Sunday, January 30, 2011

गुरू वही, जो प्रभु का दर्शन करा दे !


संत कबीर जी पेड़ों की झुरमट तले बैठे थे | उनके पास की एक शाखा पर एक पिंजरा टंगा था, जिस में एक मैना पुदक रही थी | बड़ी अनूठी थी, वह मैना | खूब गिटरपिटर मनुष्यों की सी बोली बोल रही थी | कबीर जी भी उससे बातें लड़ा रहे थे | दोनों हँस मैना से कुछ ऊपर पत्तों में छिपकर बैठ गए | 
    इतने में, नगर सेठ अपनी पत्नी के साथ कबीर जी के क़दमों में हाज़िर हुआ | मन की भावना रखी - 'महाराज, मेरे सिर के बाल पक चले हैं | घर-गृहस्थी के दायित्व भी पूरे हो गए हैं | सोच रहा हूँ, हमारी सनातन परम्परा के चार आश्रमों में से तीसरी पौड़ी 'वानप्रस्थ' की और बढ चलूँ | एकांत में सुमिरन-भजन करूँ |'
         कबीर, बिना किसी लाग-लपेट के, एकदम खरा बोले- 'सेठ जी,यूँ वन में इत-उत डोलने से हरि नहीं मिलता!'
सेठ -फिर कैसे मिलता है,हरि ? आप बता दें महाराज |
        कबीर फिर मैना से बतियाने लगे - 'मैना रानी, बोल - राम...राम... !' मैना ने दोहराया - 'राम...राम |' कबीर उससे ढेरों बातें करने लगे | सेठ-सेठानी को इतना साफ बोलते देखकर खुश हो रहे थे... कि तभी कबीर उनकी और मुड़े और बोले-'जानते हो सेठ जी, मैना को मनुष्यी बोली कैसे सिखाई जाती है? आप उसके सामने खड़े होकर उसे कुछ बोलना सिखाओगे, तो वह कभी नहीं सीखेगी | इसलिए मैंने एक दर्पण लिया और उसकी आड़ में छिपकर बैठ गया | दर्पण के सामने पिंजरा था | मैं दर्पण के पीछे से बोला - 'राम!राम!' मैना ने दर्पण के में अपनी छवि देखी | उसे लगा उसका कोई भाई-बंधु कह रहा है- 'राम!राम!' इसलिए वह भी झट सीख़ और समझ गई | इसी तरह दर्पण की आड़ में मैंने उसे पूरी मनुष्यी बोली सिखाई | और अब देखो, यह कितना फटाफट बोलती है...!'
                 इतना कहकर कबीर ताली बजाकर हँस दिए | फिर इसी मौज मैं, सेठ-सेठानी से सहजता से बोल गए - 'ऐसे ही सेठ जी भगवान कैसे मिलता है, यह तो खुद भगवान ही बता सकता है | लेकिन अगर वह यूँ ही सीधा बताएगा, तो तुम्हारी बुद्धि को समझ नहीं पड़ेगी | इस लिए वह मानव चोले की आड़ में आता है और ब्रह्मज्ञान का सबक सिखाता है - ब्रह्म बोले काया के ओले | काया बिन ब्रह्म कैसे बोले || वह मानव बनकर आता है, मानव को अपनी बात समझाने | उस महामानव को, मनुष्य देह में अवतरित ब्रह्म को ही हम 'सतगुरू' सच्चा गुरु या साधू' कहते हैं |
निराकार की आरसी,साधों ही की देहि |
लखा जो चाहै अलख को, इनही में लखि लेहि ||
  
 अर्थात सदगुरू की साकार देह निराकार ब्रह्म का दर्पण है | वो अलख (न दिखाई देने वाला ) प्रभु सच्चे गुरू की देह में प्रत्यक्ष हो आता है |
इस लिए सेठ जी, अगर भगवान को पाना है, तो 'वानप्रस्थ' नहीं, 'गुरूप्रस्थ' बनो | सदगुरू के देस चलो चलो -
चलु कबीर वा देस में, जहँ बैदा सतगुरू होय ||
  
सेठ - सोलह आने सच बात, महाराज | मगर एक दुविधा है | दास जानना चाहता है कि मनुष्य चोले में तो कई पाखंडी स्वयं को 'गुरू' कहलाते घूमते हैं | फिर हम ज्ञानीजन कैसे पहचाने कि  इस काया में साकार ब्रह्म है या कोई ढोंगी है ?
        कबीर ने प्रशंसा भरी दृष्टि से सेठ जी को देखा - 'उत्तम प्रशन किया है आपने | जब तक देखूं न अपनी नैनी, तब तक पतीजूं न गुरू की वैणी - सोच-समझ कर, देखभाल कर ही किसी को सदगुरु दर्जा देना चाहिए | भई, मैं अपनी राय कहूँ, तो -
               साधो सो सतगुरू मोहिं  भावै |
सत नाम नाम का भरि भरि प्याला, आप पिवै मोहिं प्यावै ||
  
मुझे तो ऐसा सदगुरु भाता है,जो प्रभु के अव्यक्त आदिनाम का अमृत मुझे पिला दे |
परदा दूरि करै आँखिन का, निज दरसन दिखलावै |
जा के दरसन साहिब दरसै, अनहद सबद सुनावै |

