू के - नाम दीक्षा के वकत मस्तक पर हाथ धरा | भीतर आदिनाम प्रकट किया | साथ ही परम पुरष को प्रकट कर दिखा दिया | तत्षण ! उसी पल! जी हाँ, दीक्षा के समय ही! जगदगुरू श्री कृषण जी ने अर्जुन से क्या लारे-लप्पे लगाए थे - 'देख धनुधर! हम युद्ध - क्षेत्र में खड़े हैं | इसलिए अब तो मैं तुझे नाम-दीक्षा दे रहा हूँ | परन्तु युद्ध उपरांत तू किसी कुटीर या कंदरा में इसका जम के अभ्यास करना | तब एक दिन तू हमारे परमतत्व रूप को देख पाएगा?' नहीं, प्रत्युत वहीं, जलती समरभूमि पर अपने  शिष्य को विराट स्वरूप, कोटि-कोटि सूर्य, ब्रह्माण्ड -सबका उसी समय दर्शन कराया था | हम हर गवाही से पूर्व जिस गीता की सौगंध  खाते हैं, वह खुद गवाह रूप में कहती है - दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम - हे तात! मैं तुझे दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ | तूं इसी क्षण मेरे योगैश्वर्य को देख!
इस लिए सज्जनों ! चेतो! आपमें भर दी गयी ये दोनों पंक्तियाँ केवल कोरे दावे हैं  | खोखले दिलासे हैं | अगर आप के बाबा जी ने नाम-दीक्षा के समय प्रभु का नूरानी चमकार , अखंड ज्योति आदि अलोकिक दर्शन आपको नहीं कराए, तो सावधान! आगे भी नहीं करा पाएँगे | 'एक दिन' की झूठी आस में कहीं समय का चक्का ज्यादा आगे न दोड़ जाए | यह अफ़सोस तिल तिल करके न जलाए -
खेलना जब उनको तूफानों से आता ही न था ,
फिर वो कश्ती के हमारे नाखुदा क्यों बन गए |
 और जो बंधू अभी गुरू धारण करने का विचार कर रहे हैं, वे अब एक पल न गवाएँ | मेरी मानिए, आज ही 'सच्ची कसोटी' की सिल उठाएं | गुरू दरबारों या डेरों पर घिस कर देखें | जो खरा निकले, उसे गुरु धारण कर लें | उसके चरणों में जन्म-जन्मांतरों तक न छोड़ने की कसम खा लें |
 अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते हैं |

जो दिन आवहि सो दिन जाही ॥

जो दिन आवहि सो दिन जाही ॥करना कूचु रहनु थिरु नाही ॥
संगु चलत है हम भी चलना ॥ दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना ॥१॥ 
किआ तू सोइआ जागु इआना ॥तै जीवनु जगि सचु करि जाना ॥१॥ रहाउ ॥ 
जिनि जीउ दीआ सु रिजकु अम्बरावै ॥ सभ घट भीतरि हाटु चलावै ॥ 
करि बंदिगी छाडि मै मेरा ॥ हिरदै नामु सम्हारि सवेरा ॥२॥  
जनमु सिरानो पंथु न सवारा ॥ सांझ परी दह दिस अंधिआरा ॥ 
कहि रविदास निदानि दिवाने ॥ चेतसि नाही दुनीआ फन खाने ॥३॥२॥ (Gurbani - 793)


श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं कि जो दिन आते हैं,वे बीत जाते हैं | इस संसार से सबको एक दिन कूच करना है | कोई भी यहाँ स्थिरता से (हमेशा के लिए ) रहने नहीं आता | हमारे साथी चले जा रहे हैं और हमें भी चलना ही है | हमारी परमार्थी यात्रा बहुत दूर की है और सिर पर मौत मंडरा रही है | ऐसी हालत में, रे मूर्ख! तू सोया क्यों पड़ा है ? जाग | क्या तूने इस जीवन और जगत को सत्य समझ रखा है ? (हम छल कपट और चतुराई से अधिक से अधिक पैसा जमा करने में ही दिन रात लगे रहते हैं ) जिस परमात्मा ने तुझे जीवन दिया है, वह तेरी जीविका का भी प्रबन्ध करता है | घट - घट में बैठा परमात्मा मानो हमारी सभी आवश्यक सामग्रियों का बाजार खोले हुए है | उस परमात्मा की भक्ति कर तथा "यह मैं हूँ, यह मेरा है" - इस प्रकार के अभिमान को छोड़ | जल्दी से जल्दी परमात्मा की शरण ले | तेरा जीवन बीत चला और अभी तक तू परमात्मा की राह पर नहीं आया ? जीवन की संध्या के आते ही दसों दिशाएँ अंधकारमय हो जायेंगी | श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं : ए पगले! यह दुनिया आखिर विनष्ट हो जाने वाली है | तू चेतता क्यों नहीं ?

