सेवा एक संग्राम ही है | प्रतिकूल परिस्थितियों से और स्वंय अपने नकारात्मक विचारों से | पर जो सेवक इन परिस्थितियों और विचारों से विचलित न होकर,गुरु-आज्ञा को सर्वोपरि रखकर सेवा में डटा रहता है,वही साधक शूरवीर है और अन्तत: गुरू की कृपा का अधिकारी है |
एक शिष्य को सदैव सजग रहना चाहिए | जब भी कदम पथभ्रष्ट होने लगें या गुरु की स्पष्ट प्रसन्नता न मिले,तो वह स्वाध्याय और प्रार्थना करे | अपनी सारी कमियों को चुन-चुन कर दूर करे | ......याद रहे ,गुरु की कठोरता स्वाध्याय करने की प्रेरणा व सुधार करने का अवसर प्रदान करने के लिए ही होती है,ताकि शिष्य गुरु की कृपा का पूर्ण लाभ प्राप्त कर सके |
यदि गुरु कोई सेवा देते हैं,तो उसको पूरा करने के साधन पहले ही बना देते हैं | बस आवश्यकता है तो गुरु - आज्ञा पर पूर्ण श्रध्दा रखने की और कर्म में पूर्ण प्रयास की |
No comments:
Post a Comment