 जो प्रभु की सिर्फ मीठी-मीठी बातों में न बहलाए | बल्कि मेरी आँख पर से अज्ञानता का पर्दा हटा दे, मेरा शिव - नेत्र (दिव्य दृष्टि ) खोल दे और साहिब का साक्षात् दीदार करा दे और मेरे मेरे अंतर्जगत में अनहद बाणी गूँज उठे... वही पूरा तत्वदर्शी गुरू है | वही सत्पुरश है |'
उधर सेठ-सेठानी और इधर हंस मनमुखा गदगद हो चुके थे | दोनों हंसों को 'गुरू क्यों? और गुरू कैसा?'- इन दो सीखों के बेशकीमती मोती मिल चुके थे | वे उन्हें अपनी चोंच से चुग कर, 'संतों के देस' से वापिस लोट रहे थे |
           प्रिय पाठकों! आपके अंदर ही ये दोनों हंस रहते हैं - आपका मन (मनमुखा ) और आपकी आत्मा (आत्माराम) | आपका हंस आत्माराम परमात्मा के दर्शन के लिए व्याकुल है| पर हंस मनमुखा उसका साथ देने को तैयार नहीं होता | माने वह किसी सदगुरु, तत्वदर्शी सत्पुरश से ज्ञान-दीक्षा लेने के लिए राजी नहीं होता | पर अब  तो आपके दोनों हंसों ने 'संतों के देस' की सैर कर ली है और सत्संग के मोती भी पा लिए है | तो क्या अब आपका 'मनमुखा' माना ?
          यदि अब  भी नहीं माना, तो उसे बारम्बार संस्थान के सत्संग पंडालों में लाना न भूलें, ताकि वह संतों की और वाणियाँ सुन पाए और यदि वह मान गया, तो फिर विलम्ब न कीजिए | 'ब्रह्मज्ञान' की दीक्षा पाकर 'सुख' से आनंद की ओर बढ जाइए |
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करे जो दीक्षा के समय ही परमात्मा क दर्शन करवा दे | अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते
 हैं |

जिन खोजा तिन पाइया !


 Seek & you shall find it!

आत्मा सबकी प्यासी है | एक अजीब-सी बेचैनी, एक अधूरापन-सबको सालता रहता है | एक दर्द भरी कराह सबके अंदर करवटें लेती हैं | लेकिन कुछ बिरले होते हैं ,जो अपनी रूह की इस प्यास को पहचान पाते हैं |  अपने में गहरा झांककर आत्मा का रोना-बिलखना समझ पाते हैं और फिर समझने के बाद, उसका दाना-पानी जुटाने के लिए चल पड़ते हैं | 'आत्मा' का भोजन और रस परमात्मा है - रसो वै स: | भगवान से मिलकर ही रूह की भूख मिटती है | रूह की प्यास बुझती है | इस लिए वे विरले जिज्ञासु निकल पड़ते हैं, एक खोज में, जिसका एक ही लक्ष्य होता है - 'ईश्वर' ! इस खोज-यात्रा में तरह-तरह के पड़ाव आते हैं | कहीं पाखंड का झाला मिलता है, कहीं ऊलजलूल  रूढ़ियों  का मकड़ जाल ! कहीं-कहीं तो जिज्ञासुओं का मन-धन ठगने के लिए बड़ी लुभावनी मेडीटेशन तकनीकें या पद्धतियाँ भी ईजाद कर ली जाती हैं | जिज्ञासु  को उल्लू बनाने के लिए 'ईश्वर' के नाम पर क्या क्या पैंतरे नहीं फेंके जाते!
अकसर बहुत लोग श्री गुरू आशुतोष महाराज जी से पूछते हैं - 'ऐसा क्यों होता है कि ईश्वर अन्वेषी ढोंग और पाखंड के चक्रव्यहू में फँस जाते हैं?' श्री महाराज जी सटीक उत्तर दिया करते हैं - 'फंसते वही हैं, जिन्होंने अभी तक अपनी आत्मा की कराह को ठीक से सुना नहीं होता; जो अपनी आत्मा नहीं, मन की प्यास को लेकर सत्य की खोज में निकलते हैं | इसलिए जहाँ कहीं उन्हें अपने मन के अनुकूल कुछ मिलता है,वे ठहर जाते हैं | लेकिन ईश्वर के परवाने (जिज्ञासु) ईश्वर से एक पाई भी कम में सौदा नहीं करते | The real seekers of God do not settle for even a penny less than God ! वे तब तक पंख फड़फड़ाते  हैं,जब तक ईश्वर की दिव्य ज्योति का दर्शन नहीं कर लेते | वे तब तक खोजते हैं,जब तक एक पूर्ण तत्वदर्शी गुरू की आशीष छाया में नहीं आ जाते और उनसे 'ईश्वर' रुपी परम सौगात नहीं पा लेते !'
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करे जो दीक्षा के समय ही परमात्मा क दर्शन करवा दे | अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते
 हैं |


Thursday, January 27, 2011

ये कैसी घड़ी है !


