आज के समाज में धार्मिक गुरुओं की कोई कमी नहीं है, इन्सान जब ऐसे गुरूओं को शरण में जाता है, तो सब के अपने - अपने परमात्मा की भक्ति के मार्ग हैं, वो उलझ जाता है, कौन सा मार्ग सही है | ऐसा ही प्रशन एक वार एक व्यक्ति ने गुरूदेव सर्व श्री आशुतोष महाराज जी के समक्ष्य रखा |
प्रशन: महाराज जी,यहाँ आने से पहले मैं अनेक गुरूओं के पास गया | सब के समक्ष्य अपनी यह जिज्ञासा रखी कि आप मुझे परमात्मा का दर्शन करा दीजिए | पर सभी ने एक ही उत्तर दिया कि परमात्मा का दर्शन करना इतना सहज नहीं है | पहले स्वयं को पात्र बनाओ | अपने भीतर सदगुणों का विकास करो | दान - पुण्य के द्वारा स्वयं को निर्मल - पवित्र करो | तपस्या करो | तब कहीं जाकर तुम परमात्म - दर्शन के अधिकारी बनोगे | पर आपने अभी अपने प्रवचनों में कहा कि परमात्म - दर्शन भक्ति मार्ग का पहला चरण है | दर्शन होने के बाद ही भक्ति शुरू होती है | मैं तो उलझ गया हूँ | कृपया मेरा मार्ग दर्शन करें |
उत्तर: आप पात्र हैं | परमात्म-दर्शन के अधिकारी हैं, क्यों कि आपके पास मानव तन है | शास्त्रों में कहा गया - 'भई परापति मानुख देहुरीआ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ |' हे जीव, यह तेरी गोबिंद से, परमात्मा से मिलने की बारी है, क्यों कि तुझे मनुष्य की देह प्राप्त हुई है | इसके आलावा और कोई शर्त नहीं रखी गयी | दूसरा आपमें तो जिज्ञासा भी है | यदि अब भी कोई कहता है कि आप परमात्म - दर्शन के पात्र नहीं, तो वह गलत कहता है | आप को भ्रमित कर रहा है |
आपने वह कहावत तो सुनी होगी - 'न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी |' एक बार किसी ने राधा से कहा - आप नाच कर दिखाइए | राधा ने एक शर्त रख दी-पहले नौ मन तेल लाओ | फिर नाचूंगी | और हम सब जानते हैं कि न कभी नौ मन तेल एकत्र हुआ, न कभी राधा नाची | बस तभी से यह कहावत प्रचलित हो गई | इसी प्रकार परमात्म-दर्शन के बिना वास्तविक ज्ञान, तप, दान आदि को समझा ही नहीं जा सकता | और न ही स्व - प्रयासों द्वारा व्यक्ति में कभी सदगुण आ सकते हैं | इस हिसाब से वह कभी पात्र बनेगा ही नहीं | यह बात तथाकथित गुरू भी जानते हैं | इस लिए वे ऐसी असाध्य शर्त रख देते हैं | यही सोचकर कि न यह अनुगामी एक निर्मल - सदगुणी पात्र या अधिकारी बनेगा और न ही उनसे परमात्म - दर्शन करवाने की आशा करेगा |
वस्तुत: हकीकत तो यह है कि वे स्वयं अज्ञानी हैं, अपूर्ण हैं | उनके पास ज्ञान कुंजी है ही नहीं, जिसके द्वारा वह आपका दसवां द्वार खोलकर आपके भीतरी जगत में प्रवेश करा सकें | उनके पास वह ब्रह्मज्ञान ही नहीं, जिस के द्वारा वे आपके अंतस में प्रकाश प्रकट कर सकें | आपको परमात्मा का साक्षात्कार करा सकें |
दूसरा यदि वे यह कहतें हैं कि परमात्मा का दर्शन दान, तपस्या या अन्य ब्रह्म कर्म - काण्ड करने के पछ्चात ही संभव है, तो उनसे प्रशन कीजिए कि - यदि ऐसा है, तो फिर स्वयं भगवन श्री कृषण ने गीता के 11 वें अध्याय के 53 वें श्लोक में यह क्यों कहा -
हे अर्जुन न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही मैं इस प्रकार देखा जा सकता हूँ, जैसा तुमने मुझे देखा है |
सारत: आपके पास मानव तन है | आपमें जिज्ञासा है | बस यदि आपको अब आवश्कयता है, तो एक पूर्ण गुरू की | आपका पात्र भरने की शमता रखने वाला एक ब्रह्मज्ञानी की | अत: आप एक पूर्ण ब्रह्मनिष्ट सतगुरू की खोज करें | उनके सान्निध्य में पहुंचकर ब्रह्मज्ञान की याचना करें | वे आप को ज्ञान दीक्षा के समय ही आपके अंतस में परमात्मा का प्रतक्ष्य साक्षात्कार करा देंगे | उस के बाद ध्यान साधना का निरंतर अभ्यास करके आप स्वयं को सही अर्थों में निर्मल, पावन और सदगुणी भी बना सकते हैं |
