सफल जीवन की परिभाषा क्या है? संसारियों के दृष्टिकोण से उन्हीं व्यक्तियों का जीवन सफल है, जिनके पास आपर धन - संपदा है, जो उच्च पद पर आसीन हैं, हजारों - लाखों लोग जिनके मान - सम्मान में सिर झुकाते
हैं |
परन्तु महापुरषों ने धन-पद- प्रतिष्ठा को सफलता का मापदंड कभी नहीं माना | उनके अनुसार सफलता क्षणभंगुरता में नहीं, शाश्वत में है | माया में नहीं, ब्रह्म में है | छाया में नहीं, यथार्थ में है | और चूँकि संसार के ये सभी पदार्थ शंभुन्गर है, संसार स्वयं माया है, यथार्थ की छाया है, इसलिए इन्हें प्राप्त कर लेने में जीवन की सफलता हो नहीं सकती |
महात्मा बुद्ध के विषय में आता है - एक बार वे बनारस में एक बृक्ष के नीचे ध्यान - साधना में बैठे थे | तभी वहां से वाराणसी का राजा अपने घोड़े पर गुजरा | एकाएक उसकी दृष्टि महात्मा बुद्ध के चेहरे पर पड़ी | उनके मुखमंडल पर दिव्य ओज था, एक अलौकिक आकर्षण! वे अत्यंत आनंद की अवस्था में दिख रहे थे | राजा घोड़े से उतरा और महात्मा बुद्ध के पास गया | उन्हें प्रणाम करके बोला - भगवन, आपको देखकर मेरे मन में एक द्वंद्ध खड़ा हुआ है | कृपा उस का समाधान करें | ...मैं वाराणसी का राजा हूँ | मेरे पास आपर धन - संम्पदा है, वैभव है | यह जो मैंने मुकुट पहना हुआ है, इसमें हजारों अमूल्य रत्न लगे हैं | मेरे ये वस्त्र और जूते भी वेशकीमती रत्नों से जड़े हैं | इतना ही कीमती मेरा यह घोडा है | कई राज्यों - देशों पर मैं विजय प्राप्त कर चुका हूँ | विशाल साम्राज्य का स्वामी हूँ | पर इतना मात्र होते हुए भी मैं दुखी हूँ | लगता है कि संसार में सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया | असफल ही रहा | आपके पास कुछ नहीं है | फिर भी आप प्रफुल्लित हैं, प्रसन्न हैं | आप के रोम - रोम से आनन्द का झरना फूट रहा है! ऐसा क्यों?
बुद्ध मुस्कराए! फिर बोले - 'राजन! सफलता बाहर नहीं, भीतर है | सांसारिक वस्तुओं का परिग्रह कर लेने में नहीं, परमात्मा की प्राप्ति में है | एक समय मैं भी तुम्हारी तरह दरिद्र - समृद्ध था | हो सकता है, उस समय मेरे पास बाहरी तो सब कुछ था, पर आंतरिक कुछ नहीं | महल तो सुख साधनों से अटे पड़े थे | पर आंतरिक घर सूना था | इसलिए मैं समृद्ध होते हुए भी दरिद्र था | जब मैंने अंतर्जगत में परवेश किया, तो पाया यह प्रदेश प्रभु का साम्राज्य है | साक्षात् ब्रह्म इस राज्य का स्वामी है | जब तक आपने अंतर्दृष्टि के द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं किया, उससे एकाकार नहीं हुए, तब तक बाकी सब होते हुए भी आप दरिद्र हो | और उस एक को मिलने पर बाकी कुछ न होते हुए भी समृद्द हो | यह समृद्धि ही जीवन में शांति व आनंद देती है | जीवन को पूर्णता व सफलता प्रदान करती है | आगे ये कथा बताती है की उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया |
सारत: सफलता माया को प्राप्त करने में नहीं, ब्रह्म की प्राप्ति में है | इसलिए एक पूर्ण गुरु की शरणागत होकर अपने घट में इश्वर का साक्षात्कार दर्शन करो | तदोपरांत साधना की गहराईयों में उतारकर उससे एकमिक हो | साथ ही, इस महान ब्रह्मज्ञान का जन - जन तक प्रचार परसार करो! तभी आपका जीवन सफलता की परिभाषा बन सकता है |