विश्व विनाश की कगार पे खड़ा है 
और सबको अपनी - अपनी पड़ी है
हाय,ये कैसी मुश्किल घड़ी है !

 चारों ओर आतंक का बारूद विछा है
तूफान आने को तैयार खड़ा है
धूं -धूं कर मानवता जल रही है
तुझे बस अपना घरोंदा बनाने की पड़ी हैं
हाय, ये कैसी मुश्किल घड़ी है!

 स्वार्थ में अंधा हो चले जा रहा है
बस अपने लिए तू जीए जा रहा है 
पितृ-ऋण, मातृ-ऋण, पत्नी-ऋण, पुत्र-ऋण
जाने कितने ही ऋणों को चुकाया है तूने
पर क्यों इस धरा ऋण को समझा न तूने
घुटती मानवता अधर में खड़ी है
हाय, ये कैसी मुश्किल घड़ी है!

ये तूफान सबको मिटा देगा आकर
बारूद के धुएं सब जला देंगे छा कर 
विश्व को बचाने आए हैं सदगुरु
देख जरा संकुचित दायरों से निकलकर 
घरोंदे से निकल देख राहों में चलकर 
ये परमार्थ का मार्ग है बड़ा आनंदकर
जो सुख मिलेगा दूसरों को सुख देकर
वो सुख न मिलेगा घरोंदे में रहकर

 पूरे विश्व को अपना घर तू बना ले
इस तपती धरा की तपिश को बुझा दे
नहीं फिर पछताएगा करनी पे अपनी
मिलेगा सुकून नेक करनी पे अपनी 
इस लिए अब...

सदगुरु के चरणों में गिरने की घड़ी है!
राहों पे उनके मिटने की घड़ी है!
ये न कहो बस, ये कैसी घड़ी है!
भटके को सन्मार्ग  पे चलाने की घड़ी है!
डूबते हुए को बचाने की घड़ी है!
कैसी घड़ी है ये कैसी घड़ी है !
प्यारे,ये कुछ कर गुजरने की घड़ी है !

मेरे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है



आज जब हम लोगों से आत्मा परमात्मा के बारे में बात करते हैं,तो बहुत से लोगों का यही प्रशन होता है कि हमारे पास परमात्मा के लिए समय नहीं है | व्यस्त जीवन है,एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | यही प्रशन एक वार एक व्यक्ति ने गुरुदेव सर्व श्री आशुतोष महाराज जी के समक्ष्य रखा |
 प्रशन ) मैं एक व्यापारी हूँ | मेरा लाखों का बिजनेस है | मैंने दो-तीन बार आपके सत्संग- प्रवचन सुने हैं |मुझे बहुत अच्छे लगे | सुनकर मन को शांति भी मिली | पर फिर भी मैं ज्ञान लेने मैं असमर्थ हूँ | क्यों कि मेरे पास एक मिनट की भी फुर्सत नहीं है | मैं सुमिरन - भजन के लिए समय नहीं निकाल सकता | अब आप ही कोई उपाय बताएँ |
 उत्तर ) समय नहीं है! यह तो केवल एक बहाना है | वास्तव में आपने परमात्मा व उसके ज्ञान के महत्व को अभी तक समझा ही नहीं | इस लिए आप संसार को ही सब कुछ मान बैठे हैं | सांसारिक कार्यें व विषयों में अपना एक - एक क्षण एवं एक - एक श्वास गवाए चले जा रहे हैं | जब कि संत महापुरषों के अनुसार यह जीवन तो मिला ही ईश्वर - भक्ति एंव उसकी प्राप्ति के लिए है | मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल  नौकरी , बिजनेस या धन - संग्रह करना नहीं | इसका परम लक्ष्य ईश्वर को पाना है | उसका बनना एंव उसे अपना बनाना है - 'बड़े भाग मनुष्य तन पावा ......साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' | यदि समय रहते हम इस तथ्य को नहीं समझते,तो आगे की पंक्तियों में गोस्वामी तुलसीदास जी हमें एक चेतावनी भी देते हैं -

सो परत्र दुख  पावइ  सिर धुनि -धुनि पछताइ |
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ||

फिर हमें सिर धुन - धुन कर पछताना पड़ेगा | चाहे हम 'कालहि' - समय नहीं था; 'कर्महि' - मेरे कर्मों में ही नहीं था; 'ईस्वरहि ' शायद ईश्वर को ही मंजूर नहीं था आदि कितने ही बहाने बनाएँ, कोई सुनवाई नहीं होगी | इस लिए जीवन के इस परम लक्ष्य  के विषय में विचार करें | ब्रह्मज्ञान की महत्ता को समझें | एक बार महत्व समझ आ गया,तो समय तो खुद-व-खुद निकल आएगा |
साथ ही, आपकी जानकारी के लिए यह भी बता दें कि ज्ञान प्राप्ति के उपरान्त सुमिरन - भजन के लिए कोई अलग से समय निकालने की आवश्कयता नहीं है | यह तो वह ज्ञान है जिसके द्वारा आप चलते फिरते, खाते - पीते, उठते - बैठते हुए भी प्रभु सुमिरन कर सकते हैं | याद कीजिए प्रभु श्री कृष्ण का उदघोष -'माम स्मृत तात.....अर्थात (हे अर्जुन) तू युद्ध भी कर और सुमिरन भी कर | आपका बिजनेस युद्ध से अधिक एकाग्रता नहीं माँगता | इसलिए आप आगे बढें और अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करें |

