Sunday, September 11, 2011

संत सरनि जो जनु परै सो जनु उधरनहार || संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार ||

श्री गुरु अर्जुन देव जी सुखमनी साहिब में कहते हैं कि जो जन संत कि शरणागत होते हैं, उनका कल्याण होता है | पर यहाँ ध्यातव्य है कि संत किसे कहा गया | संत अर्थात वे महापुरष,जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया है और अपनी शरण में आने वाले जिज्ञासुओं को भी करवाने कि सामर्थ्य रखते हैं | जो भी ज्ञान दीक्षा कि पिपासा लिए उनके सानिंध्य में आते हैं, वे तत्षण ही उन्हें उनके अंतर्जगत में परमात्मा के तत्वरूप का दर्शन करा देते हैं | परमात्म - दर्शन के उपरान्त साधक साधना सुमिरन द्वारा अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होता है व एक दिन अपने लक्ष्य ईश्वर को पूर्णत पा लेता है | अंश अंशी में मिल जाता है | फिर वह आवागमन के चक्र में नहीं फंसता | यही जीव का सर्वोत्तम कल्याण
है |
आगे कि दो पंकितयां  कुछ रहस्यात्मक हैं | उनमें कहा गया -संत की निंदा नानका बहुरि बहुरि अवतार अर्थात जो पूर्ण संतों कि शरण में नहीं आते, अपितु उसकी निंदा करते हैं, उन्हें बार - बार जन्म लेना पड़ता है| वे पुन: मृत्युलोक  में आने को विवश होते हैं | अपने दुष्कर्मों का फल भोगते हैं | पर मुख्य प्रशन है कि उनके लिए अवतार शब्द क्यों प्रयोग किया गया | जबकि प्रचलित भाषानुसार तो अवतार शब्द श्री राम, श्री कृषण, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी आदि के लिए प्रयोग में लाया जाता है | दरअसल इस शलोक में अवतार शब्द व्यगात्मक रूप में प्रयुक्त किया गया है | जैसे कि यदि आप बनारस कि तरफ जाएँ, तो वहां गुरु शब्द किस के लिए प्रयोग किया जाता है? यदि देखें तो गुरु शब्द हमारी संस्कृति के अनुसार अत्यंत  महान शब्द है | उन ज्ञानी पुरषों को इससे संबोधित किया जाता है | जो  हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में ले जाने कि सामर्थ्य  रखते हैं | परन्तु बनारस में यह शब्द व्यगात्मक रूप में, असामाजिक तत्वों के लिए प्रयोग किया जाता है | ठीक इसी प्रकार इस शलोक में भी ऐसे दुष्टजनों के लिए जो संतों कि निंदा करते हैं, उनका विरोध करते हैं, उनके लिए व्यंगात्मक रूप में अवतार शब्द प्रयोग किया गया है | क्यों कि यह अटल सत्य है कि जब - जब भगवान इस धरा पर अवतरित होते हैं, तब - तब ये दुष्टजन भी जन्म लेते हैं | प्रभु के कार्य का विरोध करने के लिए, सत्य के खिलाफ आंधी चलाने के लिए | इसी बात को भगवान श्री कृषण जी ने भी अर्जुन को कहा कि ऐसा कोई समय नहीं था जब तू नहीं था, मैं नहीं था अथवा ये दुष्ट लोग नहीं थे और न ही भविष्य में ऐसा कभी होगा |
तात्पर्य यह है कि संतों के निंदक भी हमेशा ही संसार में रहते हैं | जब - जब संत आते हैं, तब - तब ये निंदक भी साथ - साथ आते हैं | हर युग में, हर वार, खूब डटकर संतों व उनके सत्य प्रचार का विरोध करते हैं | परन्तु संत महापुरषों ने कभी भी इन विरोधियों को अपना अवरोधक नहीं माना | अपितु उन्होंने तो इन्हें सत्य के बीजों को दूर - दूर तक बिखेरने वाली आंधी समझा | इसलिए अवतार जैसा सम्मानीय सम्बोधन का प्रयोग किया |
निंदक नेअरे रखिये, आँगन कुटि छवाय |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय || 

संत कबीर जी कहते हैं कि निंदक हमारे हितकारी हैं, हमारा कल्याण करते हैं | इसलिए उन्हें सदा समीप ही रखना चाहिए | जैसे संत ज्ञानवर्षा कर हमारे कर्म संस्कार धोते हैं, वैसे ही ये अज्ञानी निंदक हमारी निंदा चुगली कर हमारे पाप कर्मों का सफाया करते हैं | इस तरह एक प्रकार से ये भी संत अवतारों कि भांति हमारा उद्धार ही करते हैं |

मैं और मेरा लक्ष्य - दूसरा कोई नहीं!