 ऊचे मंदर साल रसोई ॥ एक घरी फुनि रहनु न होई ॥१॥ 
इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी ॥ जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी ॥१॥ रहाउ ॥  
भाई बंध कुट्मब सहेरा ॥ ओइ भी लागे काढु सवेरा ॥२॥ 
 घर की नारि उरहि तन लागी ॥उह तउ भूतु भूतु करि भागी ॥३॥
कहि रविदास सभै जगु लूटिआ ॥ हम तउ एक रामु कहि छूटिआ ॥४॥३॥ (Gurbani - 794)

भले ही हमारा महल ऊँचा हो और रसोई घर आलीशान हो, पर मौत हमें इनमें एक पल भी अधिक टिकने नहीं देती | यह शरीर घास की टट्टी जैसा है और घास जैसा ही यह जल कर मिट्टी में मिल जाता है | भाई - बन्धु तथा सगे - सम्बन्धी शरीर का अंत होते ही इसे जल्दी से जल्दी बाहर निकालने में लग जातें हैं | यहाँ तक कि स्त्री जो इसको जीवित समय इतना प्रेम करती है, वह भी इस मुर्दे शरीर को देख 'भूत - भूत कह कर भागती है | श्री गुरू रविदास जी कहते हैं : काल ने इस संसार को लूटा है, पर मैं परमात्मा का सुमिरन करके इस काल के चंगुल से बच गया हूँ |
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करें, जो दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है | तभी हमारा मानव जीवन सार्थक हो सकता है |

बाणी बिरलउ बीचारसी जे को गुरमुखि होइ ॥

बाणी बिरलउ बीचारसी जे को गुरमुखि होइ ॥
इह बाणी महा पुरख की निज घरि वासा होइ ॥४०॥ (Gurbani - 935)

श्री गुरू नानक देव जी कहते हैं कि बाणी को कोई विरला ही समझ सकेगा | वह विरला वही होगा, जो पूर्ण गुरू की शरण प्राप्त करेगा | कहने का भाव कि शास्त्र -ग्रंथों को समझने के लिए हमें एक पूर्ण सदगुरू की आवश्कयता है | धार्मिक शास्त्रों से जो हम लाभ नहीं उठा पाते, उसका मुख्य कारण है हम उनमें निहित शिक्षाओं को धारण नहीं करते | केवल पाठ करने तक, रट्टू तोते की तरह रटने तक सिमित रह जाते हैं | शास्त्र पढ़ लेने मात्र से कोई विद्वान नहीं बन सकता | विद्वान केवल वही है, जिसने शास्त्र के अनुसार कर्म भी किया हो और उसे व्यवहार में भी लाया
हो | केवल ओषिध का नाम लेने मात्र से ही रोग का दूर हो जाना संभव नहीं, जब तक कि ओषिध खाई न जाए | अन्यत्र कहा गया -
चार अठारह नौ पढ़े षट पढ़ खोया मूल |
सूरत शब्द चीन्हे बिना ज्यों पंछी चन्डूल ||