Tuesday, January 25, 2011

परमात्मा को केवल मानो नहीं, जानो भी



कहै कबीर जब जान्या ,जब  जान्या  तौ  मन मान्या |
मनमाने लोग नही पतीजै, नही पतीजै तौ  हम का कीजै ||

प्र्स्तुत पद संत कबीरदास जी द्वारा रचित है । इस में कबीरदास जी कह्ते है कि - 'जब मैने परमात्मा को अपने भीतर देखा,जाना,तभी मेरा मन परमात्मा को मानने लगा और यदि मनमुख लोग इस बात को नहीं स्वीकारते,तो मैं क्या करूँ ? न करें स्वीकार !
यह बात अगर आज भी किसी मनुष्य को समझाई जाए,तो वह स्वीकार नहीं करता। लोगों  ने परमात्मा को केवल मानने तक ही सीमित कर दिया है । कोई भी उसे जानने का कोशिश नहीं करता । जब बात ईश्वर दर्शन के विषय में आती है,तो लोगो को हजम नही होती । वे अपने व्यर्थ तर्को द्वारा इस तथ्य को झूठा ठहराने की कोशिश करते है । जब कि महापुरषों ने कभी ऐसा नही किया । उन्होने परमात्मा को केवल माना नही,अपितु जाना भी। आप जरा क्ल्पना करे कि  एक बेटा अपने पिता को जाकर कहे के,'पिता जी,मै आप को अपना पिता मानता हूँ। तो ऐसे मे वह पिता क्या सोचेगा ? यही न कि, 'अरे मूर्ख ! अभी तू मुझे  केवल अपना पिता मान ही रहा है ! तुने अभी तक जाना नही कि मै तेरा पिता हूँ । कितनी हस्यास्पद बात है न यह !
पर जरा ठहरे ! क्या यह ह्स्यस्पद बात हम लोगो पर लागू नही होती? हम भी तो आज अपने परम पिता परमात्मा को 'मानने' का ही दावा करते है। उसे 'जान ने' का दावा हम मे से कितने लोग करते है ? यह दावा तो केवल और केवल एक पूर्ण संत ही कर सकते है या फिर उनके शिष्य जिन्हें उन्होने दीक्षा प्रदान की है । 'दीक्षा' का अर्थ ही होता है - 'दिखाना' अर्थात 'जानना' ।
स्वामी विवेकानन्द जी का इस बारे मे स्पष्ट कथन है - जिन्हे अत्मा की अनुभूति या ईश्वर - साक्षात्कार न हुआ हो,उन्हे यह कहने का क्या अधिकार है कि अत्मा या ईश्वर है ? यदि ईश्वर है,तो उसका साक्षात्कार करना होगा । यदि आत्मा नामक कोई चीज है,तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्था विश्वास ना करना ही भला । ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है।' - (राजयोग,अवतरणिका,प्रष्ट ४ )
पर आज हम फिर भी लाकीर के फकीर बने हुए है । सत्य का सन्देश मिलने पर भी अपनॊ मन की बनाई हुई चार दीवारी से ही घिरे रहना पसन्द करते है । बड़े गर्व से कह्ते है - 'जी,मै इतने देवी- देवताओ को मानता हूँ। इतने अवतारो को मानता हूँ ....बस मानना ही मानना है । देखा नही है । भीतर कुछ साक्षात्कार नहीं हुआ। ऐसे खाली मानने पर टिका हुआ विश्वास पल - भर मे बिखर जाता है । एक बार की घट्ना है -
एक संत महापुरष आसन पर बैठे हुए थे । एक आदमी उनके पास आया । आकर प्रणाम किया । बड़ा खुश ! संत ने पूछा, क्या हुआ भाई,आप बड़े खुश लग रहे हो? कह्ता है,महाराज ! मै आस्तिक बन गया । संत जी बड़े हैरान हुए - आस्तिक बन गया ! इस से पहले संत  कुछ कह्ते,वह व्यक्ति आपनी कहानी सुनाने लगा । कह्ता है - बहुत समय से मेरे बेटे की नौकरी नही लग रही थी । मै एक दिन हनुमान जी के मन्दिर मे गया । वहा मैने हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया कि अगर पन्द्रह दिन के अन्दर अन्दर मेरे बेटे की नौकरी लग गई,तो मै तुम्हे मानना शुरू कर दूंगा। आस्तिक बन जाऊगा । तुम्हारे मन्दिर मे भी आया करूगा । प्रभु ने मेरी सुन ली । पन्द्रह दिन के अन्दर ही मेरे बेटे की नौकरी लग गई । इस लिए मै आस्तिक बन गया हूँ ! यह बात सुनकर,संत जी ने उस व्यक्ति को समझाते हुए कहा, आप की आस्तिकता की चादर बहुत पतली है । आप के विश्वास के पीछे स्वार्थ की बैसखिया लगी हुई है । ऐसा विश्वास कभी भी लड़खड़ा कर गिर सकता है । इस लिए इस आधार पर परमात्मा को मानना ठीक नही। मेरी मानो तो आगे से कभी परमात्मा को अल्टीमेटम मत देना । पर यह तो स्वभाव सिद्ध है कि मनुष्य जिस काम मे एक बार सफल हो जाए,तो उसे दोबारा जरूर करता है । ऐसा ही हुआ । कुछ समय के बाद उस आदमी की पत्नी बीमार हो गई । उस ने सोचा कि क्यो ना फिर वही फार्मूला लगाया जाए । भगवान को चेतावानी दी जाए । जाकर फिर हनुमान जी को अल्टीमेटम दे दिया - हनुमान जी ! अगर सात दिनो के अन्दर मेरी पत्नी ठीक नही हुई,तो मै आप को मानना छोड दूंगा। फिर से नास्तिक बन जाऊँगा। होता तो वही है जो विधाता ने लिखा हुआ था । पाचवे दिन ही  उस की पत्नी मर गई । वह व्यक्ति फिर से नास्तिक बन गया । कहने का मतलब,उस का परमात्मा को मानना या ना मानना बस एक खेल था । अ:त जरूरत है कि हम तर्को वितर्को व अपनी धारणाओं के आधार पर परमात्मा को सिर्फ़ मानने तक ही सीमित न रहे । बल्कि एक पूर्ण गुरू की शरणागत होकर उस का दर्शन भी करे । उसे तत्व से जाने । तभी हमारा उस पर विश्वास अडिग होगा।
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करे जो दीक्षा के समय ही परमात्मा क दर्शन करवा दे | अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते हैं|

