Sunday, January 23, 2011

जगत मजूरी देत है,तो क्यों राखे सरकार ?




संसार का एक उसूल है - काम के बदले मेहनताना | यह नियम सतगुरू के साम्राज्य में भी लागू होता है | जब एक साधक भक्ति करता है,तो गुरु भी उसे उसका मेहनताना देते हैं | पर एक फर्क है | स्वार्थ और परमार्थ का | संसार के मालिकों की बस एक ही कोशिश रहती है - काम ज्यादा से ज्यादा ले लें और मेहनताना कम  से कम देना पड़े | लेकिन गुरू के अलोकिक दरबार में ऐसा नहीं है | वहां तो ठीक इसके विपरीत होता है | स्वार्थ लेशमात्र नहीं है | केवल और केवल परहित की भावना,अथाह दयालुता | इतनी कि चुटकी भर प्रयास के बदले में ही सतगुरु अपनी कृपाओं का पूरा अम्बर खोल देते हैं | अर्पित किए गए एक फूल के बदले में पूरा बगीचा ही उपहार में दे डालते है | इतिहास के पन्नों में दर्ज अनेकों दृष्टान्त इस बात को सिद्ध करते हैं |

जगत गुरु श्री कृष्ण की ऊँगली पर जब चोट लगी,तो कहते हैं कि द्रोपती ने उसी समय  अपनी कीमती साड़ी का पल्लू फाड़कर उनकी ऊँगली पर बांध दिया | उस समय प्रभु ने कहा - 'द्रोपती,मैं तुम्हारे इस कपडे के एक एक धागे का ऋणी हूँ |' उनका ऐसा कहना किसी ओपचारिकता को निभाना नहीं था | बल्कि,भविष्य में द्रोपती पर आने वाले संकट से उसकी रक्षा करने का दिव्य वचन था |.... यही ऋण था जिसे चुकाने के लिए भगवन द्रोपती के लिए उस समय साड़ी का अम्बर लगा देते हैं,जिस समय भरी सभा में उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं था| इस दिव्य सत्ता का सदा से यही स्वभाव  रहा है | वह अपने भक्त द्वारा दी गई छोटी सी भेंट को भी समय आने पर विशाल रूप में लोटाती है | उसकी इस विशालता का अनुमान लगाना भी शायद संभव नहीं है | जिस प्रकार धरती का पानी जब भाप बनकर उड़ता है,तब बदल उस पानी को हजार गुणा करके बरसाता है | इसी तरह गुरु शिष्य के एक - भाव के बदले में अपनी दयालुता को अनंत गुणा करके बरसाते हैं |

लेकिन  हम यहाँ विचार करें,क्या हम में ऐसा विश्वास है,हमारे जीवन में कुछ कष्ट आये | हम मन ही मन गुरु  महाराज जी को उलाहना देना शुरू कर देते हैं | ऐसा ही हुआ था शेख सादी के साथ | शेख सादी नमाज अदा करने के लिए मस्जिद जा रहे थे | गर्मी के दिन थे | ऊपर आग उगलता सूरज और नीचे धरती की घोर तपिश | जूते न होने के कारण उनके पॉँव् बुरी  तरह जल रहे थे | एक - एक कदम रखना आग को छूने जैसा लग रहा था | अब जब दुष्कर परिस्थितिओं ने ललकारा,तो उन के मन में शिकवा पैदा हो गया  ' ऐ खुदा,तेरा यह बंदा तेरी इतनी बंदगी करता है | फिर भी उसकी इतनी दयनीय हालत!' लेकिन तभी वह क्या देखते हैं एक आदमी जिसकी टांगे भी नहीं है,वह हाथों के सहारे मस्जिद की सीडियां चढ़ रहा है | साथ ही खुदा का शुक्र कर रहा है कि वह उस के घर तक पहुँच गया है | तब शेख सादी जी को अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने खुदा से माफ़ी मांगी |

वास्तव में कमी ईश्वर के देने में  नहीं,बल्कि हमारे विश्वास में है | बड़ी बात यह नहीं है कि लोग क्या कहते हैं | अपितु हमारी सोच क्या कहती है - यह महत्वपूर्ण है ,अगर हमारी बुद्धि किसी बात को स्वीकार नहीं करती,तो हम उस बात को वहीँ छोड़ देते हैं |सच तो है कि सतगुरु किसी का कुछ  नहीं रखते | उनके देने में न तो कोई स्वार्थ है और न ही कोई कमी | जब कोई निस्वार्थ भाव से अपना सर्वस्व उनके  चरणों में समर्पित कर देता है,तब वो भी कृपा सागर बन उस पर सब कुछ लुटा देते हैं |

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