आध्यात्मिक गुरु एक ही होते हैं | पर उपगुरु (शिक्षा गुरु) बहुत से हो सकते हैं | जैसे दत्तात्रेय जी ने 24 उपगुरु बनाए थे | .....एक दिन एक राह पर चलते - चलते दत्तात्रेय जी ने देखा कि सामने से पूरी सजबज और बैंड - बाजे के साथ एक बारात आ रही है | खूब धूम - धडाका हो रहा है | पर वहीं, उस सड़क के किनारे झाड़ियाँ की ओर तीर साधे एक शिकारी खड़ा है | उसकी दृष्टि अपलक, एकटक अपने शिकार पर गडी हुई है | न तो बारात की चकाचोंध ने उसका ध्यान बांटा और न उसके हंसी - ठट्ठे और शोर शराबे ने! शिकारी ने एक पल के लिए भी बारात की ओर मुड़कर नहीं देखा | एकचित होकर डटा रहा, अपने लक्ष्य पर! दत्तात्रेय जी ने उसे देखते ही प्रणाम किया, कहा -'आज से आप मेरे (उप) गुरु हैं | जब भी मैं ब्रह्मज्ञान  की साधना में बैठूँगा, तो आपकी प्रेरणा से अपने प्रभु, अपने लक्ष्य पर, इसी प्रकार एक - केन्द्रित होने की कोशिश करूंगा | इतना तन्मन्य की आसपास की माया या दुनिया के विचारों का मुझे भान ही न रहे!'

फैशन के ब्रैंड्स में खो गया इंसानियत का ब्रैंड!

सिनेमा के पर्दे घूरने के लिए तो फिर भी लोग तीन घंटे निकल लेते हैं | इस दौरान हीरो - हीरोइन के चरित्र, संस्कार etc,etc... को भी जन - समझ लेते हैं |But who's got 3 hours in real life? Real life moves so fast, My lord!  आज किसके पास एक-दुसरे को जानने-समझने का समय है? दूसरा पुराने दौर में, हमारी सोसाइटी महज गावों तक सिकुड़ी हुई थी | छोटी - छोटी होने की वजह से लोग एक दुसरे को काफी अच्छी तरह से जानते थे | बट आज! सोसाइटीयां  बढ गई हैं | बिज़नस सर्कल, फ्रेंड्स सर्कल फैलते जा रहे हैं | ऐसे में किसी के पास किसी के अंदर झाँकने का वकत नहीं है | They don't look within you.They look at you - आज लोग हमारे अंदर नहीं देखते, हमें देखते हैं | इस लिए उन पर हमारा सबसे पहला इम्प्रेशन कपड़ों का  ही पड़ता है | किसी ने खूब कहा है - Clothes are the powerful means of non - verbal communication - कपडे बिन बोले ही, मूक भाषा में, सामने वाले को हमारे बारे में बहुत कुछ बता देते हैं | उसके जेहन में हमारी जबरदस्त छाप छोड़ देते हैं |
यही तो सोचनीय बात है | यही तो चिंता और चिंतन का विषय है की आज के दौर में सिर्फ कपड़ों की बोली सुनी जा रही है | किसी के पास चरित्र की अप्रकट बोली सुनने का समय ही नहीं है | मैं इसी पर एक वाकया सुनाना चाहूँगा | एक वर स्वामी विवेकनद जी किसी पछिच्मी  देश की साफ - सुथरी सड़क पर खड़े थे | उन्होंने भगवा चोला  और पगड़ी पहनी हुई थी | तभी सामने से पछ्चात्य रंग ढंग से सने कुछ उस जमाने के आधुनिक युवक उनके समीप से गुजरे | स्वामी जी का सादा भारतीय लिबास उन्हें हजम नहीं हुआ | इसलिए वे लगे व्यंग्य - बाण छोड़ने! ठहाका मारकर हँसतें हुए स्वामी जी की खिल्ली उड़ाने लगे | स्वामी जी ने उन्हें  देखकर मुस्कराए | फिर उन्ही की भाषा में बड़ी निर्भीकता से बोले - Oh brothers! I didn't know that in your country, tailors make a gentleman, for, in mine, Indian, character makes the one. अर्थात बंधुओं! मुझे पता नहीं था की आप के देश में दर्जी सज्जन पुरष का निर्माण करते हैं | कारण की मेरे देश  में चरित्र ही एक सज्जन पुरष का गठन करता है | चरित्र ही उसकी पहचान है | इस तरह स्वामी जी ने भी समाज की इस विडम्बना के परिचय का सही आधार दिया - आंतरिक गुण! चरित्र !
हमारे शास्त्रों में भी एक बड़ा सुंदर दोहा है -
भेष - वेश मत देखिए, पूछ लीजिए ज्ञान,
मोल करो तलवार का पड़ी रहने दो म्यान |