Sunday, January 23, 2011

ਇਸੁ ਦੇਹੀ ਅੰਦਰਿ ਪੰਚ ਚੋਰ ਵਸਹਿ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਲੋਭੁ ਮੋਹੁ ਅਹੰਕਾਰਾ ॥




ਇਸੁ ਦੇਹੀ ਅੰਦਰਿ ਪੰਚ ਚੋਰ ਵਸਹਿ ਕਾਮੁ ਕ੍ਰੋਧੁ ਲੋਭੁ ਮੋਹੁ ਅਹੰਕਾਰਾ ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਲੂਟਹਿ ਮਨਮੁਖ ਨਹੀ ਬੂਝਹਿ ਕੋਇ ਨ ਸੁਣੈ ਪੂਕਾਰਾ ॥ 

ਜੇ ਕਿਸੇ ਦੇ ਘਰ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਚੋਰ ਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਉਹ ਪੂਰਾ ਘਰ ਲੁੱਟ ਕੇ ਲੈ ਜਾਂਦਾ ਹੈ,ਪਰ ਜਿਸ ਘਰ ਵਿੱਚ ਇਕੱਠੇ ਪੰਜ ਚੋਰ ਹੋਣ ਉਸ ਦੇ ਨੁਕਸਾਨ ਬਾਰੇ ਕੀ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ? ਇਸ ਸਰੀਰ ਰੂਪੀ ਘਰ ਅੰਦਰ ਕਾਮ,ਕ੍ਰੋਧ,ਲੋਭ,ਮੋਹ,ਹੰਕਾਰ ਪੰਜ ਚੋਰ ਹਰ ਸਮੇਂ ਘਰ ਨੂੰ ਲੁੱਟ ਰਹੇ ਹਨ | ਜਿਸ ਨੂੰ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਕੇ ਇਹ ਜੀਵ ਅਮਰ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ | ਉਸੇ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਨੂੰ ਪੰਜ ਚੋਰ ਲੁੱਟ ਰਹੇ ਹਨ | ਮਨਮੁਖ ਜੀਵ ਨੂੰ ਇਹਨਾਂ ਚੋਰਾਂ ਬਾਰੇ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਹੈ | ਇਸ ਕਰਕੇ ਇਹ ਬਿਨਾਂ ਕਿਸੇ ਡਰ ਦੇ ਆਪਣਾ ਕੰਮ ਕਰੀ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ | ਸੰਤ ਰਵਿਦਾਸ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਮ੍ਰਿਗ, ਮੱਛੀ,ਭੌਰਾ,ਪਤੰਗਾ ਅਤੇ ਹਾਥੀ ਨੂੰ ਕੇਵਲ ਇੱਕ ਰੋਗ ਦੁਖੀ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ | ਜਿਸ ਕਾਰਨ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਮੋਤ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ | ਪਰ ਇਸ ਜੀਵ ਦੇ ਅੰਦਰ ਤਾਂ ਪੰਜ ਅਸਾਧ ਰੋਗ ਹਨ ਉਹ ਵਿਚਾਰਾ ਕੀ ਕਰੇ ?

