Sunday, January 30, 2011

गुरू वही, जो प्रभु का दर्शन करा दे !


संत कबीर जी पेड़ों की झुरमट तले बैठे थे | उनके पास की एक शाखा पर एक पिंजरा टंगा था, जिस में एक मैना पुदक रही थी | बड़ी अनूठी थी, वह मैना | खूब गिटरपिटर मनुष्यों की सी बोली बोल रही थी | कबीर जी भी उससे बातें लड़ा रहे थे | दोनों हँस मैना से कुछ ऊपर पत्तों में छिपकर बैठ गए | 
    इतने में, नगर सेठ अपनी पत्नी के साथ कबीर जी के क़दमों में हाज़िर हुआ | मन की भावना रखी - 'महाराज, मेरे सिर के बाल पक चले हैं | घर-गृहस्थी के दायित्व भी पूरे हो गए हैं | सोच रहा हूँ, हमारी सनातन परम्परा के चार आश्रमों में से तीसरी पौड़ी 'वानप्रस्थ' की और बढ चलूँ | एकांत में सुमिरन-भजन करूँ |'
         कबीर, बिना किसी लाग-लपेट के, एकदम खरा बोले- 'सेठ जी,यूँ वन में इत-उत डोलने से हरि नहीं मिलता!'
सेठ -फिर कैसे मिलता है,हरि ? आप बता दें महाराज |
        कबीर फिर मैना से बतियाने लगे - 'मैना रानी, बोल - राम...राम... !' मैना ने दोहराया - 'राम...राम |' कबीर उससे ढेरों बातें करने लगे | सेठ-सेठानी को इतना साफ बोलते देखकर खुश हो रहे थे... कि तभी कबीर उनकी और मुड़े और बोले-'जानते हो सेठ जी, मैना को मनुष्यी बोली कैसे सिखाई जाती है? आप उसके सामने खड़े होकर उसे कुछ बोलना सिखाओगे, तो वह कभी नहीं सीखेगी | इसलिए मैंने एक दर्पण लिया और उसकी आड़ में छिपकर बैठ गया | दर्पण के सामने पिंजरा था | मैं दर्पण के पीछे से बोला - 'राम!राम!' मैना ने दर्पण के में अपनी छवि देखी | उसे लगा उसका कोई भाई-बंधु कह रहा है- 'राम!राम!' इसलिए वह भी झट सीख़ और समझ गई | इसी तरह दर्पण की आड़ में मैंने उसे पूरी मनुष्यी बोली सिखाई | और अब देखो, यह कितना फटाफट बोलती है...!'
                 इतना कहकर कबीर ताली बजाकर हँस दिए | फिर इसी मौज मैं, सेठ-सेठानी से सहजता से बोल गए - 'ऐसे ही सेठ जी भगवान कैसे मिलता है, यह तो खुद भगवान ही बता सकता है | लेकिन अगर वह यूँ ही सीधा बताएगा, तो तुम्हारी बुद्धि को समझ नहीं पड़ेगी | इस लिए वह मानव चोले की आड़ में आता है और ब्रह्मज्ञान का सबक सिखाता है - ब्रह्म बोले काया के ओले | काया बिन ब्रह्म कैसे बोले || वह मानव बनकर आता है, मानव को अपनी बात समझाने | उस महामानव को, मनुष्य देह में अवतरित ब्रह्म को ही हम 'सतगुरू' सच्चा गुरु या साधू' कहते हैं |
निराकार की आरसी,साधों ही की देहि |
लखा जो चाहै अलख को, इनही में लखि लेहि ||
  
 अर्थात सदगुरू की साकार देह निराकार ब्रह्म का दर्पण है | वो अलख (न दिखाई देने वाला ) प्रभु सच्चे गुरू की देह में प्रत्यक्ष हो आता है |
इस लिए सेठ जी, अगर भगवान को पाना है, तो 'वानप्रस्थ' नहीं, 'गुरूप्रस्थ' बनो | सदगुरू के देस चलो चलो -
चलु कबीर वा देस में, जहँ बैदा सतगुरू होय ||
  