मतलब की बाहरी वेश -भेष देखकर मत भरमाए | इंसान के आन्तरिक ज्ञान या सदगुणों को जांचिए | भला म्यान की क्या कीमत, चाहे वह रत्नजडित ही क्यों न हो! वही धार काम आएगी | उसी तरह, सुन्दर वस्त्र या वेश भूषा को देखकर आप किसी व्यक्ति से एक बार तो प्रभावित हो सकते हैं | पर यदि गुण नहीं, तो वह व्यक्ति भला किस काम का! यह सच्चाई आप आगे चलकर खुद अनुभव करते हैं! मन लीजिए, किसी के ट्रेंडी वस्त्र आदि देखकर आपने उससे मित्रता व् विवाह कर लिया या उसे अपने आफिस में रख लिया | पर यदि उस व्यक्ति का व्यवहार  अच्छा नहीं, काबिलियत और गुण दिखावटी है, तो फिर ? फिर क्या! आप भविष्य में उससे रास्ता काटना ही पसंद करते हैं क्यों कि आप को पता है की उसका दिखाऊ रूप न आपका, न आपके घर का, न आपके आफिस का, न ही समाज का कोई फायदा कर सकता है |
इस लिए जरूरी तो है कि व्यक्ति का चरित्र इतना संयमित या शीतल हो जाए वह समाज में भी शीतलता दे पाए | इसी बात को अंग्रेज दार्शनिकों ने भी स्वीकारा - 'Simple living, high thinking' यानि सादा जीवन, उच्च विचार! महत्वपूर्ण यह नहीं की आप कैसे दिखते हो, जरूरी है, आप क्या हो! कपडे ही व्यक्ति को पहचान देते हैं, बिलकुल बेबुनियाद है! व्यक्ति को असली परिचय मेरा मुवकिकल आंतरिक गुण और चरित्र देते हैं|
मगर ऐसी सोच और चरित्र आज समय में कैसे पौदा होगा, जब की हर तरफ अशांति का माहौल है | वो केवल एक पूर्ण सतगुरु के शरण में जाकर ही आ सकता है | इस लिए हम सब ऐसे पूर्ण  सतगुरु की खोज करें, जो ब्रह्मज्ञान के द्वारा हमारी आत्मा को जागृत कर दे | ब्रह्मज्ञान का मतलब अपने भीतर उसी समय इश्वर का दर्शन  कर लेना | इस लिए जब हम जागेगें फिर पूरा विश्व जागेगा |

होश में आ जाओ बुलबुलों, चमन खतरे में है!

एक पुलिस वाला सत्याग्रहियों पर बेरहमी से डंडे बरसा रहा था | पंद्रह साल के किशोर चंद्रशेखर ने जब यह देखा, तो पुलिस वाले के एक पत्थर दे मारा | निशाना अचूक था | पुलिस वाले के माथे से रक्त की धारा वह निकली | चंद्रशेखर को पुलिस ने ग्रिफ्तार कर लिया | जब अदालत में पेश किया, तो जज ने पूछा - ' ऐ लड़के, तुम्हारा नाम क्या है ?'

'आजाद' - निर्भीक स्वर में तुरंत उत्तर आया !
जज - तुम्हारे पिता का नाम ?
चंद्रशेखर - स्वतंत्र !
जज - घर का पता?
चंद्रशेखर - जेलखाना!