ਮ੍ਰਿਗ ਮੀਨ ਭ੍ਰਿੰਗ ਪਤੰਗ ਕੁੰਚਰ ਏਕ ਦੋਖ ਬਿਨਾਸ ॥ 
ਪੰਚ ਦੋਖ ਅਸਾਧ ਜਾ ਮਹਿ ਤਾ ਕੀ ਕੇਤਕ ਆਸ ॥੧॥

ਮ੍ਰਿਗ ਨੂੰ ਘੰਡੇ ਹੇਡ੍ਹੇ ਦੀ ਆਵਾਜ ਸੁਣਨ ਦਾ ਰੋਗ ਹੈ,ਜਦੋਂ ਸ਼ਿਕਾਰੀ ਇਹ ਆਵਾਜ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਹਿਰਨ ਮਸਤ ਹੋ ਕੇ ਉਸ ਪਾਸੇ ਵੱਲ ਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ | ਇਹ ਆਵਾਜ ਹੀ ਉਸ ਦੀ ਮੋਤ ਦਾ ਕਾਰਨ ਬਣਦੀ ਹੈ | ਮੱਛੀ ਨੂੰ ਮਾਸ ਖਾਣ ਦਾ ਰੋਗ ਲੱਗਾ ਹੋਇਆ ਹੈ | ਜਦੋਂ ਸ਼ਿਕਾਰੀ ਨੇ ਮੱਛੀ ਨੂੰ ਫੜਨਾ ਹੋਵੇ ਤਾਂ ਲੋਹੇ ਦੀ ਕੁੰਡੀ ਦੇ ਅਗਲੇ ਹਿੱਸੇ ਉਪਰ ਮਾਸ ਦਾ ਟੁਕੜਾ ਲਗਾ ਕੇ ਪਾਣੀ ਵਿੱਚ ਲਟਕਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ | ਜਦੋਂ ਮੱਛੀ ਮਾਸ ਦੇ ਟੁਕੜੇ ਦੇ ਕੋਲ ਪਹੁੰਚਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਲੋਹੇ ਦੀ ਕੁੰਡੀ ਉਸਦੇ ਗਲ ਵਿੱਚ ਫਸ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸ ਦੀ ਮੋਤ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ | ਭੌਰੇ ਨੂੰ ਸੁਗੰਧੀ ਲੈਣ ਦਾ ਰੋਗ ਹੈ | ਉਹ ਉਡਦਾ ਕਿਸੇ ਕਮਲ ਦੇ ਫੁੱਲ ਉਪਰ ਜਾ ਕੇ ਬੈਠ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸੁਗੰਧੀ ਵਿੱਚ ਬਹੁਤ ਜਿਆਦਾ ਮਸਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਸੂਰਜ ਛਿਪ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਭੌਰਾ ਕਮਲ ਦੇ ਫੁੱਲ ਅੰਦਰ ਹੀ ਬੰਦ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸਦੀ ਮੋਤ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ | ਪਤੰਗੇ ਨੂੰ ਰੋਸ਼ਨੀ ਉਪਰ ਮੰਡਰਾਉਣ ਦਾ ਰੋਗ ਹੈ | ਜਦੋਂ ਉਹ ਰੋਸ਼ਨੀ ਦੇ ਕੋਲ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਸ ਦੀ ਵੀ ਮੋਤ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ | ਹਾਥੀ ਨੂੰ ਕਾਮ ਦਾ ਰੋਗ ਹੋਣ ਕਾਰਨ ਬਰਬਾਦ ਹੋਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ | ਮ੍ਰਿਗ,ਮੱਛੀ,ਭੌਰਾ,ਪਤੰਗੇ ਅਤੇ ਹਾਥੀ  ਨੂੰ ਕੇਵਲ ਇੱਕ ਰੋਗ ਹੈ ਜੋ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਬਰਬਾਦ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ | ਪਰ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਅਜਿਹੇ ਪੰਜ ਰੋਗ ਲੱਗੇ ਹਨ ਇਹੀ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਇੰਨਾ ਦੁਖੀ ਹੈ | ਮਨੁੱਖ ਇਹਨਾਂ ਰੋਗਾਂ ਦਾ ਇਲਾਜ ਬਾਹਰ ਲੱਭ ਰਿਹਾ ਹੈ |
ਆਤਮਿਕ ਗਿਆਨ ਦੇ ਪੂਰਨ ਪ੍ਰਕਾਸ਼ ਹੋਣ ਨਾਲ ਇਹ ਪੰਜੇ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਮਿੱਤਰ ਬਣ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ | ਜਿਸ ਬਾਰੇ ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜਦੋਂ ਆਪਣੇ ਅਸਲੀ ਘਰ ਦਾ ਪਤਾ ਲੱਗ ਗਿਆ ਤਾਂ ਇਹ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਸਤਿ,ਸੰਤੋਖ ,ਦਇਆ,ਧਰਮ ਅਤੇ ਧੀਰਜ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ ਬਦਲ ਗਈਆਂ | ਜਿਸ ਦੇ ਅੰਦਰ ਇਹ ਪੰਜ ਵਿਕਾਰ ਪੰਜ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਰੂਪ ਧਾਰਨ ਕਰ ਗਏ ਮੈਂ ਉਸ ਦਾ ਦਾਸ ਹਾਂ |

ਸਭਿ ਸਖੀਆ ਪੰਚੇ ਮਿਲੇ ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਿਜ ਘਰਿ ਵਾਸੁ॥
ਸਬਦੁ ਖੋਜਿ ਇਹੁ ਘਰੁ ਲਹੈ ਨਾਨਕੁ ਤਾ ਕਾ ਦਾਸੁ ॥੧॥