चारों वेद, अठारह पुराण, नौ  व्याकरण, छ: शास्त्र भी पढ़ लिए, लेकिन यदि उनके मूल को खो दिया यानी सच्चे शब्द को नहीं जाना, उस परम सत्य का साक्षात्कार नहीं किया, तो स्थिति केवल चन्डूल पक्षी की तरह ही है | चन्डूल पक्षी जिस पक्षी की आवाज को सुनता है, वही बोलने लग जाता है | इस प्रकार उसकी स्वयं की कोई भी आवाज नहीं रहती | ऐसी ही स्थिति उन मनुष्यों की है, जो शास्त्रों को केवल पढने तक सिमित हैं | बिना मर्म को धारण किए केवल रटने से भी अपने अस्तित्व को खो बैठते हैं | अपनी वास्तविक पहचान, अपनी आत्मा से कोसों दूर हो जाते हैं | इस लिए विवेकी पुरषों ने यही कहा - पढ़िए नाही भेद बुझीए पावना - केवल पढने तक सिमित नहीं रहना, वर्ण उस प्रभु का बोध कर अर्थात उसका साक्षात्कार कर उसे प्राप्त भी करना है | ईश्वर का यह बोध, ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन केवल और केवल पूर्ण गुरू ही करा सकते हैं | हरि निरमलु अति ऊजला बिनु गुर पाइआ न जाए - निर्मल, उज्जवल अर्थात प्रकाशवान प्रभू की प्राप्ति गुरू के बिना संभव नहीं |
अंत में यही कहूँगा कि शास्त्र-ग्रंथों को अवश्य पढ़िए | पर पढने तक सिमित न रहें | उनमें जो पूर्ण गुरू की कसोटी दी गई है, उसके के आधार पर सदगुरू की खोज करें | पूर्ण गुरू से भेंट होने पर उनसे ब्रह्मज्ञान की दीक्षा लें और अपने अंत:करण में ईश्वर का दर्शन करें | फिर साधना के पथ पर चलकर प्रभु को प्राप्त कर जीवन का कल्याण करें | सारत: शास्त्रों की शिक्षा की सार्थकता गुरू की दीक्षा मिलने पर ही होती है |

Tuesday, February 8, 2011

ब्रह्मज्ञान से परिवर्तन


'मानव में क्रांति' और 'विश्व में शांति' केवल 'ब्रह्मज्ञान' द्वारा संभव है |

 अन्तरात्मा हर व्यक्ति की पवित्र होती है, दिव्य होती है | यहाँ तक कि दुष्ट से दुष्ट मनुष्य की भी | आवश्यकता केवल इस बात की है कि उसके विकार ग्रस्त मन का परिचय उसके सच्चे, विशुद्ध आत्मस्वरूप  से कराया जाये |
यह परिचय बाहरी साधनों से सम्भव नहीं है | केवल 'ब्रह्मज्ञान' की प्रदीप्त  अग्नि ही व्यक्ति के हर पहलू को प्रकाशित कर सकती है | यही नहीं, आदमी के नीचे गिरने की प्रवृति को 'ब्रह्मज्ञान' की सहायता से उर्ध्वोमुखी या ऊँचे उठने की दिशा में मोड़ा जा सकता है | इससे वह एक योग्य व्यक्ति और सच्चा नागरिक बन सकता है |
             'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करने के बाद साधना करने से आपकी सांसारिक जिम्मेदारियां दिव्य कर्मों में बदल जाती हैं | आपके व्यक्तत्व का अंधकारमय पक्ष दूर होने लगता  है | विचारों में सकारात्मक परिवर्तन आने लगता है और नकारात्मक प्रविर्तियाँ दूर होती जाती हैं | अच्छे और सकारात्मक गुणों का प्रभाव आपके अन्दर बढने लगता है | वासनाओं,भ्रतियों और नकारात्मकताओं में उलझा मन आत्मा में स्थित होने लगता है | वह अपने उन्नत स्वभाव यानि समत्व, संतुलन और शांति की दिशा में उत्तरोत्तर बढता जाता है | यही 'ब्रह्मज्ञान' की सुधारवादी प्रक्रिया है |
           अगर हम जीवन का यह वास्तविक तत्व यही 'ब्रह्मज्ञान' प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें सच्चे सदगुरू की शरण में जाना होगा | वे आपके 'दिव्यनेत्र' को खोल कर, आप को ब्रह्मधाम तक ले जा सकते हैं, जहाँ मुक्ति और आनन्द का साम्राज्य है | सच्चा सुख हमारे अन्दर ही विराजमान है, लेकिन उसका अनुभव हमें केवल एक युकित द्वारा ही हो सकता है, जो पूर्ण गुरू की कृपा से ही प्राप्त होती है | इस लिए ऐसा कहना अतिशयोकित न होगा कि सदगुरू संसार और शाश्वत के बीच सेतु का काम करते हैं | वे क्षनभंगुरता से स्थायित्व की ओर ले जाते हैं | हमें चाहिए कि हम उनकी कृपा का लाभ उठाकर जीवन सफल बना लें |
मानव समाज की दम तोड़ती मानवता को यदि कोई बचा सकता है तो वह है 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान'

बुद्धिजीवी थे...फिर भी गुरू का द्वार खटखटाया !



