Sunday, September 11, 2011

सेवा - कर्त्तव्य है, मजदूरी नहीं

" जिस मिशन का ध्येय - विश्व शांति हो, वो अकेले गुरु महाराज जी का निजी दायित्व कैसे हो सकता है?....जिस अभियान ने सम्पूर्ण मानवता के दर्द को मिटाने का बीड़ा उठाया हो - क्या उसे एकमेव महाराज जी का मिशन कहना सही होगा?" - ग्रंथों में गुरु के  मिशन में हाथ बटाने अर्थात सेवा की आपर महिमा गाई है | किसी ने कहा, गुरु - सेवा एक कल्पवृक्ष है | किसी ने उसे बैकुंठ धाम का द्वार बताया | रामचरितमानस ने तो इसे भक्ति स्वरूप ही कह डाला, जो महाकल्याणकारी है | किसी ने तो इसे मुक्ति की युक्ति कहा |
जब एक पिता कोई कार्य या व्यापर करता है, तो क्या उसे अपने बेटों को मदद के लिए आह्वान करने की जरूरत पड़ती है? यदि सुपूत है, तो स्वयं ही बाप के कंधे से कंधा मिलाकर साथ आ खड़ा होता है | जितनी भी अपनी समझ है, सामर्थ्य है - बिन कहे ही उनके व्यापार में झोंक देता है | उसकी नजर अपने निजी स्वार्थ पर नहीं होती | पिता के लक्ष्य की सफलता ही उसका स्वार्थ होता है | उसकी समृद्धि ही उसका एकमेव वेतन या पारिशमिक ! गौर करो साधक! गुरु को तो हम अपनी माता, पिता,बल्कि सर्वस्व मानते हैं - गुरु ही मात - पिता अरु बीर | फिर उनके द्वारा संचालित मिशन में, जिसमें उनका भी तिल भर स्वार्थ नहीं, साथ खड़े होने के लिए हमें क्यों आह्वान या प्रेरणाओं की जरूरत पड़ती है? क्या हम सांसारिक सुपूतों से भी गए गुजरे हैं? या फिर हमने उन्हें अभी अपने सांसारिक पिता से ऊँचा दर्जा ही नहीं दिया? अरे भाई, इस विश्व कल्याणकारी मिशन में उनके साथ खड़े होना महज एक सद्कर्म नहीं है | हमारा कर्त्ताब्य है | हमारी ड्यूटी है | ऐसा करके हम कोई अहसास नहीं करेंगे - न उन पर, न खुद पर! यह तो हमारा धर्म है | एक बेटे का धर्म | उनका मिशन, हमारा मिशन है! हम सबके जीवन का मिशन है!
इसलिए क्यों चाहिए हमें पुण्यों की सौगातें| क्यों चाहिए कोई आश्वासन या मुक्ति का सिहासन! गुरु महाराज जी का मिशन - बाण अपने अंतिम लक्ष्य को भेदे और हम उसमें अपने को यथासामर्थ्य आर्पित कर सकें - क्या यही हमारे लिए काफी नहीं? क्या यही हमारा परम सौभाग्य नहीं? महाराज जी के मुख पर संतुष्टि या प्रसन्नता  की प्यारी मुस्कान विखर जाए - क्या यही हमारा वेतन नहीं? क्या इसी में मेरी, तुम्हारी, सम्पूर्ण विश्व की मुक्ति नहीं? नहीं तो, क्यों हम ऊँची आवाज में जयकारा लगते हैं - श्री सदगुरु महाराज की जय हो? 'जय' माने 'विजय' हो ! क्योंकि हम जानते हैं की उनकी जय में, उनके मिशन की विजय में ही, हमारी विजय है! मानव समाज की विजय है! मानवता की विजय है! 
इसलिए साधक बंधू, मिशन की उपलब्धि में ही अपनी उपलब्धि है | सेवा ऐसे करो, जैसे यह तुम्हारा निजी कार्य हो | तुम इस मिशन के मेहमान नहीं, मेजबान हो! विश्व शांति के इस महायज्ञ के दर्शक नहीं, यजमान हो! यजमान ही क्यों, यथेष्ट आहुति भी हो | ज्वाला को जाज्वल्यमान रखने की समिधा भी तुम हो! इस लिए हमें अपने व्यस्त जीवन में से गुरु के मिशन की सेवा के लिए भी समय निकलना चाहिए, तब ही हमारा जीवन सफल हो सकता है | अगर हम नहीं भी सेवा करेंगे, गुरु का मिशन तब भी पूर्ण होगा, पर हम इस सेवा से वंचित रह जाएंगे | इस लिए अब मौका है, हमें इस का पूर्ण लाभ उठाना चाहिए |

No comments:

Post a Comment