जो दिन आवहि सो दिन जाही ॥करना कूचु रहनु थिरु नाही ॥
संगु चलत है हम भी चलना ॥ दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना ॥१॥
किआ तू सोइआ जागु इआना ॥तै जीवनु जगि सचु करि जाना ॥१॥ रहाउ ॥
जिनि जीउ दीआ सु रिजकु अम्बरावै ॥ सभ घट भीतरि हाटु चलावै ॥
करि बंदिगी छाडि मै मेरा ॥ हिरदै नामु सम्हारि सवेरा ॥२॥
जनमु सिरानो पंथु न सवारा ॥ सांझ परी दह दिस अंधिआरा ॥
कहि रविदास निदानि दिवाने ॥ चेतसि नाही दुनीआ फन खाने ॥३॥२॥ (Gurbani - 793)
श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं कि जो दिन आते हैं,वे बीत जाते हैं | इस संसार से सबको एक दिन कूच करना है | कोई भी यहाँ स्थिरता से (हमेशा के लिए ) रहने नहीं आता | हमारे साथी चले जा रहे हैं और हमें भी चलना ही है | हमारी परमार्थी यात्रा बहुत दूर की है और सिर पर मौत मंडरा रही है | ऐसी हालत में, रे मूर्ख! तू सोया क्यों पड़ा है ? जाग | क्या तूने इस जीवन और जगत को सत्य समझ रखा है ? (हम छल कपट और चतुराई से अधिक से अधिक पैसा जमा करने में ही दिन रात लगे रहते हैं ) जिस परमात्मा ने तुझे जीवन दिया है, वह तेरी जीविका का भी प्रबन्ध करता है | घट - घट में बैठा परमात्मा मानो हमारी सभी आवश्यक सामग्रियों का बाजार खोले हुए है | उस परमात्मा की भक्ति कर तथा "यह मैं हूँ, यह मेरा है" - इस प्रकार के अभिमान को छोड़ | जल्दी से जल्दी परमात्मा की शरण ले | तेरा जीवन बीत चला और अभी तक तू परमात्मा की राह पर नहीं आया ? जीवन की संध्या के आते ही दसों दिशाएँ अंधकारमय हो जायेंगी | श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं : ए पगले! यह दुनिया आखिर विनष्ट हो जाने वाली है | तू चेतता क्यों नहीं ?
ऊचे मंदर साल रसोई ॥ एक घरी फुनि रहनु न होई ॥१॥
इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी ॥ जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी ॥१॥ रहाउ ॥
भाई बंध कुट्मब सहेरा ॥ ओइ भी लागे काढु सवेरा ॥२॥
घर की नारि उरहि तन लागी ॥उह तउ भूतु भूतु करि भागी ॥३॥
कहि रविदास सभै जगु लूटिआ ॥ हम तउ एक रामु कहि छूटिआ ॥४॥३॥ (Gurbani - 794)
भले ही हमारा महल ऊँचा हो और रसोई घर आलीशान हो, पर मौत हमें इनमें एक पल भी अधिक टिकने नहीं देती | यह शरीर घास की टट्टी जैसा है और घास जैसा ही यह जल कर मिट्टी में मिल जाता है | भाई - बन्धु तथा सगे - सम्बन्धी शरीर का अंत होते ही इसे जल्दी से जल्दी बाहर निकालने में लग जातें हैं | यहाँ तक कि स्त्री जो इसको जीवित समय इतना प्रेम करती है, वह भी इस मुर्दे शरीर को देख 'भूत - भूत कह कर भागती है | श्री गुरू रविदास जी कहते हैं : काल ने इस संसार को लूटा है, पर मैं परमात्मा का सुमिरन करके इस काल के चंगुल से बच गया हूँ |
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करें, जो दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है | तभी हमारा मानव जीवन सार्थक हो सकता है |
