Sunday, January 23, 2011

नज़र है, तो नज़ारे हैं! दृष्टि है, तो दर्शन है!




अन्धकार किसे अच्छा लगता? उल्लू जैसे निशाचारों या कॉकरोच, मकड़ी जैसे कीड़े मकोडों को छोड़कर शायद किसी को नहीं! क्या आप जानते हैं, आज के वैज्ञानिक तो रात के प्राकृतिक अंधकार तक से घ्रृणा करते हैं? इसलिए उसे भी रोशन करने की फिराक में हैं। इसकेलिए एक तकनीक सुझाई जा रही है। वह यह कि प्रयोगशालाओं में फ्यूजन रिएक्शन द्वारा hydrogen का एक सूर्य बनाया जाए। जिससे कि पृथ्वी के रात वाले इलाको पर उस सूर्य की रोशनी पड़ सके।
तो देखा बंधुओं कितनी युद्धस्तरीय कोशिशे हो रही हैं अन्धकार को खदेड़ने की। परन्तु भीतरी अन्धकार? क्या कभी आपको उससे घृणा हुई?झुंझलाहट हुई? चलिए इसी पल अपने नेत्र मूंदे। हाँ… हाँ,आगे का लेख बाद में पढिएगा- पहले नेत्र मूंदे! किसका साक्षात्कार हुआ? भीतर कौन अपना आसन जमाये बैठा है?-अंधकार! घोर निशा!यही न। कभी सोचा इस आतंरिक अमावस्या को हरने के लिए कौन सा सूर्य उजागर किया जाए? नहीं सोचा तो सोचिये बंधुओं! कारण कि बाहरी अंधकार तो केवल कुछ अस्तव्यस्तता; कुछ शिथिलता या कुछ घबराहट पैदा करता है। परन्तु भीतरी अंधकार?उसकी तो बस पूछिये मत! काम क्रोध लोभ जैसे विकार, दुःख-क्लेश, अशान्ति, अधीरता… चौरासी का भव- बंधन- ये सब हमें इसी अँधेरे की दी हुई सौगाते हैं।
इसलिये हमारे अध्यात्म जगत के वैज्ञानिकों ने इस रात को सुबह में बदलने के लिए एक अमोघ तकनीक का आविष्कार किया था। उनके अनुसार इश्वर अन्तर्जगत का सूर्य है- आदित्यवर्ण तमसः परस्तात। बस जरूरत है अपने भीतरी किवाड़ खोलकर उसे प्रकट करने की! अन्दर झांक कर उसका साक्षात दर्शन करने की!
जानते हैं कि इश्वर का दर्शन कैसे सम्भव है।किस माध्यम से इश्वर को देखा या प्रत्यक्ष किया जा सकता है?एक बार यही प्रश्न श्री आशुतोष महाराज जी से किसी बुद्धिजीवी ने पूछा-‘ आप दावे से कहते हैं कि ईश्वरीय दर्शन संभव हैं। परन्तु मैंने अपना पूरा प्रयास करके देख लिया। भीतर-बहार, मुझे कहीं भी प्रभु का साक्षात्कार नहीं हुआ। अब आप ही बताएं कि उसे किस प्रकार देखुँ?’जिज्ञासु की दुविधा सुन कर गुरु महाराज जी मुस्कुराए। उन्होंने समीप खड़े एक शिष्य को दही लेकर आने को कहा।आज्ञा का तत्क्षण पालन हुआ।दही से भरा बर्तन जिज्ञासू के सामने था।उसकी ओर इंगित करके गुरु महाराज जी बोले-‘आप एक वैज्ञानिक वृति के बुद्धिजीवी व्यक्ति हो। इसलिये जरूर जानते होंगे की यह दही किस तत्व सै परिपूर्ण है?’
जिज्ञासु- दूध से!
महाराज जी- नहीं, मैं सूक्ष्म तत्व की बात कर रहा हूँ।वास्तव में, यह दही लेक्टोबैसीलस (lactobacillus) नमक सूक्ष्म जीवाणुओं से भरी हुई है।परन्तु, आप बताइए,क्या आप इन सूक्ष्म जीवों को देख पा रहे हैं?
जिज्ञासु- हैं नहीं!
महाराज जी- सत्य है! आपके स्थूल नेत्र इस स्तर कि सूक्ष्मता को देख पाने में असमर्थ हैं।फिर भी आप चाहे तो इन्हें देख सकते हैं…जिज्ञासू तुरंत आतुरता से बोला-‘जी हाँ जानता हूँ। सूक्ष्मदर्शी यंत्र (Microscope) से मैं इन्हें देख सकता हूँ’ उत्तरस्वरूप श्री महाराज श्री ने समझाया-बिलकुल ठीक! इसी प्रकार वह ईश्वर भी इस सम्पूर्ण संसार व आपके भीतर समाया हुआ है। परन्तु अपने सुक्ष्मतम रूप में! इस सूक्ष्म सत्ता को आपकी आँखें नहीं देख सकती ।उसके साक्षात्कार के लिए भी एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र चाहिए। एक ऐसी महातेजस्विनी आँख, जो इस सूक्ष्मतम तत्व को बेध सकती हो। यह आँख प्राप्त होते ही ईश्वरका दर्शन सहज संभव है।
