जहाँ न + मन है, वही नमन है |
जहाँ नमन है, वही चमन है |
समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | दरबार के कार्य के लिए तन की भागम - भाग या मजदूरी भर नहीं | मांसपेशियों या हड्डियों की कसरत भी नहीं है | माने - मात्र तन की पोटली बंधे दरबार के लिए आ जाना समर्पण नहीं है | हमारी इस बंधी पोटली में ढेर सारा सूक्षम साज - सामान मॉल असबाब भी तो भरा पड़ा है | उसे क्यों सहेजे हैं ? उस को कब अर्पित करेंगे ?
समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | इस हद तक कि जहाँ एक भाव - तरंग भी अपनी चेष्टा या कामना से न उठे | तभी तो समर्पण की विशालता को स्वयं गुरु महाराज जी ने केवल एक पंकित में बंधते हुए यही कहा था -' समर्पण वह है, यहाँ इष्ट का एक पल का भी आभाव आपको बैचैन कर दे |' माने उसके इशारों का आभाव हमारी जीवन - प्रणाली ही ठप्प कर के रख दे | मन को कंगाल कर दे | जीवन की गति के गुरु ही आधार, गुरु ही सार हो जाएँ | तन - मन अपनी चाल चलना छोड़कर उनके इशारों पर थिरकने लगे | यह है समर्पण | मात्र घर छोड़ कर आना भर समर्पण नहीं | सर्वात्म को उलीच कर देना - यह है समर्पण |
जब हमारा गुरु पूर्ण है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण है | अपनाना पूर्ण है | तो बदले में हमारा देना पूर्ण क्यों नहीं है? समर्पण पूर्ण क्यों नहीं है ? मैं अपना भी रहूँ और समर्पित भी कहलाऊँ - यह तो आडम्बर होगा | समर्पण का मजाक उड़ाना होगा | समझ लें, खंडित समर्पण, समर्पण नहीं होता | अपने में से थोडा सा निकल कर गुरु को अर्पित कर देना - यह समर्पण है ही नहीं | अधूरी आंशिक आहुतियों से कभी समर्पण की ज्वाला जाज्वल्यमान नहीं होती | अपूर्णता में तो वह अपनी सारी गरिमा, सारी महिमा खो बैठती है | इस लिए समर्पण सदा सर्वात्म देकर महिमामंडित होता है | पूर्णता की पीठिका पर ही सीधा स्थिर खड़ा रह पाता है |
जहाँ नमन है, वही चमन है |
समर्पण मात्र शरीर का अर्पण नहीं है | मस्तक का झुकना भर नहीं है | दरबार के कार्य के लिए तन की भागम - भाग या मजदूरी भर नहीं | मांसपेशियों या हड्डियों की कसरत भी नहीं है | माने - मात्र तन की पोटली बंधे दरबार के लिए आ जाना समर्पण नहीं है | हमारी इस बंधी पोटली में ढेर सारा सूक्षम साज - सामान मॉल असबाब भी तो भरा पड़ा है | उसे क्यों सहेजे हैं ? उस को कब अर्पित करेंगे ?
समर्पण क्या है? मन का अर्पण है | इस हद तक कि जहाँ एक भाव - तरंग भी अपनी चेष्टा या कामना से न उठे | तभी तो समर्पण की विशालता को स्वयं गुरु महाराज जी ने केवल एक पंकित में बंधते हुए यही कहा था -' समर्पण वह है, यहाँ इष्ट का एक पल का भी आभाव आपको बैचैन कर दे |' माने उसके इशारों का आभाव हमारी जीवन - प्रणाली ही ठप्प कर के रख दे | मन को कंगाल कर दे | जीवन की गति के गुरु ही आधार, गुरु ही सार हो जाएँ | तन - मन अपनी चाल चलना छोड़कर उनके इशारों पर थिरकने लगे | यह है समर्पण | मात्र घर छोड़ कर आना भर समर्पण नहीं | सर्वात्म को उलीच कर देना - यह है समर्पण |
जब हमारा गुरु पूर्ण है | उनका प्रेम पूर्ण है | उनकी कृपा पूर्ण है | अपनाना पूर्ण है | तो बदले में हमारा देना पूर्ण क्यों नहीं है? समर्पण पूर्ण क्यों नहीं है ? मैं अपना भी रहूँ और समर्पित भी कहलाऊँ - यह तो आडम्बर होगा | समर्पण का मजाक उड़ाना होगा | समझ लें, खंडित समर्पण, समर्पण नहीं होता | अपने में से थोडा सा निकल कर गुरु को अर्पित कर देना - यह समर्पण है ही नहीं | अधूरी आंशिक आहुतियों से कभी समर्पण की ज्वाला जाज्वल्यमान नहीं होती | अपूर्णता में तो वह अपनी सारी गरिमा, सारी महिमा खो बैठती है | इस लिए समर्पण सदा सर्वात्म देकर महिमामंडित होता है | पूर्णता की पीठिका पर ही सीधा स्थिर खड़ा रह पाता है |
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