Sunday, September 11, 2011

उठो! जागो! कुछ कर दिखाओ! फिर यह अवसर मिले न मिले!

रुक! जरा ठहर तो! किधर जा रहा है? सेवा के लिए ही न?...अच्छा, फिर दो पल बैठ | मैं तेरा ही जमीर हूँ | आज तुझसे कुछ बातें सांझी करना चाहता हूँ | तुझे झकझोर कर जगाना चाहता हूँ | तू मेरी आवाज को अनसुना मत करना | अपनी दलीलों के शोर से मुझे मत दबाना | मैं जो पूछूं या कहूँ उस पर सोचना, गोर करना |
गुरु सेवा - कितनी सहजता से ये शब्द बोल उठता है तू! पर कभी इनकी गहराई, इनकी महिमा जानी है? सेवादारी क्या होती है? सेवक किसे कहते हैं ? उसका शिंगार क्या है ? कुछ खबर है इन सबकी ? शायद नहीं! तभी तुम बड़े आराम से! 7:00 वजे की सेवा के लिए 7:30 वजे घर से जा रहा है | वह भी बड़े आराम से! कहीं दिल में खींच नहीं | क़दमों में रफ़्तार नहीं! कोई बेसबरी या जल्दी नहीं!
एक वे थे सेवक हनुमान, जो अपने स्वामी राम जी का काज संवारने हेतु आतुर रहते थे | आतुर! बड़ा मार्मिक है यह लफ्ज! एक होता है, सेवा के लिए तैयार रहना | दूसरा होता है, आतुर रहना | जो सेवक तैयार रहता है, वह इंतजार करता है| सेवा हाथ में आती है, तो उसे अंजाम देता
है | पर जो सेवक आतुर है, वह इंतजार करना नहीं जनता | सेवा के बगैर छटपटा उठता है | इसलिए यहाँ सेवा होती है, वहां स्वयं पहुंच जाता है | लपक के उसे लूट ता है| ठीक जैसे एक भूखा व्यक्ति | सेवा के लिए ऐसी भूख होती है एक सेवादार में! सच बता, क्या तुझमें है? नहीं न! तुझे तो गुरुघर से बुलावे भेजने पड़ते हैं | तब  कहीं जाकर तेरे कदम उठते हैं...और कई बार तो तेरी सुग्रीव जैसी हालत होती है | बढ - चढ़ कर सेवा करने के दावे तो कर आता है | पर फिर दुनिया में मस्त होकर उन्हें बिसर बैठता है | गफलत की नींद सो जाता है | टेलीफ़ोन की जोरदार घंटियाँ  से तुझे जगाना पड़ता है | क्यों? क्यों है तेरी आँखों में ऐसी गाढ़ी नींद, जो टूटटी ही नहीं? कहते हैं, लाकश्मन  बनवास के 14 वर्षों तक ऐसी कच्ची नींद सोया था, की यदि उसके स्वामी राम के पास एक पत्ता भी हिलता, तो वह जाग उठता था | यह होती है एक सेवक की जागरूकता! सेवा के प्रति उस की सजगता !
तुझे याद है गुरु महाराज जी के वचन - गुरु सभी को श्रेष्ठ सेवा सोंपता है, पर प्रसन्न  उन्ही से होता है, जो उसे पूर्ण करते हैं | अरे, गुरू सिर्फ हमारे सिर  झुकाने से खुश  नहीं होता | ठीक है, भावनाओं की अपनी कीमत है | उन्हें भी गुरु-चरणों में समर्पित करना है | पर खाली मत्था रगड़ने से काम नहीं चलेगा | गुरु का सच्चा सपूत है, तो तन मन को सेवा में झोंक कर दिखा | वह भी पूरी लगन से, निष्ठां से, डूब के! जिस मिशन रुपी गोवर्धन को गुरु महाराज जी ने उठाया हुआ है, तू उसमें अपने सहयोग की छड़ी लगाकर दिखा | ऐसे नहीं की ढीले- ढाले होकर...लापरवाही से...जितना हो गया, सेवा पूजा है! एक पवित्र आरती है | गुरु चरणों में समर्पित परम वंदना है | तेरी भावनाओं को परखने की सच्ची कसोटी है....इस लिए सेवा को पूरी ईमानदारी और जिम्मेवारी  से निभाया कर |
मैं तेरा जमीर हूँ | इसलिए मुझसे कुछ नहीं छिपा| मैं तेरी अंतर्तम भावनाओं को जानता हूँ | ये भावनाएं भीतर क्यों उठती हैं ? उनकी जड़ क्या है? यही की तू अपने आप को कर्ता मानकर सेवा करता है | सोचता है, सेवा करने वाला तू है | इस लिए गिरता उड़ता है | अर्जुन का भी यही हाल था | सीना तान कर, गांडीव - शंडीव  धारण कर  कुरुक्षेत्र  में उतर आया | पर ज्यों ही चोनौतिपूर्ण नजारा देखा, कंधे लटक गई | होसलें पस्त हो गए | उत्साह धराशाही होकर गिर पड़ा | वह कह उठा - 'प्रभु मैं यह सेवा नहीं कर सकता | मैं इस कार्य के योग्य नहीं | ऐसे में प्रभु ने क्या किया ? उसे अपना विराट स्वरूप  दिखाया | उसमें सभी विपक्षी योद्धगन चुर्नित होते दिखाए | स्पष्ट किया - तू सेवा करने वाला है ही नहीं | देख इन्हें तो मैं पहले ही यमपुरी पहुंचा चूका हूँ | तुझे तो इस सेवा का निमित्त मात्र बनाया है | इसलिए बस जैसा कह रहा हूँ, करता जा | एक सेवादार का यही धरम है कि जो मालिक ने कहा, पूरी भावना से  वह करता जाए | सेवा होगी या नहीं और अगर हो गयी , तो क्यों हुए - ये सब सोचकर मन भारी करने का क्या मतलब | कर्ता पुरष  तो गुरु हैं | हो सकता है, उन्हें  यही मंजूर हो |

वे ब्रह्माण्ड के सूर्ये हैं | सकल विश्व को अकेले ही रोशन कर सकते हैं | पर दया कर, परम क्रपालु  होकर, तुझ जैसे जुगनुओं को चमकने का मोका दे रहे हैं | सितारों को टिमटमाने  का अवसर दे रहे हैं | तुझे यह मोका हरगिज नहीं चूकना है | अपनी सारी ताकत, सारी भावनाएं बटोरकर सेवा व्रत निभाना है | जिगर में सेवा भाव की ज्वाला जलानी है, जिस में जलकर तेरे  सारे नीच और बाधक विचार राख हो जाएँ | ताकि तू दमक उठे | तेरे सिर  पर गुरु के लिए कुछ कर गुजरने का जनून हो | तेरे विचारों के ताने बाने में, दिल के हर अफसाने में एक ही भाव गूंथा हो - सेवा!सेवा!सेवा ! तेरे कर्म का, धर्म का, ईमान का, सारे जीवन का एक ही सार हो - सेवा! सेवा!सेवा! तू सेवा करते - करते सेवारूप  हो जाए | तभी सच्चा सेवक कहलाएगा, मेरे मीत! तू सच्चा सेवक कहलाएगा! इस लिए हम सब ने ऐसे सेवक बनना है और गुरू महाराज जी के उमीदों को पूर्ण करना है | फिर वह दिन दूर नहीं जब हम सब विश्व शांति का लक्ष्य साकार होते हुए देखेगे |

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