जज गुस्से से लाल हो गया| उसने बालक के शारीर पर पन्द्रह बेंत लगाए जाने की सजा सुना दी | हर बेंत के साथ चमड़ी लिपट - लिपट कर उधड़ती चली गई | लेकिन हर बार तडफन की चीखें नहीं, ' भारत माता की जय' का स्वर गूंजा | लहुलहान आजाद जब घर पहुंचा -
माँ - इस तरह के काम करके तू क्यों मुझे दुखी करता है ?
चंद्रशेखर - माँ, मुझे करोड़ों पुत्रों की माँ का दुःख अधिक सताता है | मुझसे अपनी भारत माँ को जंजीरों में जकड़ा नहीं देखा जाता | यदि उसके प्रति अपना फ़र्ज़ न निभाउगा, तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी |
माँ - पर, तू अकेला क्या कर लेगा ?

चंद्रशेखर - माँ, आग की एक छोटी सी चिंगारी ही बड़े - बड़े महलों को जलाकर राख कर देने में सक्षम है | फिट क्यों भूलती हो की बूँद - बूँद मिलकर ही विशाल सागर बनता है | आज हमारी संख्या बेशक कम है | पर, एक दिन बच्चा - बच्चा हमारे साथ होगा | इन अंग्रेजों को धुल चटा देगा | अंत में 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हो गया | आज हम राजनीतिक तौर पर तो आजाद हो गए, पर मानसिक तौर पर आज भी गुलाम हैं |

बंधुओं, आज हमारे सामने एक और लक्ष्य है | वह लक्ष्य, जो पहले से भी की गुना बृहद है | जो केवल देश की सीमा तक सीमित नहीं, अपितु पूरे विश्व पर केन्द्रित है | वह है 'विश्व - शांति' का महालक्ष्य ! तो क्या इस महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें - आपको-हम सबको, यानी समूचे विश्व की एक -एक इकाई को अपना योगदान नहीं देना होगा?

हमने पढ़ा की छोटी - छोटी घटनायों से प्रेरित होकर देश का बच्चा बच्चा स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा था | मात्रभूमि के प्रति अपना फ़र्ज़ चुकाने से नहीं चूका था | फिर आज हम तो हर रोज दिल दहलाने वाली न जाने कितनी ही बड़ी वारदातों को घटता देखते हैं | भ्रष्टाचार,क़त्ल,शोषण,आंतकवाद, मानव बम...इनकी प्रचंड अग्नि से सम्पूर्ण विश्व को झुलसता देख रहे हैं | विशव की नस - नस में बारूद भरा जा चुका है | तो क्या ऐसी भीषण परिस्थितियों में हमारा कोई कर्तव्य नहीं? सोचिए, झंझोडें , अपनी आत्मा को! कब तब स्वार्थ की गफलत में उंघते रहेंगे? जगाए अपने अन्तकरण को! आत्म जागृत के लिए प्रयासरत होएं | एक पूर्ण गुरु द्वारा ब्रह्मज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करें, क्यों की केवल ब्रह्मज्ञान ही आत्मा को जागृत कर सकता है | उसके बाद ही हम स्व से ऊपर इस धरा को अपना कुटुम्ब मान पाएंगे | वसुधैव की शांति के लिए प्रयासरत हो सकेंगे | तब फिर वह दिन भी दूर नहीं, जब विश्व - शांति का सपना भी साकार होगा |

रक्षा - बन्धन पर्व जो आया, भक्तों के मन ऐसा भाया

रक्षा - बन्धन पर्व जो आया, भक्तों के मन ऐसा भाया
सच्चा भ्राता कौन जगत में, बतलाने का अवसर पाया 

अनोखा सा, अलबेला सा यह रिश्ता बड़ा अनमोल है
सतगुरु जी के उपकारों का जग में नहीं कोई तोल है

क्यों न बांधें परम रक्षक को, रक्षा की एक डोर से
क्यों न पार लगा लें नईया, भवसागर से छोर से 

रेशम के चाँद धागे लेकर प्रेम बांधने आये 
श्वांस - माल में शुभ मंगल भाव पिरोकर लाए

आज तुम्हारे कर - कमलों पर बांधा है यह धागा
उपहार - स्वरूप  बस चाहे यही - रक्षा करना दाता

हर पाप से हमें बचाना, कृपा कर चरणों में लगाना!
इस स्नेह - सूत्र को भूल न जाना!
भवसागर से हमें बचाना!
भ्राता होने का वचन निभाना! 