सेठ - सोलह आने सच बात, महाराज | मगर एक दुविधा है | दास जानना चाहता है कि मनुष्य चोले में तो कई पाखंडी स्वयं को 'गुरू' कहलाते घूमते हैं | फिर हम ज्ञानीजन कैसे पहचाने कि  इस काया में साकार ब्रह्म है या कोई ढोंगी है ?
        कबीर ने प्रशंसा भरी दृष्टि से सेठ जी को देखा - 'उत्तम प्रशन किया है आपने | जब तक देखूं न अपनी नैनी, तब तक पतीजूं न गुरू की वैणी - सोच-समझ कर, देखभाल कर ही किसी को सदगुरु दर्जा देना चाहिए | भई, मैं अपनी राय कहूँ, तो -
               साधो सो सतगुरू मोहिं  भावै |
सत नाम नाम का भरि भरि प्याला, आप पिवै मोहिं प्यावै ||
  
मुझे तो ऐसा सदगुरु भाता है,जो प्रभु के अव्यक्त आदिनाम का अमृत मुझे पिला दे |
परदा दूरि करै आँखिन का, निज दरसन दिखलावै |
जा के दरसन साहिब दरसै, अनहद सबद सुनावै |

 जो प्रभु की सिर्फ मीठी-मीठी बातों में न बहलाए | बल्कि मेरी आँख पर से अज्ञानता का पर्दा हटा दे, मेरा शिव - नेत्र (दिव्य दृष्टि ) खोल दे और साहिब का साक्षात् दीदार करा दे और मेरे मेरे अंतर्जगत में अनहद बाणी गूँज उठे... वही पूरा तत्वदर्शी गुरू है | वही सत्पुरश है |'
उधर सेठ-सेठानी और इधर हंस मनमुखा गदगद हो चुके थे | दोनों हंसों को 'गुरू क्यों? और गुरू कैसा?'- इन दो सीखों के बेशकीमती मोती मिल चुके थे | वे उन्हें अपनी चोंच से चुग कर, 'संतों के देस' से वापिस लोट रहे थे |
           प्रिय पाठकों! आपके अंदर ही ये दोनों हंस रहते हैं - आपका मन (मनमुखा ) और आपकी आत्मा (आत्माराम) | आपका हंस आत्माराम परमात्मा के दर्शन के लिए व्याकुल है| पर हंस मनमुखा उसका साथ देने को तैयार नहीं होता | माने वह किसी सदगुरु, तत्वदर्शी सत्पुरश से ज्ञान-दीक्षा लेने के लिए राजी नहीं होता | पर अब  तो आपके दोनों हंसों ने 'संतों के देस' की सैर कर ली है और सत्संग के मोती भी पा लिए है | तो क्या अब आपका 'मनमुखा' माना ?
          यदि अब  भी नहीं माना, तो उसे बारम्बार संस्थान के सत्संग पंडालों में लाना न भूलें, ताकि वह संतों की और वाणियाँ सुन पाए और यदि वह मान गया, तो फिर विलम्ब न कीजिए | 'ब्रह्मज्ञान' की दीक्षा पाकर 'सुख' से आनंद की ओर बढ जाइए |
इस लिए एक पूर्ण संत की खोज करे जो दीक्षा के समय ही परमात्मा क दर्शन करवा दे | अगर कहीं भी आप को ऐसा संत नहीं  मिलता,एक बार 'दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान ' में जरूर पधारे | यहाँ आप सादर आमंत्रित है | आपको  यहाँ अवश्य ही शुद्ध कुंदन सी चमक मिलेगी | यह अहंकार नहीं,गर्व है! बहकावा नहीं,दावा है ! जो एक नहीं, श्री आशुतोष महाराज जी के हर शिष्य के मुख पर सजा है -'हमने ईश्वरीय ज्योति अर्थात प्रकाश और अनंत अलोकिक नजारे देखे है | अपने अंतर्जगत में ! वो भी दीक्षा के समय | हम ने उस प्रभु का दर्शन किया है,और आप भी कर सकते
 हैं |

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