Sunday, September 11, 2011

सेवादार

सेवादार तो एक ईट है,
जिसे सेवा की भट्टी में डालकर निखारता है सतगुरु |
खुद का और अपनों का आईना दिखाता है सतगुरु |
सेवादार बनता है समर्पण से,
समर्पण होता है प्रेम से,
प्रेम उत्पन्न होता है, सच्चे भावों से,
सच्चे भाव मिलते हैं श्रद्धा से,
श्रद्धा  मिलती है भगवान से,
और भगवान मिलते हैं सच्चे गुरुओं से |
इसलिए मर भूल, सेवा देता और कराता है सतगुरु |

न कर सेवा तू किसी मतलब से,
कर सेवा तू निस्वार्थ भावना से |
सेवा तो एक अग्नि - कुंड जिसमें,
डालनी है आहुति हमें अपने स्वार्थी विचारों की |
लाज रखनी है हमें इस सफ़ेद चोले की,
जो दिया है गुरु ने हमें किसी आस से |
न देख अवगुण दूसरों के,
जरा सर झुकाकर  देख अपने अंतर में |
न खुद से अधिक अवगुणी किसी को पाएगा |
कुछ लाभ नहीं ऐसी सेवा से,
गर हुई कोई रूह खफा हमसे,
करना है गर अपने सतगुरु को खुश,
तो रख ध्यान हमेशा लगे न ठेस किसी के दिल को,
क्योंकि हर दिल में तो वही वसता है |
गर देखोगे हर दिल में तो उसको ही पाओगे |

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