Sunday, September 11, 2011

प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्कयता नहीं होती!

बहुत सारे व्यक्तों  के मन में यह सवाल अक्सर होता है कि संत - महापुरष अपने प्रवचनों में अक्सर हर बात सिद्ध करने के लिए शास्त्र - ग्रंथों का सहारा लेते हैं | पर इस बात का ही क्या प्रमाण है कि ग्रंथों में जो लिखा है, वह पूरी पूर्णत: सत्य है?

उत्तर :  महापुरषों ने कब कहा कि आप ग्रंथों की वाणियों को आँख मूँदकर मान लीजिए | इन ग्रंथों को ऐसे पढ़ें, जैसे chemistry (रसायन शास्त्र ) पढ़ते हैं | रसायन शास्त्र का विधार्थी सर्वप्रथम एक समीकरण को अपनी पुस्तक में पढता है | फिर प्रयोगशाला में जाकर प्रयोगात्मक  (practical) ढंग से उसका परीक्षण (experiment) करता है | जैसे उसने पढ़ा - 2H2 + O2 = 2H2O.

अब वह इस समीकरण के आधार पर प्रयोगशाला (laboratory) में हाड्रोजन और आक्सीजन, दोनों गैसों को सही मात्र  में मिलाएगा | फिर उसमें से विधुत गुजारेगा | यदि पानी बनकर सामने आ गया, तो समीकरण की सत्यता स्वत: ही प्रमाणित हो जाएगी |
धार्मिक ग्रंथों के सन्दर्भ में भी हमें यही पद्धित अपनानी है | सबसे पहले उनमें लिखित अध्यात्मिक तथ्यों को ध्यान से पढ़ें | फिर उन पर प्रयोगात्मक परीक्षण करें | यदि ग्रंथों में लिखा है कि गुरु कृपा से अंतहिर्दय  में परमात्मा का दर्शन होता है, तो बढ़ें आगे और पूर्ण गुरु की खोज करें | उनसे ज्ञान दीक्षा ग्रहण कर स्वयं अपने भीतर प्रभु का दर्शन करें |
नि: सन्देह, ये ग्रन्थ  कपोल कल्पनाओं का आधार पर नहीं लिखे गए | ये ब्रह्मज्ञानी ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं | ऋषि का अर्थ ही होता है - 'द्रष्टा' अर्थात देखने वाला | ग्रंथों को लेखनीबद्ध करने से पहले उन्होंने सभी तथ्यों को अपने जीवन में प्रयोगात्मक रूप से अनुभव किया था | इसलिए इनमें दर्ज एक - एक तथ्य प्रयोगात्मक कसौटी पर कसा जा सकता है | आप इन सभी को अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं और प्रत्यक्ष को अन्य किसी प्रमाण की आवश्कयता ही नहीं होती !
आज भी परमात्मा का दर्शन संभव है, जरूरत है एक केवल पूर्ण सतगुरु की, जो हमारी दिव्य चक्षु को खोल के परमात्मा के प्रकाश स्वरूप का दर्शन उसी समय करवा दे. आप खोज करो, अगर कहीं भी आप को ऐसे पूर्ण संत नहीं मिले, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप का हार्दिक स्वागत करता है | संस्थान के पूरे विश्व में आश्रम हैं, आप वहाँ पे संपर्क कर सकते हो | For more detail visit at www.djjs.org

No comments:

Post a Comment