संगु चलत है हम भी चलना ॥ दूरि गवनु सिर ऊपरि मरना ॥१॥
किआ तू सोइआ जागु इआना ॥तै जीवनु जगि सचु करि जाना ॥१॥ रहाउ ॥
जिनि जीउ दीआ सु रिजकु अम्बरावै ॥ सभ घट भीतरि हाटु चलावै ॥
करि बंदिगी छाडि मै मेरा ॥ हिरदै नामु सम्हारि सवेरा ॥२॥
जनमु सिरानो पंथु न सवारा ॥ सांझ परी दह दिस अंधिआरा ॥
कहि रविदास निदानि दिवाने ॥ चेतसि नाही दुनीआ फन खाने ॥३॥२॥ (Gurbani - 793)
श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं कि जो दिन आते हैं,वे बीत जाते हैं | इस संसार से सबको एक दिन कूच करना है | कोई भी यहाँ स्थिरता से (हमेशा के लिए ) रहने नहीं आता | हमारे साथी चले जा रहे हैं और हमें भी चलना ही है | हमारी परमार्थी यात्रा बहुत दूर की है और सिर पर मौत मंडरा रही है | ऐसी हालत में, रे मूर्ख! तू सोया क्यों पड़ा है ? जाग | क्या तूने इस जीवन और जगत को सत्य समझ रखा है ? (हम छल कपट और चतुराई से अधिक से अधिक पैसा जमा करने में ही दिन रात लगे रहते हैं ) जिस परमात्मा ने तुझे जीवन दिया है, वह तेरी जीविका का भी प्रबन्ध करता है | घट - घट में बैठा परमात्मा मानो हमारी सभी आवश्यक सामग्रियों का बाजार खोले हुए है | उस परमात्मा की भक्ति कर तथा "यह मैं हूँ, यह मेरा है" - इस प्रकार के अभिमान को छोड़ | जल्दी से जल्दी परमात्मा की शरण ले | तेरा जीवन बीत चला और अभी तक तू परमात्मा की राह पर नहीं आया ? जीवन की संध्या के आते ही दसों दिशाएँ अंधकारमय हो जायेंगी | श्री गुरू रविदास महाराज जी कहते हैं : ए पगले! यह दुनिया आखिर विनष्ट हो जाने वाली है | तू चेतता क्यों नहीं ?
ऊचे मंदर साल रसोई ॥ एक घरी फुनि रहनु न होई ॥१॥
इहु तनु ऐसा जैसे घास की टाटी ॥ जलि गइओ घासु रलि गइओ माटी ॥१॥ रहाउ ॥
भाई बंध कुट्मब सहेरा ॥ ओइ भी लागे काढु सवेरा ॥२॥
घर की नारि उरहि तन लागी ॥उह तउ भूतु भूतु करि भागी ॥३॥
कहि रविदास सभै जगु लूटिआ ॥ हम तउ एक रामु कहि छूटिआ ॥४॥३॥ (Gurbani - 794)
भले ही हमारा महल ऊँचा हो और रसोई घर आलीशान हो, पर मौत हमें इनमें एक पल भी अधिक टिकने नहीं देती | यह शरीर घास की टट्टी जैसा है और घास जैसा ही यह जल कर मिट्टी में मिल जाता है | भाई - बन्धु तथा सगे - सम्बन्धी शरीर का अंत होते ही इसे जल्दी से जल्दी बाहर निकालने में लग जातें हैं | यहाँ तक कि स्त्री जो इसको जीवित समय इतना प्रेम करती है, वह भी इस मुर्दे शरीर को देख 'भूत - भूत कह कर भागती है | श्री गुरू रविदास जी कहते हैं : काल ने इस संसार को लूटा है, पर मैं परमात्मा का सुमिरन करके इस काल के चंगुल से बच गया हूँ |
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करें, जो दीक्षा के समय परमात्मा का दर्शन करवा दे | उस के बाद ही भक्ति की शुरुआत होती है | तभी हमारा मानव जीवन सार्थक हो सकता है |
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