राखी महज कच्चा धागा नहीं !

राखी मात्र धागा नहीं, बल्कि भावनाओं का पुलिंदा है | इसका रेशा - रेशा उच्च व् पवित्र भावनाओं में गुंथा है | यह इन भावनाओं में समाई महान शक्ति ही है, जो राखी इतना क्रन्तिकारी इतिहास रच सकी है |

राखी को 'रक्षा - बंधन' भी कहा जाता है अर्थात एक ऐसा बंधन जिसमें दोनों और की रक्षा की कामना निहित है! बंधने वाले की रक्षा की कामना तो है ही, बंधवाने वाले के लिए भी यह सूत्र एक अमोघ रक्षा कवच है | यही कारण है कि वैदिक काल में जब लोग ऋषियों के पास आशीष लेने जाया करते थे, तो ऋषिगण उनकी कलाईयों पर रक्षा - बंध बांधते थे | वैदिक मन्त्रों से अभिमंत्रित मोली या सूत का धागा बंधकर उनकी रक्षा की मंगलकामना करते थे |

और सच कहूं तो, सिर्फ बंधने और बंधवाने वाले की रक्षा ही क्यों! बल्कि मेरी, समूचे भारत की संस्कृति की रक्षा इसमें छिपी हुए है | आज भारत की संताने एक ऐसे चौराहे पर जा खड़ी है, जहाँ से भटकने की संभावनाएं भरपूर है | यह पर्व उन चौराहों पर खड़ा होकर, पहरेदार की तरह, उन्हें भटकने से रोकता है | उनकी इच्छाओं और वृत्यों अंकुश लगाता है | आज यहाँ नारी को केवल रूप सौन्दर्ये के आधार पर ही तोला जाता है, उसे कुदृष्टि से ही देखा जाता है, जहाँ बलात्कार और छेड़ - छाड़ के किस्से आए दिन अख़बारों की सुर्ख़ियों में छाए रहते हैं - वहां रक्षा बंधन का यह पर्व एक बुलंद और क्रन्तिकारी सन्देश समाज को देता है | वह यह की एक नारी केवल नवयौवना या युवती ही नहीं, कहीं न कहीं एक बहन भी है! एक समय था जब एक घर की बहन, बेटी को पूरे गाँव की बहन और बेटी समझा जाता था | पर आज के समाज में तो एक बहन, बेटी अपने खुद के घर में सुरक्षित नहीं है | इस तरह यह त्यौहार पवित्रता की परत हमारी दृष्टि पर चढ़ाता है | नारी को बहन रूप में देखना सिखाता है! इस लिए अगर यह पर्व अपनी वास्तविक गरिमा में हो जाए, तो समाज की बहुत सी भीषण समस्याओं का उन्मूलन सहज ही हो जाएगा !रक्षा बंधन का यह पर्व मनाना तब ही सही अर्थों में सार्थक हो सकता है, जब हम अपनी सोच के साथ - साथ, अपने कर्म में भी बदलाव लायें, वो केवल ब्रह्मज्ञान की ध्यान साधना से ही संभव हो पाएगा | जब हम बदलेंगे, फिर दुनिया बदलेगी | अंत में मेरी और से सभी को रक्षा - बंधन के इस पर्व की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनायें |

सतगुरु क्षमा कर दो उनको

सतगुरु क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

जो विवेक से शून्य, दें कोरे तर्क,
बिन गुरु पाना चाहते ईश्वर |
जो जन्म अनेकों बदल चुके,
विश्वास नहीं परिवर्तन पर |

सतगुरु  क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें दिव्य प्रकाश का भान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||

जो नहीं जानते गुरु उन्हें,
भवसागर पार करा सकता |
जो नहीं मानते कोई उन्हें,
घट में ईश्वर दिखला सकता |

सतगुरु  क्षमा कर दो उनको,
जिन्हें निज संस्कृति का मान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं |

अहंकार वश होकर जो,
कठिनाई अपनी बड़ा लेते |
वेदों व् धर्म - ग्रंथों तक को,
जो  मनघड़त ठहरा देते |

सतगुरु  क्षमा कर दो उनको,
स्वीकार जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं |
जिन्हें कौन हो तुम यह ज्ञान नहीं ||