क्या आप ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं ?' - नरेंद्र ने मन  में उठ रहे असंख विचारों को एक सारयुक्त प्रशन के रूप में रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा |
परमहंस - हाँ ! विश्वास करता हूँ |
नरेंद्र - क्या प्रमाण है ईश्वर के असितत्व  का ?
परमहंस - प्रमाण ! सबसे बड़ा प्रमाण केवल यही है नरेंद्र कि मैंने उसे देखा है | अपने इतने करीब कि इस समय तू भी मेरे इतना नजदीक नहीं खड़ा है | मैं उसे देखता हूँ, उससे बात करता हूँ...
            नरेंद्र अवाक् रह गया | देखता हूँ ! बात करता हूँ ! कितनी सरलता से रामकृष्ण परमहंस जी कह रहे हैं | क्या यह सत्य है?
परमहंस - नरेंद्र! ईश्वर को देखना ही उसके असितत्व का प्रमाण है | मैना देखा है, मैं तुम्हें भी दिखा सकता हूँ | बोलो, क्या तुम देखना चाहते हो?... बोलो, क्या तुम देखोगे?
      'बोलो,क्या तुम देखोगे?' - कितना स्पष्ट आह्वान था, ईश्वर से मिलने का! इतना आसान, इतना सरल... नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण परमहंस जी के चरणों में सिर झुका दिया | सारी दौङ ख़त्म हो गई, सभी संशयों  का निवारण हुआ, जब रामकृष्ण परमहंस जी ने नरेंद्र को ब्रह्मज्ञान प्रदान किया | नरेंद्र ने दिव्य दृष्टि से अपने भीतर ही ईश्वर के दर्शन किये | परमहंस जी ने देखा था, उसे भी दिखा दिया |
तब कहीं जाकर नरेंद्र ने ईश्वर के असितत्व को स्वीकारा! और ऐसा स्वीकारा कि अपना सम्पूर्ण जीवन उसी के नाम कर दिया | गुरू प्रसाद से स्वामी विवेकानंद बनकर विशव के विराट प्रांगन  में प्रभु के नाम का डंका बजा दिया |
आज भी प्रभु का दर्शन संभव है, बस जरूरत है एक पूर्ण संत की जो हमें दीक्षा के समय दर्शन करवा दे | आप ऐसे संत की खोज करें |
 अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते
 हैं |

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब


काल करै सो आज कर, आज  करै सो अब |
पल में परलय होयगी, बुहिर करेगा कब ||

संत कबीर जी कहते है कि हे मानव ! जो कल करना है उस कार्य को आज करो और जो आज करना है उसे अभी (तुरंत ) कर लो | पल में मृत्यु रुपी प्रलय आ सकती है, कब मृत्यु के मुख में चले जाओगे कोई निशचित नहीं है, फिर कब करोगे अर्थात विचार करते करते समय बीत जायेगा और तुम सोचते ही रह जाओगे | अत: प्रभु नाम सुमिरन के लिए आज और कल का समय निर्धारित न करके अभी से आरम्भ कर दो |
पर आज के मनुष्य की क्या सोच है ?
आज करै सो कल कर, कल करै सो परसों |
इतनी भी क्या जल्दी है, जब उम्र पड़ी है बरसों |
अभी बहुत जीवन पड़ा है प्रभु के सुमिरन को, कर लेंगे इतनी भी क्या जल्दी है |
खाओ पीओ करो आनंद किसने देखा परमानन्द |
अभी तो मोज मस्ती करने के दिन है | जो मन करता है खाओ, ऐश करो, जीवन का आनंद लो | पर जिस को इन्सान ऐश कहता है, वो ऐश नहीं है | ऐश इंग्लिश का शब्द है जिस का अर्थ होता है राख | मनुष्य सोचता है कि बचपन खेलने के लिए मिला है,जवानी में और बहुत से काम है, वृद्ध अवस्था में जाकर प्रभु की बंदगी की जाएगी | पर इस बात की क्या गारंटी है कि आज बचपन है, कल को जवानी आएगी और आज अगर जवानी है तो कल को बुढ़ापा आएगा | बुढ़ापे जाकर इन्सान चाहते हुआ भी कुछ नहीं कर सकता | उस का शारीर भी काम नहीं नहीं करता | फिर रोता है पछताता है | फिर रोने का क्या फायदा | जो प्रभु भक्ति का जवानी का समय था, वो तो उस ने विषय विकारों में गवा   दिया | इस लिए समय रहते एक पूर्ण संत की खोज कर लो,जो प्रभु का उसी समय दर्शन करवा दे,उस के बाद ही भक्ति की शुरूआत होगी |
अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते 
हैं |