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परन्तु महापुरषों ने धन-पद- प्रतिष्ठा को सफलता का मापदंड कभी नहीं माना | उनके अनुसार सफलता क्षणभंगुरता में नहीं, शाश्वत में है | माया में नहीं, ब्रह्म में है | छाया में नहीं, यथार्थ में है | और चूँकि संसार के ये सभी पदार्थ शंभुन्गर है, संसार स्वयं माया है, यथार्थ की छाया है, इसलिए इन्हें प्राप्त कर लेने में जीवन की सफलता हो नहीं सकती |
महात्मा बुद्ध के विषय में आता है - एक बार वे बनारस में एक बृक्ष के नीचे ध्यान - साधना में बैठे थे | तभी वहां से वाराणसी का राजा अपने घोड़े पर गुजरा | एकाएक उसकी दृष्टि महात्मा बुद्ध के चेहरे पर पड़ी | उनके मुखमंडल पर दिव्य ओज था, एक अलौकिक आकर्षण! वे अत्यंत आनंद की अवस्था में दिख रहे थे | राजा घोड़े से उतरा और महात्मा बुद्ध के पास गया | उन्हें प्रणाम करके बोला - भगवन, आपको देखकर मेरे मन में एक द्वंद्ध खड़ा हुआ है | कृपा उस का समाधान करें | ...मैं वाराणसी का राजा हूँ | मेरे पास आपर धन - संम्पदा है, वैभव है | यह जो मैंने मुकुट पहना हुआ है, इसमें हजारों अमूल्य रत्न लगे हैं | मेरे ये वस्त्र और जूते भी वेशकीमती रत्नों से जड़े हैं | इतना ही कीमती मेरा यह घोडा है | कई राज्यों - देशों पर मैं विजय प्राप्त कर चुका हूँ | विशाल साम्राज्य का स्वामी हूँ | पर इतना मात्र होते हुए भी मैं दुखी हूँ | लगता है कि संसार में सब कुछ पाकर भी कुछ नहीं पाया | असफल ही रहा | आपके पास कुछ नहीं है | फिर भी आप प्रफुल्लित हैं, प्रसन्न हैं | आप के रोम - रोम से आनन्द का झरना फूट रहा है! ऐसा क्यों?
बुद्ध मुस्कराए! फिर बोले - 'राजन! सफलता बाहर नहीं, भीतर है | सांसारिक वस्तुओं का परिग्रह कर लेने में नहीं, परमात्मा की प्राप्ति में है | एक समय मैं भी तुम्हारी तरह दरिद्र - समृद्ध था | हो सकता है, उस समय मेरे पास बाहरी तो सब कुछ था, पर आंतरिक कुछ नहीं | महल तो सुख साधनों से अटे पड़े थे | पर आंतरिक घर सूना था | इसलिए मैं समृद्ध होते हुए भी दरिद्र था | जब मैंने अंतर्जगत में परवेश किया, तो पाया यह प्रदेश प्रभु का साम्राज्य है | साक्षात् ब्रह्म इस राज्य का स्वामी है | जब तक आपने अंतर्दृष्टि के द्वारा उसका साक्षात्कार नहीं किया, उससे एकाकार नहीं हुए, तब तक बाकी सब होते हुए भी आप दरिद्र हो | और उस एक को मिलने पर बाकी कुछ न होते हुए भी समृद्द हो | यह समृद्धि ही जीवन में शांति व आनंद देती है | जीवन को पूर्णता व सफलता प्रदान करती है | आगे ये कथा बताती है की उस राजा ने महात्मा बुद्ध से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सफल किया |
सारत: सफलता माया को प्राप्त करने में नहीं, ब्रह्म की प्राप्ति में है | इसलिए एक पूर्ण गुरु की शरणागत होकर अपने घट में इश्वर का साक्षात्कार दर्शन करो | तदोपरांत साधना की गहराईयों में उतारकर उससे एकमिक हो | साथ ही, इस महान ब्रह्मज्ञान का जन - जन तक प्रचार परसार करो! तभी आपका जीवन सफलता की परिभाषा बन सकता है |
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