मनुष्य का यह आध्यात्मिक अंधापन’दिव्य दृष्टि’ से दूर हो सकता है। भगवान् श्री कृष्ण ने भी संग्राम क्षेत्र में अर्जुन के सामने यही समस्या और समाधान रखे। पहले उच्चारा- न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा-हे अर्जुन!तू इन आँखों से मुझे नहीं देख सकता। इससे पहले कि अधीर, विषादग्रस्त अर्जुन और असमंजस में पड़ जाता, वे बोले- दिव्यं ददामि ते चक्षुःपश्य मे योगमैश्वरम- घबराओ नहीं अर्जुन!इसका अभिप्राय यह नहीं की तुम मेरा साक्षात्कार ही नहीं कर सकते। निःसंदेह कर सकते हो! लो, इसके लिए मैं तुम्हे एक दिव्य चक्षु प्रदान करता हूँ।
किसी ने इस तेजस्वी आंख को ‘दिव्य दृष्टि’ कहा, किसी ने ‘दिव्य चक्षु’ और किसी ने ‘ज्ञान चक्षु’।पाश्चात्य संत ईसा मसीह ने इसे ही ‘सिंगल आइ’ या ‘आइ ऑफ़ द सोल’ कि संज्ञा दी और पुराणों ने ‘तृतीय या शिव नेत्र’ की ।
तो बंधुयों , यदि आपमें भी इश्वर-दर्शन कि सच्ची जिज्ञासा ठाठें मार रही है, तो इसकी पूर्ति के लिए पहले एक मौलिक शर्त पूरी करें। पूर्ण गुरु से दिव्य दृष्टि प्राप्त करें। क्योंकि नज़र है, तो नज़ारें हैं। दृष्टि है, तो दर्शन है। एक बार एक सज्जन श्री गुरु आशुतोष महाराज जी के सानिध्य में उपस्थित हुए। जिज्ञासा रखी- ‘महाराज बताएं कि क्या हकीकत में इश्वर का दर्शन होता है?’ श्री महाराज जी ने कहा –‘देखिये, दरअसल प्रश्न यह नहीं कि क्या इश्वर का दर्शन संभव हैं। प्रश्न तो यह है कि क्या आपका दिव्य नेत्र जाग्रत है? यदि है, तो आप अपनी जिज्ञासा का स्वयं समाधान कर सकते हैं। अपनी इस दृष्टि को अंतरज़गत में केन्द्रित करके! वैसे भी, प्रत्यक्षं किम प्रमाणं – प्रत्यक्ष को फिर किसी प्रमाण कि बैसाखी कि आवश्यकता नहीं होती। और यदि आपका यह नेत्र ही जागृत नहीं, तो ठोस तर्क और प्रमाण भी आपको विश्वास दिलाने में असमर्थ रहेंगें।
इसीलिए सबसे पहले इस दिव्य नेत्र को खुलवाएं।’ यह नेत्र आतंरिक और सूक्षम तौर पर आपकी दोनों भृकुटियाँ दे बीच में स्थित है। बिलकुल वहां जहां आप बिन्दी या तिलक लगाते हैं। दरअसल, प्राचीन काल में, तिलक था ही दिव्य नेत्र का प्रतीक। यह अंतर्जगत का दरवाजा है। इस से झाँक कर आप अपने भीतर समाये दिव्य संसार और उसके वासी – ‘इश्वर’ को देख सकते हैं। मात्र पूर्ण गुरु में यह सामर्थ्य है! वे ही अंतर्जगत के ताले को खोल सकते हैं। दिव्य दृष्टि को पाते ही साधक अंतर्जगत के अंतर्हीन, दिव्य और इन्दधनुषी नज़ारे देख देख कर फुला नहीं समाता प्रभु अपने सकल एश्वर्य और सौन्दर्य के साथ उसके भीतर प्रकट हो जातें हैं। अब वह उन्हें देखता है और उनकी और सफर कर पता है।
मेरे बंधुयों, हम अंत में आपसे एक ही बात कहेंगे। आप इस आधुनिक युग के संतानें हैं। आपने संसार कि हर सूक्ष्म सत्ता को उघाड़ कर ही दम लिया हैं। हर सूक्ष्म आवाज़ को सुनने के लिए कान लगाए है। आपको पता चला कि आपके कान केवल 20 Hz से 20 khz तक कि ही आवाज़ सुन सकते हैं इनसे परे कि अल्ट्रासोनिक और इन्फ्रासोनिक रेंज़ के प्रति आप बहरे हैं। पर यह जान कर भी आप झुंझला उठे। आपने चुनौती को स्वीकार! ऐसे ऐसे उत्त्कृष्ट साउंड़ मोनिटर्स और टार्न्सलेटर्स ईजाद किये कि यह कर्णातीत आवाजें भी आपको मधुर गीत सुनाने लगीं। वायुमंडल में फैली सूक्षम तरंगें पर्करानी थी, तो आपने रेडियो यंत्र को निर्माण कर दिखाया। शाबाश! हम आपके इस जूनून और हुनर कि कदर करते हैं। मगर बंधुयों, एक संसार के सूक्ष्मतम सत्ता- वह इश्वर हैं।
आप इस सूक्ष्मतम सत्ता को क्यों नहीं खोज निकालते? प्रकट कर दिखाते? यह निसंदेह संभव है! अध्यात्म विज्ञान ने इसके लिए एक सर्वश्रेषठ यंत्र-‘दिव्य दृष्टि’ का आविष्कार किया है!

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