Sunday, January 30, 2011

गुरू वही, जो प्रभु का दर्शन करा दे !


संत कबीर जी पेड़ों की झुरमट तले बैठे थे | उनके पास की एक शाखा पर एक पिंजरा टंगा था, जिस में एक मैना पुदक रही थी | बड़ी अनूठी थी, वह मैना | खूब गिटरपिटर मनुष्यों की सी बोली बोल रही थी | कबीर जी भी उससे बातें लड़ा रहे थे | दोनों हँस मैना से कुछ ऊपर पत्तों में छिपकर बैठ गए | 
    इतने में, नगर सेठ अपनी पत्नी के साथ कबीर जी के क़दमों में हाज़िर हुआ | मन की भावना रखी - 'महाराज, मेरे सिर के बाल पक चले हैं | घर-गृहस्थी के दायित्व भी पूरे हो गए हैं | सोच रहा हूँ, हमारी सनातन परम्परा के चार आश्रमों में से तीसरी पौड़ी 'वानप्रस्थ' की और बढ चलूँ | एकांत में सुमिरन-भजन करूँ |'
         कबीर, बिना किसी लाग-लपेट के, एकदम खरा बोले- 'सेठ जी,यूँ वन में इत-उत डोलने से हरि नहीं मिलता!'
सेठ -फिर कैसे मिलता है,हरि ? आप बता दें महाराज |
        कबीर फिर मैना से बतियाने लगे - 'मैना रानी, बोल - राम...राम... !' मैना ने दोहराया - 'राम...राम |' कबीर उससे ढेरों बातें करने लगे | सेठ-सेठानी को इतना साफ बोलते देखकर खुश हो रहे थे... कि तभी कबीर उनकी और मुड़े और बोले-'जानते हो सेठ जी, मैना को मनुष्यी बोली कैसे सिखाई जाती है? आप उसके सामने खड़े होकर उसे कुछ बोलना सिखाओगे, तो वह कभी नहीं सीखेगी | इसलिए मैंने एक दर्पण लिया और उसकी आड़ में छिपकर बैठ गया | दर्पण के सामने पिंजरा था | मैं दर्पण के पीछे से बोला - 'राम!राम!' मैना ने दर्पण के में अपनी छवि देखी | उसे लगा उसका कोई भाई-बंधु कह रहा है- 'राम!राम!' इसलिए वह भी झट सीख़ और समझ गई | इसी तरह दर्पण की आड़ में मैंने उसे पूरी मनुष्यी बोली सिखाई | और अब देखो, यह कितना फटाफट बोलती है...!'
                 इतना कहकर कबीर ताली बजाकर हँस दिए | फिर इसी मौज मैं, सेठ-सेठानी से सहजता से बोल गए - 'ऐसे ही सेठ जी भगवान कैसे मिलता है, यह तो खुद भगवान ही बता सकता है | लेकिन अगर वह यूँ ही सीधा बताएगा, तो तुम्हारी बुद्धि को समझ नहीं पड़ेगी | इस लिए वह मानव चोले की आड़ में आता है और ब्रह्मज्ञान का सबक सिखाता है - ब्रह्म बोले काया के ओले | काया बिन ब्रह्म कैसे बोले || वह मानव बनकर आता है, मानव को अपनी बात समझाने | उस महामानव को, मनुष्य देह में अवतरित ब्रह्म को ही हम 'सतगुरू' सच्चा गुरु या साधू' कहते हैं |
निराकार की आरसी,साधों ही की देहि |
लखा जो चाहै अलख को, इनही में लखि लेहि ||
  