प्रशन: महाराज जी,यहाँ आने से पहले मैं अनेक गुरूओं के पास गया | सब के समक्ष्य अपनी यह जिज्ञासा रखी कि आप मुझे परमात्मा का दर्शन करा दीजिए | पर सभी ने एक ही उत्तर दिया कि परमात्मा का दर्शन करना इतना सहज नहीं है | पहले स्वयं को पात्र बनाओ | अपने भीतर सदगुणों का विकास करो | दान - पुण्य के द्वारा स्वयं को निर्मल - पवित्र करो | तपस्या करो | तब कहीं जाकर तुम परमात्म - दर्शन के अधिकारी बनोगे | पर आपने अभी अपने प्रवचनों में कहा कि परमात्म - दर्शन भक्ति मार्ग का पहला चरण है | दर्शन होने के बाद ही भक्ति शुरू होती है | मैं तो उलझ गया हूँ | कृपया मेरा मार्ग दर्शन करें |
उत्तर: आप पात्र हैं | परमात्म-दर्शन के अधिकारी हैं, क्यों कि आपके पास मानव तन है | शास्त्रों में कहा गया - 'भई परापति मानुख देहुरीआ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ |' हे जीव, यह तेरी गोबिंद से, परमात्मा से मिलने की बारी है, क्यों कि तुझे मनुष्य की देह प्राप्त हुई है | इसके आलावा और कोई शर्त नहीं रखी गयी | दूसरा आपमें तो जिज्ञासा भी है | यदि अब भी कोई कहता है कि आप परमात्म - दर्शन के पात्र नहीं, तो वह गलत कहता है | आप को भ्रमित कर रहा है |
आपने वह कहावत तो सुनी होगी - 'न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी |' एक बार किसी ने राधा से कहा - आप नाच कर दिखाइए | राधा ने एक शर्त रख दी-पहले नौ मन तेल लाओ | फिर नाचूंगी | और हम सब जानते हैं कि न कभी नौ मन तेल एकत्र हुआ, न कभी राधा नाची | बस तभी से यह कहावत प्रचलित हो गई | इसी प्रकार परमात्म-दर्शन के बिना वास्तविक ज्ञान, तप, दान आदि को समझा ही नहीं जा सकता | और न ही स्व - प्रयासों द्वारा व्यक्ति में कभी सदगुण आ सकते हैं | इस हिसाब से वह कभी पात्र बनेगा ही नहीं | यह बात तथाकथित गुरू भी जानते हैं | इस लिए वे ऐसी असाध्य शर्त रख देते हैं | यही सोचकर कि न यह अनुगामी एक निर्मल - सदगुणी पात्र या अधिकारी बनेगा और न ही उनसे परमात्म - दर्शन करवाने की आशा करेगा |
वस्तुत: हकीकत तो यह है कि वे स्वयं अज्ञानी हैं, अपूर्ण हैं | उनके पास ज्ञान कुंजी है ही नहीं, जिसके द्वारा वह आपका दसवां द्वार खोलकर आपके भीतरी जगत में प्रवेश करा सकें | उनके पास वह ब्रह्मज्ञान ही नहीं, जिस के द्वारा वे आपके अंतस में प्रकाश प्रकट कर सकें | आपको परमात्मा का साक्षात्कार करा सकें |
दूसरा यदि वे यह कहतें हैं कि परमात्मा का दर्शन दान, तपस्या या अन्य ब्रह्म कर्म - काण्ड करने के पछ्चात ही संभव है, तो उनसे प्रशन कीजिए कि - यदि ऐसा है, तो फिर स्वयं भगवन श्री कृषण ने गीता के 11 वें अध्याय के 53 वें श्लोक में यह क्यों कहा -
हे अर्जुन न वेदों से, न तप से, न दान से और न यज्ञ से ही मैं इस प्रकार देखा जा सकता हूँ, जैसा तुमने मुझे देखा है |
सारत: आपके पास मानव तन है | आपमें जिज्ञासा है | बस यदि आपको अब आवश्कयता है, तो एक पूर्ण गुरू की | आपका पात्र भरने की शमता रखने वाला एक ब्रह्मज्ञानी की | अत: आप एक पूर्ण ब्रह्मनिष्ट सतगुरू की खोज करें | उनके सान्निध्य में पहुंचकर ब्रह्मज्ञान की याचना करें | वे आप को ज्ञान दीक्षा के समय ही आपके अंतस में परमात्मा का प्रतक्ष्य साक्षात्कार करा देंगे | उस के बाद ध्यान साधना का निरंतर अभ्यास करके आप स्वयं को सही अर्थों में निर्मल, पावन और सदगुणी भी बना सकते हैं |
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