Sunday, January 23, 2011

एक वृद्ध का पछतावा





सूखी - सूखी घास जैसे पानी को तरसती है ,
हाँ, आज मेरी उम्र वैसे जवानी को तरसती है |

क्या समां था वो,क्या वकत था वो - हरि की भक्ति करने का !
अब तो सांसें चंद बची है,कब वकत आ जाए मरने का !

हरि ने भी तब मुझ पर तरस खाया था,
मुझे ज्ञान देने हेतु कुछ संतों को भिजवाया था, 
तब जवानी का आलम भी खूब छाया  था,
और उस वकत मैंने बस तन को ही सजाया था |

याद आता है वो वकत जो रेत की तरह फिसल गया | 
पानी का बहाव था जो निकल गया,बस निकल गया |

अब  जाने कब मौका मिले,रो-रो कर पछताता हूँ,
कोंई मेरा अब  साथी नहीं,बस खुदा से कहता जाता हूँ |
बुढ़ापे के बादलों में जब, मौत की बारिश बरसती है,
हाँ,आज मेरी उम्र जवानी को तरसती है |

इस लिए महापुरष कहते हैं कि जब जागो  तभी सवेरा,परमात्मा किसी न किसी को जरिया बना हम तक सन्देश पहुंचाता है,जो इन्सान उस सन्देश को मान कर उस पर चल पड़ता है, वो अपने जीवन के लक्ष्य  को प्राप्त कर लेता है,जो इन्सान उस को नहीं मानता, उस को पास बाद में केवल पछतावा ही रह जाता है | इस लिए हम भी समय रहते उस सत्य को जान ले,नहीं तो बाद में हमारे पास भी पछतावा ही  रह जायेगा | जीवन का कोई पता नहीं है कब समाप्त हो जाये | इस लिए हम भी पूर्ण संत की खोज करें जो दीक्षा के समय प्रभु का दर्शन करवा दे | तभी हमारा  जीवन सार्थक हो सकता है | 

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