ਆਤਮਿਕ ਗਿਆਨ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਕਰਨ ਨਾਲ ਇਹ ਪੰਜ ਵਿਕਾਰ ਪੰਜ ਗੁਣਾਂ ਵਿੱਚ ਬਦਲ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ | ਇਸ ਲਈ ਸਾਨੂੰ ਵੀ ਜਰੂਰਤ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ ਵੀ ਪੂਰਨ ਸਤਿਗੁਰੂ ਦੀ ਸ਼ਰਣ ਵਿੱਚ ਜਾ ਕੇ ਉਸ ਆਤਮਿਕ ਗਿਆਨ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰੀਏ |


ਕੂੜੁ ਰਾਜਾ ਕੂੜੁ ਪਰਜਾ ਕੂੜੁ ਸਭੁ ਸੰਸਾਰੁ ॥




ਕੂੜੁ ਰਾਜਾ ਕੂੜੁ ਪਰਜਾ ਕੂੜੁ ਸਭੁ ਸੰਸਾਰੁ ॥
ਕੂੜੁ ਮੰਡਪ ਕੂੜੁ ਮਾੜੀ ਕੂੜੁ ਬੈਸਣਹਾਰੁ ॥ 
ਕੂੜੁ ਸੁਇਨਾ ਕੂੜੁ ਰੁਪਾ ਕੂੜੁ ਪੈਨ੍ਹ੍ਹਣਹਾਰੁ ॥
ਕੂੜੁ ਕਾਇਆ ਕੂੜੁ ਕਪੜੁ ਕੂੜੁ ਰੂਪੁ ਅਪਾਰੁ ॥ 
ਕੂੜੁ ਮੀਆ ਕੂੜੁ ਬੀਬੀ ਖਪਿ ਹੋਏ ਖਾਰੁ ॥
ਕੂੜਿ ਕੂੜੈ ਨੇਹੁ ਲਗਾ ਵਿਸਰਿਆ ਕਰਤਾਰੁ ॥
ਕਿਸੁ ਨਾਲਿ ਕੀਚੈ ਦੋਸਤੀ ਸਭੁ ਜਗੁ ਚਲਣਹਾਰੁ ॥
 ਕੂੜੁ ਮਿਠਾ ਕੂੜੁ ਮਾਖਿਉ ਕੂੜੁ ਡੋਬੇ ਪੂਰੁ ॥
ਨਾਨਕੁ ਵਖਾਣੈ ਬੇਨਤੀ ਤੁਧੁ ਬਾਝੁ ਕੂੜੋ ਕੂੜੁ ॥੧॥

ਸ੍ਰੀ ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਦੇਵ ਜੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਇਹ ਸਾਰਾ ਸੰਸਾਰ ਛਲ ਰੂਪ ਹੈ | ਰਾਜਾ,ਪਰਜਾ ਅਤੇ ਮਹਿਲ ਮਾੜੀਆਂ ਸਭ ਨਾਸ਼ਵਾਨ ਹਨ | ਸੋਨੇ ਚਾਂਦੀ ਦੇ ਗਹਿਣੇ ਭਰਮ ਹੀ ਹਨ ਅਤੇ ਪਹਿਨਣ ਵਾਲਾ ਸਰੀਰ ਵੀ ਸੱਚ ਨਹੀਂ ਹੈ | ਸਾਰੇ ਸਰੀਰ ਨਾਸ਼ਵਾਨ ਹਨ | ਇਸਤਰੀ ਪੁਰਸ਼ ਇਸ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਵਿੱਚ ਖਪ ਖਪ ਕੇ ਮਰ ਰਹੇ ਹਨ | ਨਾਸ਼ਵਾਨਾਂ ਦੀ  ਦੋਸਤੀ ਵੀ ਨਾਸ਼ਵਾਨਾਂ ਨਾਲ ਹੀ ਹੈ | ਇਹ ਸਾਰਾ ਸੰਸਾਰ ਛਲ ਰੂਪ ਹੈ (ਧੋਖਾ ਹੈ ) ਪਰ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ  ਸ਼ਹਿਦ ਵਾਂਗ ਮਿੱਠਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਸਾਰੇ ਜੀਵਾਂ ਨੂੰ ਡੋਬ ਰਿਹਾ ਹੈ | ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਸਭ ਕੁਝ ਨਾਸ਼ਵਾਨ ਹੈ ਖਤਮ ਹੋ ਜਾਣ ਵਾਲਾ ਹੈ | ਜੋ ਚੀਜ ਖਤਮ ਹੋਣ ਵਾਲੀ ਹੈ ਸਥਿਰ ਨਹੀਂ ਹੈ | ਉਹ ਸਾਡੇ ਨਾ ਚਾਹੁੰਦਿਆਂ  ਹੋਇਆ ਵੀ ਸਾਡੇ ਕੋਲੋਂ ਦੂਰ ਚਲੀ ਜਾਏ ਤਾਂ ਉਸ੍ਨੂੰ ਇਕੱਠਾ ਕਰਨ ਦਾ  ਕੀ ਫਾਇਦਾ ? ਜੇਕਰ ਪਰਮਾਤਮਾ ਅਤੇ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਰਾਜ ਸਥਿਰ ਹੈ ਤਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਸਾਨੂੰ ਉਸ ਦੀ ਖੋਜ ਕਰਨੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ ਕਿਉਕਿ   

