संध्या की बेला थी। सूर्य अपनी सुनहरी लीला समेटने लगा आकाश से भी, पृथ्वी से भी!...अभी तीन दिन पहले ही तो वैशाली के आम्रवन में, महाबुद्ध ने अपने सभी भिक्षुओं (समर्पित शिष्यों)और अनुयायियो की सभा बुलाई थी। प्रवचन करते- करते वे सहसा कह उठे थे-‘ मेरे प्रज्ज्वलित दीपो! सावधान!आज से ठीक चार माह बाद मैं महानिर्वान के शून्य में लीं हो जाऊंगा। अपनी यह देह त्याग दूंगा। इसलिए जो करने योग्य हो, करो। जो लाहा लेना है, ले लो!’
बस तभी से संघ में शाम ढल आई थी। ओहो! क्या दशा थी? मानो हृदयों में विस्फोट हो गया!’ … क्या मतलब? गुरुवार अब नहीं… हम उन्हें उपदेश देते हुए नहीं सुन सकेंगे? उन्हें उठते बैठते, चलेत-फिरते, कहते-सुनते, हँसते-मुस्काते नहीं देख पाएंगे? क्या अब हमारा यह सारा संसार खो जायेगा?’सच में एक शिष्य के लिए गुरु ही उसका सारा संसार है। वही गुरुदेव अपने अलौकिकरूप को सदा- सदा के लिए छिपाने की बात कहे!है न हलक से जान खींच लेने जैसी बात! महाबुद्ध के शिष्य भी साँसों में यही खींच महसूस कर रहे थे।
हालाकि दर्द सबका सांझा था। सबकी एक जैसी नब्ज दुःख रही थी। मगर कराहट बड़ी अलग- अलग उठी!कोई तो रो रोकर अधमरा सा हो रहा था। तब तक रोता जब तक पछाड़ खाकर गिर न जाता। कुछ अनुयायी सर से सर जोड़कर झुण्ड बनाकर बैठ जाते। फिर आँसु बहाते, आँखे गलाते, छाती पीटते , मातम मानते! कुछ स्याने शिष्यो को तो राजनीतिक चिंताएँ भी कचोटने लगी थी। महाबुद्ध के पद पर कौन बैठेगा?
...शिष्यो का एक वर्ग ओर भी था । बड़ा ही अद्दभुत! वे बावरे से हो गए थे। जिस-जिस वस्तु को गुरुवर ने स्पर्श किया था, वे खींचातानी कर क उसे बटोरने में जुट गए। महाबुद्ध अपने शिष्यों की यह रंगारंग लीला देख रहे थे। उनकी पारदर्शी आँखे हृदयों के कोने-कोने में झाँक रही थी। … पर इनकी भीडभाड के बीच एक हृदय ओर था, जिसे वे आशा-बंधी दृष्टि से निहार रहे थे। यह हृदय था- उनके शिष्य तिष्य स्थविर का। तिष्य नितांत मौन था। उसके होंठ सिल चुके थे। आँखों से एक भी आँसु न टपका था। न हसता था, न रोता था। तल्लीन! खोया-खोया सा!समय सरपट भाग रहा था।
दो महीनो का सफ़र तय कर चुका था। अचानक एक दिन…गुरुदेव ने फिर एक महासभा बुलाई। महाबुद्ध आम्रवृक्ष की घनी छाया तले बैठे थे। ऊपर शाखाओं पर कच्चे-अधपके-पके-हर तरह के आम झूल रहे थे। नीचे, महात्मा बुद्ध के सामने भी, हर अवस्था के अनुयायी बैठे थे। महाबुद्ध ने इस विशाल शिष्य-समूह पर द्र्ष्टि घुमाई-उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम! आखिरकार, महाबुद्ध बोले। उपदेश नहीं दिया, एक प्रश्न पूछ लिया-`मेरे बच्चो! मैंने तुमसे कहा था-जो करने योग्य है, सो करो। कहो, तुम सब क्या-क्या कर रहे हो?’एक दल खड़ा हुआ, बोला-`प्यारे तथागत, हम सब विषाद की खाइयों में खो गए हैं। झुण्ड बना- बनाकर रो रहे हैं। महाबुद्ध ने दुसरे दल पर द्रिष्टपात किया। शिष्य बोले-‘ प्यारे गुरुवार ! हम सब चिंता के सिंधु में डूब गए हैं। झुण्ड बना-बनाकर आश्रम की सुचारू व्यवस्था के बारे में सोचते हैं। महाबुद्ध ने अब तीसरे दल की ओर निहारा। वे तो अपनी झोलियों में अपनी उपलब्धियां लिए बैठे थे। किसी ने महाबुद्ध को उनका ही कमंडल उठाकर दिखा दिया। किसी ने चीवर …किसी ने खड़ाऊँ ….
अंत में, महाबुद्ध की सर्वव्यापक द्र्ष्टि ने तिष्य का स्पर्श किया। ’ बोलो वत्स, तुम क्या बटोर रहे हो?’ प्रश्न सुनकर तिष्य उठा, ओर बोला-‘ भगवन! मैं खुद को खो रहा हूँ ओर आपको बटोरने की कोशिश कर रहा हूँ’। ‘ भगवन! जब आपसे सुना की चार माह बाद आप महानिर्वान में समाधिस्त हो जायेंगे, उसी दिन मैंने अपने अन्दर झाँका। पर हाय! अपने को बिलकुल कंगाल पाया। मैं बाहर ही नहीं, भीतर से भी भिक्षु ही था। वहां आप तो कहीं थे ही नहीं!... बस तभी से मैंने अपना सारा चिंतन आपके एक-एक आदर्श को चुनने ओर गुनने में लगा दिया। अपना सारा ध्यान आपकी प्यारी मूरत में बसा दिया… यहीं व्रत लिया की… आपके देह-त्याग से पहले यह तिष्य विदा हो जाए। उसकी देह में, आप समां जाएँ। बस आप ही आप!’
तिष्य कि आखिरी पंक्ति के साथ ही आम्रवृक्ष से एक पका हुआ आम नीचे गिरा। महाबुद्ध उसे देख कर मुस्कुराए, बोले- ‘यह आम पक चूका है। … तिष्य के लिए मैं जाकर भी नहीं जाऊंगा’। अब तक महासभा आंसुओं में भीग चुकी थी। लज्जा से लाल थी। उनकी दशा देखकर डालियों पार झूलती कच्ची अम्बियों ने महाबुद्ध से पूछा … हम तो कच्ची ही रह गयीं। अब हमारा क्या बनेगा? महाबुद्ध फिर मुस्कुराए, बोले- ‘अगले दिन मैं प्रभात लेकर फिर आऊंगा। एक अगले रूप में! ताकि तुम्हें सेक कर मीठे रस से भर पाऊँ। तुम्हे सिखा सकूँ की गुरु के रहते –रहते क्या बटोरना है!’
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