Sunday, January 23, 2011

सभी को मेरी ओर से लोहड़ी के पर्व की हार्दिक बधाई हो




'ईसर आ दलिदर जा,दलिदर दी जड़ चुल्ले पा' | आग.तिल और इन बोलों के पीछे कुछ आध्यात्मिक कारण भी हैं | श्री गुरू अमरदास महाराज जी गुरबाणी में  कहते हैं -

गुर गिआनु प्रचंडु बलाइआ अगिआनु अंधेरा जाइ ॥२॥ 

जैसे तेज अग्नि लकड़ियों को भसम कर देती हैं,उसी तरह से ज्ञान रुपी अग्नि सारे कर्मों को साड़ कर राख कर देती है | श्री गुरु अमरदास जी कहते हैं कि ज्ञान रुपी अग्नि ने अज्ञानता के अंधेरे को समाप्त कर दिया | लोहड़ी को ठंड का अंतिम दिन माना जाता है | इस के बाद धुंध कम होने लगती है | हमारा जीवन भी अज्ञानता के अंधेरे में डूबा हुआ था,हम भी अज्ञानता रुपी धुंध में अपने मार्ग से भटक जाते हैं |  लोहड़ी से पहले नव वर्ष शुरू होता है,एक नए जीवन की शुरुआत होती है | कुछ  नया करने की इच्छा पैदा होती है,एक नई सवेर,एक नया जन्म | इसी प्रकार जब गुरू हमें ज्ञान प्रदान करता है,तब हमारा नया जन्म होता है | ये जन्म शरीर का नहीं,आत्मा का होता है | जिस के बारे में गुरू साहबान गुरबाणी में कहते हैं 

सतिगुर कै जनमे गवनु मिटाइआ ॥ 
जीसस भी गुरू द्वारा आत्मा के जन्म की बात कर रहे हैं -
Except a man be born again. He cannot see the kingdom of God. 

इस आत्मा के जागरण के बाद ही अग्नि पैदा होती है,जिस में एक सेवक के सभी कर्म सड़ कर राख हो जाते हैं | जो अग्नि में तिल डाले जाते हैं,वो हमारे कर्मों के प्रतीक हैं,ज्ञान रुपी अग्नि धीरे - धीरे कर्मों को भस्म करना शुरू कर देती है | हमारे सभी कर्म चाहे वो अच्छे हो,चाहे वो बुरे हो,हमारे बंधन का कारण बनते हैं | जो शब्द 'ईसर आ दलिदर जा' बोले जाते हैं,उनका का भी यही अर्थ है कि हमारे जीवन में परमात्मा का आगमन हो और दलिदर दूर हो | यही सन्देश हमें लोहड़ी का पर्व दे रहा है कि हम भी पूर्ण संत की शरण में जाकर उस ज्ञान को प्राप्त करे | तभी हमारे जीवन में अज्ञानता का अंधकार दूर होगा | 

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