 अर्थात सदगुरू की साकार देह निराकार ब्रह्म का दर्पण है | वो अलख (न दिखाई देने वाला ) प्रभु सच्चे गुरू की देह में प्रत्यक्ष हो आता है |
इस लिए सेठ जी, अगर भगवान को पाना है, तो 'वानप्रस्थ' नहीं, 'गुरूप्रस्थ' बनो | सदगुरू के देस चलो चलो -
चलु कबीर वा देस में, जहँ बैदा सतगुरू होय ||
  
सेठ - सोलह आने सच बात, महाराज | मगर एक दुविधा है | दास जानना चाहता है कि मनुष्य चोले में तो कई पाखंडी स्वयं को 'गुरू' कहलाते घूमते हैं | फिर हम ज्ञानीजन कैसे पहचाने कि  इस काया में साकार ब्रह्म है या कोई ढोंगी है ?
        कबीर ने प्रशंसा भरी दृष्टि से सेठ जी को देखा - 'उत्तम प्रशन किया है आपने | जब तक देखूं न अपनी नैनी, तब तक पतीजूं न गुरू की वैणी - सोच-समझ कर, देखभाल कर ही किसी को सदगुरु दर्जा देना चाहिए | भई, मैं अपनी राय कहूँ, तो -
               साधो सो सतगुरू मोहिं  भावै |
सत नाम नाम का भरि भरि प्याला, आप पिवै मोहिं प्यावै ||
  
मुझे तो ऐसा सदगुरु भाता है,जो प्रभु के अव्यक्त आदिनाम का अमृत मुझे पिला दे |
परदा दूरि करै आँखिन का, निज दरसन दिखलावै |
जा के दरसन साहिब दरसै, अनहद सबद सुनावै |

 जो प्रभु की सिर्फ मीठी-मीठी बातों में न बहलाए | बल्कि मेरी आँख पर से अज्ञानता का पर्दा हटा दे, मेरा शिव - नेत्र (दिव्य दृष्टि ) खोल दे और साहिब का साक्षात् दीदार करा दे और मेरे मेरे अंतर्जगत में अनहद बाणी गूँज उठे... वही पूरा तत्वदर्शी गुरू है | वही सत्पुरश है |'
उधर सेठ-सेठानी और इधर हंस मनमुखा गदगद हो चुके थे | दोनों हंसों को 'गुरू क्यों? और गुरू कैसा?'- इन दो सीखों के बेशकीमती मोती मिल चुके थे | वे उन्हें अपनी चोंच से चुग कर, 'संतों के देस' से वापिस लोट रहे थे |
           प्रिय पाठकों! आपके अंदर ही ये दोनों हंस रहते हैं - आपका मन (मनमुखा ) और आपकी आत्मा (आत्माराम) | आपका हंस आत्माराम परमात्मा के दर्शन के लिए व्याकुल है| पर हंस मनमुखा उसका साथ देने को तैयार नहीं होता | माने वह किसी सदगुरु, तत्वदर्शी सत्पुरश से ज्ञान-दीक्षा लेने के लिए राजी नहीं होता | पर अब  तो आपके दोनों हंसों ने 'संतों के देस' की सैर कर ली है और सत्संग के मोती भी पा लिए है | तो क्या अब आपका 'मनमुखा' माना ?
          यदि अब  भी नहीं माना, तो उसे बारम्बार संस्थान के सत्संग पंडालों में लाना न भूलें, ताकि वह संतों की और वाणियाँ सुन पाए और यदि वह मान गया, तो फिर विलम्ब न कीजिए | 'ब्रह्मज्ञान' की दीक्षा पाकर 'सुख' से आनंद की ओर बढ जाइए |
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करे जो दीक्षा के समय ही परमात्मा क दर्शन करवा दे | अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते
 हैं |