ਭਈ ਪਰਾਪਤਿ ਮਾਨੁਖ ਦੇਹੁਰੀਆ ॥ ਗੋਬਿੰਦ ਮਿਲਣ ਕੀ ਇਹ ਤੇਰੀ ਬਰੀਆ ॥ 

ਅੱਜ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਪੈਸੇ ਦੀ ਦੌੜ ਲੱਗੀ ਹੋਈ ਹੈ | ਸੰਸਾਰ ਦੀ ਦੋਸਤੀ ਪੈਸੇ ਤੇ ਟਿਕੀ ਹੈ | ਅੱਜ ਇਨਸਾਨ ਉਸ  ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਦੋਸਤ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਦੇ ਪਾਸ ਪੈਸਾ ਹੈ | ਜਦੋਂ ਉਸ ਦੇ ਕੋਲ ਪੈਸਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹ ਉਸ ਦੇ ਪਿਛੇ ਪਿਛੇ ਫਿਰਦਾ ਹੈ,ਜਦੋਂ ਪੈਸਾ ਚਲਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹੀ ਦੋਸਤ ਬਲਾਉਣ ਤੋ ਵੀ ਹਟ ਜਾਂਦਾ ਹੈ | ਪਤੀ ਪਤਨੀ ਦੇ ਰਿਸ਼ਤੇ ਨੂੰ ਸਭ ਤੋਂ ਪਵਿਤਰ ਮੰਨਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ,ਜਦੋਂ ਪਤੀ ਮਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ | ਅਗਰ ਪਤੀ ਕਦੇ ਸੁਪਨੇ ਵਿੱਚ ਵੀ ਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹ ਉਸ੍ਨੂੰ ਪ੍ਰੇਤ ਸਮਝਦੀ ਹੈ | ਫਿਰ ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਕਿੰਨੇ ਕੁ ਚੇਲਿਆਂ ਨੂੰ ਘਰ ਵਿਚ ਬੁਲਾ ਲੈਂਦੀ ਹੈ | ਇਸ ਲਈ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਦੋਸਤੀ ਸੱਚੀ ਹੈ | ਤੂੰ ਜਿੰਨਾ ਪਿਆਰ ਇਸ ਸੰਸਾਰ ਨੂੰ ਕਰਦਾ ਹੈ,ਇੰਨਾ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਨੂੰ ਕਰ ਕੇ ਤਾਂ ਦੇਖ | ਉਹ ਹਰ ਮੁਸ਼ਕਿਲ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ ਆਪ ਦੀ ਮਦਦ ਕਰੇਗਾ | ਅੱਜ ਇਨਸਾਨ ਦੇ ਦੁੱਖ ਦਾ ਕਰਨ ਵੀ ਇਹੀ ਹੈ ਕਿ ਜੋ ਪਰਮਾਤਮਾ ਇਸ ਦਾ ਆਪਣਾ ਹੈ,ਇਸ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਨਹੀ ਕਹਿ ਰਿਹਾ | ਸੰਸਾਰ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਬਨਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦਾ ਹੈ,ਜੋ ਇਸ ਦਾ ਆਪਣਾ ਨਹੀਂ ਹੈ | ਜਦੋਂ ਕੋਈ ਆਪਣਾ ਨਹੀਂ ਬਣਦਾ ਤਾਂ ਇਹ ਦੁਖੀ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ | ਕਈ ਵਾਰ ਇਨਸਾਨ ਦੁਖੀ ਹੋ ਕੇ ਆਤਮ  ਹੱਤਿਆ ਵੀ ਕਰ ਲੈਂਦਾ ਹੈ |
ਇਸ ਲਈ ਅਗਰ ਆਪ ਵੀ ਉਸ ਪਰਮ ਸੁਖ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹੋ ਤਾਂ ਪੂਰਨ ਸੰਤ ਦੀ ਖੋਜ ਕਰੋ ਜੋ ਉਸੀ ਸਮੇਂ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦਾ ਦਰਸ਼ਨ ਕਰਵਾ ਦੇ | ਉਸ ਤੋਂ ਬਾਦ ਹੀ ਭਗਤੀ ਸੁਰੂ ਹੁੰਦੀ ਹੈ | ਫਿਰ ਹੀ ਜੀਵਨ ਦੀ ਸੱਚਾਈ ਦਾ ਪਤਾ ਚਲਦਾ ਹੈ | ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਜਿਸ ਨੂੰ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਜੀਵਨ ਸਮਝ ਬੈਠੇ ਹਾਂ,ਇਹ ਜੀਵਨ ਨਹੀਂ ਹੈ,ਇਹ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਦਿਨ ਪ੍ਰਤੀ ਦਿਨ ਮੋਤ ਵੱਲ ਵਧ ਰਹੇ ਹਾਂ |